संस्कृति और धर्म का मिला-जुला अनुष्ठान है श्राद्घ

भारतीय दर्शन में आवागमन की परंपरा है। किसी-किसी को मोक्ष प्राप्त होता है, लेकिन वह आध्यात्मिक जगत की बहुत ऊंची स्थिति होती है। श्राद्घपक्ष का संबंध जन्म-मृत्यु के आवागमन की परंपरा से है। हमारे धर्मशास्त्रों ने मनुष्य पर तीन ऋण बताए हैं- देव ऋण, ऋषि ऋण और पितृ ऋण। देव ऋण से मुक्ति होती है पूजा-अर्चना, हवन आदि करने से। ऋषि ऋण से मुक्ति मिलती है शास्त्रों के अध्ययन, अध्यापन करने से और पितृ ऋण से मुक्ति प्राप्त होती है श्राद्घ करने से।

माना जाता है कि पितृ ऋण से जो मुक्त नहीं होते, उन्हें पितृदोष लगता है। इससे वंश-वृद्घि रुकती है और वृद्घि न होने से मनुष्य की रचनात्मकता प्रभावित होती है। वह जीवनभर अतृप्त रहता है। इस विचार को आज के युग में दकियानूसी ख्याल माना जाता है, लेकिन वास्तव में ऐसा नहीं है। श्राद्घ हमारी संस्कृति और धर्म का मिलाजुला अनुष्ठान है। इसमें जितनी प्राचीन परंपरा है, उतना ही नवीन विज्ञान है। श्राद्घ यदि यज्ञ की तरह कर्मकांड है तो योग और ध्यान की तरह शरीर और मन को संतुष्ट और आनंद पहुंचाने की आधुनिक क्रिया भी है।

पितृदोषी जीवन भर अतृप्त रहता है। इसके अनेक उदाहरण अपने आस-पास देखने को मिल सकते हैं। इसलिए स्वयं की तृप्ति के लिए पितरों की तृप्ति आवश्यक है। श्राद्घ दो बार किए जाते हैं। विधिपूर्वक विवाह करने के बाद जब संतान का जन्म होता है तो नांदीमुख श्राद्घ किया जाता है। नांदी यानी आनंद का अवसर। आनंद की ओर मुख यानी नांदीमुख। अपने वंशज की आनंद प्राप्ति पर पितरों का मुख आनंद की ओर होता है। दूसरा श्राद्घ मृत्यु से संबंधित रहता है। महाभारत और रामायण में श्राद्घ पर बहुत ही दार्शनिक तरीके से बात कही गई है। भीष्म जब शरशैया पर थे तो युधिष्ठिर ने उनसे राजधर्म का ज्ञान प्राप्त किया था। उस समय भीष्म ने युधिष्ठिर को श्राद्घ, पितरों के तर्पण आदि विषयों पर समझाया था।

