श्रीमद्भागवत में रहस्यवाद

अतः यह सिद्घ होता है कि “भागवत’ के सत्संग-संवाद प्रायः रहस्यात्मक एवं तत्व परक ही हैं। निश्र्चित रूप से इसके समाधि-योग में सगुण-ध्यान का ही निर्देश किया गया है, यही स्थान सत्संग-सेवाओं का है, जिसमें लीलाचरित पहले है, तत्व-जिज्ञासा बाद में। सगुण-रूप ध्यान सिद्घ होने पर मन उसमें स्थिर होता है, तथापि “भागवत’ में यह निर्देश दिया गया है कि मन को उससे हटाकर आकाश में लगाना चाहिए। इस तरह भागवत-दर्शन में अवतार लीला ामशः भगवान की विराट लीला में परिणत होती है और भगवान का जब माया से संबंध नहीं रहता, तब भगवान की लीला भी निवृत्त हो जाती है। “भागवत’ के रचना-तंत्र में इस तरह लीला-कथाओं के माध्यम से रहस्यात्मक अनुभूतियों के विकास की ही ओर संकेत किया गया है तथा अधिकांश कथाओं में जीवन का परम सत्य भगवान में खोजा गया है।

गोपी-प्रेमः रहस्यवाद का ऊर्ध्व शिखर: भागवतीय रहस्यवाद मूलतः “प्रेम-तत्व प्रधान’ कहा जा सकता है। प्रेम ही साधन और साध्य दोनों माना गया है। उसी प्रकार से जैसे साधन और साध्य दोनों हैं- एक सत्व गुण रूप तथा दूसरा चित्तत्व स्वरूप। प्रथम मनोवृत्ति रूप है। द्वितीय वृत्तियों से परे हैं। दोनों प्रेमों में वैसा ही अंतर है, जैसा साधन-साध्य और रूप-ज्ञान में, प्रथम ज्ञान का त्याग हो जाता है, वह अज्ञान का नाशक है, किन्तु द्वितीय आत्म-स्वरूप ज्ञान “ग्रहण-त्याग रहित’ नित्य सिद्घ माना गया है।

इसी प्रकार साधन-रूप प्रेम विषय-प्रेम कहा गया है। प्रियतम के प्रति हृदय की सहज गति ही “प्रेम’ है, जैसे अपने-अपने विषय के प्रति इंद्रियों की प्रवृत्तियां होती हैं। कामी की मनः प्रवृत्ति कांता के प्रति होती है, धनार्थी की धन के प्रति, जल की निम्न स्तर के प्रति वृत्ति होती है। यह मनः प्रवृत्ति केवल प्रियतम को ही चाहती है। इसके लिए प्रियतम के अतिरिक्त अशेष विषय विषवत ही नहीं हो जाते, अपितु असत भी हो जाते हैं। भागवतीय रहस्यवाद का यही तात्विक स्वरूप कहा जा सकता है, जिसमें प्रेमी को परम तत्व रूप से ब्रह्म लक्षित होता है, ब्रह्म के अतिरिक्त वह और कुछ नहीं देखता, प्रियतम ही उसका ब्रह्म हो जाता है। इसीलिए ब्रह्म को प्राप्त करके भी साधक ब्रह्म को नहीं मांगता, वह मांगता है केवल प्रेम। उसके लिए समस्त पूजन-विधि, उपासना आदि साधन गौण हो जाते हैं। उसके अशेष इंद्रियों के िाया-व्यापार श्रेष्ठ के लिए ही होते हैं, उसके कर्ण उसी के गुण सुनना चाहते हैं, नेत्र उसी के दर्शन, पांव उसी की ओर अभिसरण करते हैं तथा हाथ उसी के कार्य करना चाहते हैं। इस प्रकार इंद्रियां सर्वत्र समवेत होकर प्रियतम का ही अनुगमन करती हैं, जैसे अशेष सरिताएं सागर की ओर ही जाती हैं। “भागवत’ में गोपियों का प्रेम ऐसा ही है, उनकी प्रेम-प्रवृत्ति का फल श्रीकृष्ण को ही प्राप्त करना है। श्रीकृष्ण का प्रेम प्राप्त करने के लिए वे अशेष दुःख को सहर्ष स्वीकार करती हैं। श्रीकृष्ण के लिए वे विश्र्व के वैभव को त्याग देती हैं। श्रीकृष्ण के प्रति प्रेम की प्रबलता के कारण उन्हें सम्पूर्ण विश्र्व ही कृष्णमय दिखलाई देता है और दुःखों की प्रतीति ही नहीं होती। श्रीकृष्ण से इतर उन्हें किसी रस का बोध नहीं होता। गोपियां सर्वत्र परम प्रियतम का आनंद अनुभव करती हैं, श्रीकृष्ण की ओर ही जाती हैं, उन्हीं का सेवन-भजन चाहती हैं, चाहे लोक-निंदा करे, चाहे स्तुति। जिसमें प्रियतम के आनंद की अनुपस्थिति होती है, वे सबका त्याग करती हैं।

