विकलांगों को अभिशाप-मुक्त बनाने की जरूरत

विकलांग अब अक्षमता का पर्याय नहीं रहे। वे तमाम चुनौतियां स्वीकारते हुए अपनी दक्षता साबित कर रहे हैं। लेकिन दक्षता-कौशल के ज्यादातर प्रयास या तो वैयक्तिक हैं या इनकी महत्ता विकलांग दिवस जैसे अवसरों पर समाचार बना लेने के बाद उनका प्रकाशन व प्रसारण कर देने तक निहित है। जबकि इनकी क्षमताओं का संस्थागत इस्तेमाल करने की जरूरत है। लेकिन दुर्भाग्य है कि आज भी देश की नामचीन संस्थाओं में इन वंचितों को भेदभाव की दृष्टि से देखा जाता है, हालॉंकि भारत सरकार ने इन्हें सक्षम और समाज की मुख्यधारा से जोड़े जाने की दृष्टि से अनेक विश्र्वविद्यालयों को पृथक से धन उपलब्ध कराया है जिससे इन्हें हीनता बोध से छुटकारा मिले और इनकी दक्षता प्रदर्शन भर न रह जाए।

विकलांगता पूर्वजन्म का प्रतिफल माने-जाने के कारण हमारे यहॉं अभिशाप रहा है। हालांकि अब ये मिथक टूट रहे हैं और कई क्षेत्रों में विकलांग अपनी उपस्थिति को अपरिहार्य बना रहे हैं। इसके बावजूद भेदभाव के संस्थानों की हमारे यहॉं कमी नहीं है। उत्कृष्ट प्रबंध शिक्षा के क्षेत्र में विश्र्वभर में साख बना चुके भारतीय प्रबंधन संस्थान, मसलन आईआईएम, बैंगलोर ने नब्बे प्रतिशत अंक प्राप्त करनेे वाली एक छात्रा को केवल इसलिए प्रवेश नहीं दिया क्योंकि वह दृष्टिदोष से ग्रसित थी। यहॉं गौरतलब यह भी रहा कि संस्थान ने समाज के विभिन्न वर्गों के लिए प्रवेश परीक्षा में अंक हासिल करने के जो प्राप्तांक निर्धारित किये थे, वे उसने विकलांग कोटे में हासिल किए। यही नहीं ये अंक सामान्य वर्ग के प्रवेश हेतु सुनिश्र्चित किए अंकों से महज आधा प्रतिशत कम थे। लेकिन हैरानी और मनमानी का आलम यह रहा कि उस छात्रा को दृष्टिहीनता का तर्क देकर प्रवेश से वंचित तो किया ही बल्कि आईआईएम ने अपने वेब ठिकाने पर भी कुछ ऐसे संशोधन किए जिससे इन संस्थानों में विकलांग दक्ष होने के बावजूद प्रवेश पाने से वंचित रह जाएं। प्रबंधकीय संस्थानों का यह प्रबंधन क्या वंचितों में हीन भाव और पराजय बोध का कारण नहीं बनेगा? मेरिट में आने के बावजूद उपेक्षा बरते जाना क्या उनमें कुंठा और असुरक्षा के भाव पैदा नहीं करेगी? असुरक्षित व्यक्ति का आाोश हिंसक होता है। ऐसे में यह आत्मघाती कदम भी उठा सकता है और सामने वाले पर हमला भी बोल सकता है?

विकलांगों के साथ भेदभाव के इसी तरह के आचरण संघ लोकसेवा आयोग और कर्मचारी चयन आयोग भी अपना चुके हैं। ऐसे आचरणों से स्पष्ट होता है कि हमारे यहॉं महत्वपूर्ण संस्थानों में विकलांगों के प्रति संवेदनशीलता बरते जाने के बजाय तिरष्कार का भाव जारी है। ऐसे मामलों में वैज्ञानिक निराकरण के लिए विकलांग और उनके परिजन न्यायालय के दरवाजे भी खटखटाते हैं, लेकिन वहॉं फैसला होते-होते समय इतना बीत जाता है कि असल मुद्दा तब तक अप्रासंगिक रह जाता है। जबकि ऐसे प्रकरणों का आधार दस्तावेजी साक्ष्य होते हैं जिन पर जल्दी फैसला लिया जा सकता है। इस छात्रा के सिलसिले में यह सवाल आसानी से उठता है कि जो छात्रा दृष्टिहीन होने के बावजूद अपनी मेधा के बूते आईआईएम की कठिन परीक्षा में प्रवेश के अंक सामान्य वर्ग के बराबर ले आई, आखिर वह आगे की पढ़ाई क्यों नहीं कर सकती? उसके भविष्य के साथ खिलवाड़ किस बिना पर किया गया? प्रबंधकों को मिली अतिरिक्त स्वायत्तता के अर्थ क्या वंचितों के जायज हक छीनने के लिए है? यह बर्ताव मानवाधिकार हनन के दायरे में भी आता है।