भावात्मक और अभावात्मक साधनः “भागवत’ में भावनात्मक और अभावात्मक दोनों साधन विषय से मुक्त होने के लिए ही हैं। भावात्मक साधन में सगुण स्वरूप के ध्यान द्वारा विषयों की ओर से मन को नियंत्रित करना होता है। भावात्मक साधन में अशेष दृश्य मात्र को माया मात्र जानकर उसका त्याग करना होता है। सगुण ध्यान भी वस्तुतः प्रियतम का चिन्तन नहीं है, अपितु विषय से मुक्त होने के लिए मन को निर्विषय स्थान में ले जाने का अभ्यास मात्र है। भागवत-प्रेम की प्रथम भूमिका के रूप से लोक-विषय-ग्राह से अपने को छुड़ाना सम्मुख आता है। बिना विषय-विमुक्ति के प्रियतम आत्मा की प्राप्ति हो ही नहीं सकती।

अध्यात्म-पथ में विषयों से मोक्ष ही ध्येय होता है तथा यही मोक्ष स्वरूप स्थिति है। विषयों से मुक्त होने पर फिर जीव को प्रियतम के आनंद के लिए भावात्मक प्रयास भी नहीं करना पड़ता। श्रीकृष्ण में गोपी मनोवृत्ति है, जिसमें से विषय या काम को निकाल देने से शुद्घ चैतन्य-वृत्ति ही शेष रहती है, जिसे “भागवत’ में निर्गुण या पराभक्ति कहा गया है। इसमें भगवान का स्वरूप सर्वात्म-स्वरूप हो जाता है। इसीलिए भागवतकार इस भक्ति या प्रेम के विषय को शुद्घ “सत्व’ कहते हैं। इसमें भक्त के आत्म-रूप और समस्त विश्र्व के आत्म-रूप परमात्मा एक हो जाते हैं। इसी अवस्था में ब्रह्म और आत्मा की एकता का बोध होता है। ब्रह्म (श्रीकृष्ण) और आत्मा (गोपियां) की एकता की यह अनुभूति ही “भागवत’ में परम प्रेम है।

प्रेम समाधिः “भागवत’ में सगुण ध्यान फल यद्यपि मनोनिग्रह मात्र है, तथापि इस निग्रह का फल निग्रह में ही नहीं है, अपितु सर्वत्र भगवद्-दर्शन में है। तात्विक समाधि तो मन की निर्विषय स्थिति होती है। यह ज्ञानमयी स्थिति नहीं है, किन्तु इसे सुसुप्तिवत अज्ञानमयी स्थिति भी नहीं कह सकते, यह निग्रहात्मक अथवा प्रपंचों से अभावात्मक स्थिति है। इसमें जल के भीतर कमल पत्रवत् साधक की स्थिति नहीं होती। जल के भीतर कमल पत्रवत् स्थिति ज्ञान से होती है, जिसे प्राप्त करने के लिए समाधि आदि निग्रहात्मक साधन का अनुसरण किया जाता है। भागवतोक्त प्रेम-समाधि इससे भिन्न स्थिति होती है। कुछ न देखना (तात्विक समाधि) सिद्घि नहीं, अपितु सब कुछ आत्म-भाव से देखना (प्रेम-समाधि) सिद्घि है।

भागवत-दर्शन में सर्वत्र आत्म-भाव, सबको भगवद्-भाव से देखना, सर्वत्र भगवान है, ऐसा देखना ही वास्तव में समाधि है। इसमें द्वैत का आत्यांतित लय हो जाता है। सम्पूर्ण संसार असद् और एकमेव भगवान ही सद् हो जाते हैं। अशेष दृश्य-अदृश्य विषय आत्मा ही है, ऐसा आत्मभाव भागवतोक्त समभाव है। यह समभाव और अद्वैतभाव ही जीवित जाग्रत समाधि है, सगुण ध्यान का फल है। सर्वत्र आत्म-दर्शन होने पर प्रेम और परमानंद अपनी सर्वोच्च अवस्था को प्राप्त हो जाते हैं, किन्तु लोक का प्रियतम परिछिन्न होता है। अतः लोक का प्रेमानंद भी परिछिन्न माना जाता है। अतः वह विकारग्रस्त है, नश्र्वर है, किन्तु जब प्रियतम नित्य अपरिछिन्न सर्वव्यापी हो जाता है तो प्रेमानंद भी अपरिछिन्न, सदैव, सर्वत्र, अमृत, अविकारी, एकरस हो जाता है। यहां विधि निषेध की कोई सीमा नहीं होती। विधि निषेध तो द्वैत जगत के नियम हैं, अद्वैत जगत में यह आस्तत्व-रहित है। प्रेम-समाधि रूप अद्वैत-भाव में विधि-निषेध, प्रवृत्ति-निवृत्ति, राग-द्वेष आदि अशेष द्वंद्वों की आत्यांतिक निवृत्ति हो जाती है। (ामशः)

 

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