संयुक्त राष्टसंघ की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में विकलांगों की संख्या दो करोड़ से भी ज्यादा है। इनमें 49 प्रतिशत शिक्षित हैं। करीब 75 प्रतिशत ग्रामीण क्षेत्रों के रहवासी हैं। ग्रामीण और गरीब परिवारों के विकलांगों के हालात बेहद बदतर हैं। शारीरिक दण्ड तो वे झेल ही रहे होते हैं, अपनों की ही उलाहनाओं का मानसिक दंश भी उन्हें झेलना पड़ता है। विकलांगों के साथ समान व्यवहार, समान अवसर, उनके अधिकारों की सुरक्षा और समाज में उनकी सहभागिता सुनिश्र्चित करने की दृष्टि से ही विकलांगता अधिनियम-1995 लागू किया गया है। जिसके अंतर्गत दृष्टिहीनता, अल्पदृष्टि, कुष्ठरोग, बहरापन, मानसिक रोग, चलने-फिरने की अक्षमता को विकलांगता का दर्जा दिया गया है। इसके बावजूद सरकारी, गैर सरकारी और अनुदान प्राप्त स्वायत्त संस्थायें विकलांगों को वे अधिकार नहीं देतीं जो उन्हें विकलांग अधिनियम में प्रदत्त हैं। ऐसे में विकलांग अधिनियम कागजी पुलिंदा भर रह गया है। कुछ विभागों की सार्वजनिक सेवायें ऐसी ़जरूर हैं जहॉं शारीरिक विकलांगता अपंगता या कमजोरी निश्र्चित रूप से आड़े आती है। ऐसी सेवाओं में सेना, अर्द्घसैनिक बल, पुलिस, चालक, अग्निशमन जैसी सेवाओं को ले सकते हैं। लेकिन जिन कार्यालयों में कम्प्यूटर और टेलीफोन से सारा प्रबंधन होता है, वहॉं विकलांगों की सेवायें महत्वपूर्ण हो सकती हैं। दुर्भाग्य से ऐसे संस्थानों में भी इनके प्रति उपेक्षा बरती जा रही है। हमारे देश ने उस घोषणा-पत्र पर भी हस्ताक्षर किये हैं, जिसमें संयुक्त राष्टसंघ ने समाज में विकलांगों की सम्मानपूर्ण सहभागिता सुनिश्र्चित करने की कल्पना की है। क्योंकि दुनियाभर में जिन समाजों में जन्म पर केंद्रित जो विषमता पीढ़ी दर पीढ़ी चली आ रही है, ऐसी मानसिकता वाले समाज आज भी शारीरिक रूप से विकलांग लोगों के प्रति भेदभाव बरतते हैं। आश्र्चर्य की बात यह भी है कि इस भेद की शुरुआत परिवार से ही होती है। ऐसे लोग असंगठित होने के कारण हीनता बोध से भी पीड़ित होते हैं। इसलिए इनकी समस्याएं चाहे निजी हों अथवा सामूहिक उनकी सुनवाई सहज नहीं होती। इसीलिए ़जरूरी है कि विकलांगों के प्रति पूरी दुनियां में दया व संवेदना मानवीय धरातल का हिस्सा बनें। इनके जीवनयापन व दक्षता के हक कानूनी दायरे में आएं, इस दृष्टि से संयुक्त राष्टसंघ द्वारा यह मानवीय पहल की गई है, जो सराहनीय है। ऐसे ही प्रयासों और दबावों के चलते हाल ही में भारत सरकार के सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय ने शारीरिक रूप से अक्षम लोगों की सुविधा की दृष्टि से विश्र्वविद्यालयों को आवंटन हासिल कराने का प्रावधान रखा है। उच्च शिक्षा के क्षेत्र में ऐसा पहली मर्तबा हुआ है। हालांकि कुछ पाठशालाओं में नेत्रहीनों और मूक-बधिर बच्चों को पढ़ाने की यांत्रिक सुविधायें व विशेष शिक्षक रहे हैं, लेकिन उच्च शिक्षा का क्षेत्र अभी तक अछूता ही था। अब विश्र्वविद्यालयों में विकलांगों को सुविधा मुहैया कराने की दृष्टि से लिफ्ट, सीढ़ियों, कक्षाओं और शौचालयों में उनकी शारीरिक अनुकूलता के मद्देनजर बदलाव किये जाएंगे। अतिरिक्त छात्रावास और दृष्टिहीनों के लिए खासतौर से ब्रेल लिपि में पाठ्य सामग्री उपलब्ध कराई जाएगी। ये प्रयास स्वागतयोग्य हैं। क्योंकि मानसिक रूप से सक्षम होने के बावजूद तमाम विकलांग अनुकूल वातावरण व सुविधायें न मिलने के कारण पढ़ाई से तौबा कर लेते हैं। लेकिन अब ़जरूरी यह भी है विकलांगों को जो कानूनी अधिकार मिले हैं उनके अमल में यदि कोई संस्थान अथवा सरकारी विभाग कोताही बरतता है तो संस्था प्रमुख के विरुद्घ दण्ड का प्रावधान निर्धारित हो। यदि ऐसे प्रावधान नहीं रखे जाएंगे तो भारतीय प्रबंधन संस्थान की तरह अन्य संस्थान भी विकलांगों की शारीरिक कुरूपता के कारण उनके बौद्घिक कौशल को महत्व देने से किनाराकशीं ही करते दिखाई देंगे। क्योंकि भारतीय दर्शन भले ही बाहरी सौंदर्य की बजाय आंतरिक सौंदर्य को महत्व देता हो, लेकिन हमारे आधुनिक शिक्षा संस्थान केवल दिखावे और बाहरी प्रदर्शन को ही महत्वपूर्ण मानकर चल रहे हैं। यदि इन संस्थानों का यही रवैया बरकरार रहा तो विकलांग अभिशाप मुक्त कैसे हो पायेंगे?

– प्रमोद भार्गव

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