इन दिनों श्राद्घकर्म में ब्राह्मण को भोजन करवाना सबसे चर्चित विषय और प्रश्न रहता है। क्या केवल ब्राह्मण को भोजन करवा देने से पितर संतुष्ट हो जाते हैं? क्या आज के ब्राह्मण इस योग्य हैं कि वे पितर परंपरा को सम्मान देने का माध्यम बन सकते हैं? यह सवाल सबसे पहले खड़ा हो जाता है। पितर क्या होते हैं, वे देवलोक में किस अंश में होंगे, हम उन्हें क्या स्मरण करें, ये प्रश्न तो दूसरे क्रम में आते हैं। युधिष्ठिर ने भीष्म से यह प्रश्न किया था कि कहा जाता है देवकर्म में ब्राह्मणों की परीक्षा नहीं की जाए, लेकिन श्राद्घ में ब्राह्मण योग्य हैं या नहीं, ऐसी परीक्षा की जाए। इसके क्या कारण हैं। भीष्म ने कहा था- न ब्राह्मणः।। साधयते हव्यंदैवात् प्रसिद्घ यति। देवप्रसादा दिज्यन्ते यजमानैर्न संशयः।। (महाभारत-22वां अध्याय)। यज्ञ, होम आदि देव-कार्य की सिद्घि ब्राह्मण के अधीन नहीं है। ये कार्य देव से सिद्घ होते हैं। देवताओं की कृपा से ही यजमान यज्ञ करते हैं। लेकिन श्राद्घ में उसकी सिद्घि सुपात्र ब्राह्मण के अधीन है। भीष्म के अनुसार सुपात्र ब्राह्मण में सात गुण होने चाहिए। कुलीन, कर्मठ, वेद के विद्वान, दयालु, सरल और सत्यवादी। इस प्रकार स्मृतियों में उल्लेख है कि िायानिष्ठ, तपस्वी, पंचाग्नि का सेवन करने वाले, ब्रह्मचारी तथा माता-पिता के भक्त, ये पांच प्रकार के ब्राह्मण श्राद्घ की संपत्ति हैं। इन्हें भोजन करवाने से श्राद्घकर्म का संपूर्ण संपादन होता है। धर्मशास्त्रों ने श्राद्घ में एक छूट और दी है कि अपनी कन्या का बेटा ब्रह्मचारी हो तो उसे भी भोजन करवाने से श्राद्घकर्म पुण्य प्राप्त कराता है। एक रोचक प्रसंग रामायण में आता है। चित्रकूट में श्रीराम को जब अपने पिता के निधन का समाचार भरत से मिला, तब उन्होंने मंदाकिनी नदी के किनारे तर्पण किया। वाल्मीकि रामायण में लिखा है- एतत् ते राजाशार्दूल विमलं तोयमक्षयम्। पितृलोकगतस्याद्य मद्दत्तमुपतिष्ठतु। (अयोध्याकांड 103/27)। मेरे पूज्य पिता महाराज दशरथ, आज मेरा दिया हुआ यह निर्मल जल, पितृलोक में गए हुए आपको अक्षय रूप से प्राप्त हो। राम ने यह प्रार्थना की कि जो भोजन हम इस समय कर रहे हैं, वही आप स्वीकार करें। मनुष्य स्वयं जो अन्न खाता है, वही उसके देवता भी ग्रहण करते हैं। इससे स्पष्ट है कि हमारा भावनात्मक संबंध अपने पितरों से है। पद्मपुराण में वर्णन है कि वन में दशरथ जी के श्राद्घ के समय रसोई सीता जी ने स्वयं तैयार की थी। ब्राह्मणों को भोजन करवाया जा रहा था, उस समय सीता जी उठीं और कुटिया के भीतर चली गईं। श्रीराम ने पूछा तो उन्होंने उत्तर देते हुए कहा था, “”जब हम ब्राह्मणों को भोजन करवा रहे थे, उस समय मैंने उनके शरीर में पूज्य पिताजी (दशरथ) के दर्शन किये। मुझे संकोच हुआ, जिन पिता ने मुझे रानी के रूप में देखा, वे आज मुझे इस रूप में देखते तो उनको दुःख होता, इसीलिए मैं चली आई।”

महाभारत में भीष्म जब अपने पिता शांतनु को पिंडदान कर रहे थे तो उन्होंने पिण्डग्रहण करते हुए अपने पिता का हाथ देखा था और वे कंकण से उन्हें पहचान गए। ये घटनाएं इस बात का प्रमाण हैं कि पितर हमारे आसपास हैं।

भारतीय-दर्शन में इस अनुभूति की पूरी व्यवस्था श्राद्घ के रूप में की गई है। मनुष्य की जब मृत्यु होती है तो उसकी आत्मा देह से पृथक हो जाती है। उस समय देह में स्थित पंचमहाभूत व स्थूल कर्मेंद्रियां ये सब तो छूट जाती हैं, किन्तु 17 तत्व ऐसे होते हैं, जिनसे निर्मित एक सूक्ष्म शरीर रह जाता है। वह सूक्ष्म शरीर बचा रहता है। इस सूक्ष्म शरीर को संसार में थोड़ी रुचि बनी रहती है, बहुत ही सूक्ष्म अभिलाषा के रूप में होता है, किंतु शरीर छूट जाने के कारण वह उनका भोग नहीं कर पाता। धर्मग्रंथ कहते हैं कि एक वर्ष तक सूक्ष्म आत्मा को नया शरीर प्राप्त नहीं होता है, इसलिए श्राद्घ से उस सूक्ष्मजीव को तृप्ति प्राप्त होती है। यह अपने पितरों के प्रति प्रेमपूर्वक किया गया स्मरण बन जाता है। अतः हम पूरे मनोभाव से दत्तचित्त होकर और अखंड विश्र्वास के साथ दान करते हुए, ब्राह्मण को भोजन करवाते हुए यह मानें कि हमारी श्रद्घा से श्राद्घ द्वारा ये कर्म सूक्ष्म अंश में परिणित हो जाएं और हमारे पितरों को प्राप्त हों, ऐसा निश्र्चित होता है।

श्राद्घ एक टेलीपैथी है। यह श्रद्घापूर्वक किया गया एक कार्य है। शास्त्रों ने बड़ी अच्छी बात कही है-

पिता धर्म, पिर्ता स्वर्ग

पिताहि मोक्षदायकः।

पितरि प्रीतिमापन्ने प्रीयन्ते सर्व देवताः।।

भूमिः गरीयसी माता

स्वर्गादुच्चतरः पिता।।

माता-पिता से बढ़कर कोई नहीं है। अतः सभी को माता-पिता और पूर्वजों के प्रति आस्थावान होना चाहिए। जब वे हमारे समक्ष होते हैं तो हमें उनकी सेवा करनी चाहिए और उनके निधन के बाद श्राद्घकर्म से उन्हें संतुष्ट करना चाहिए। यह एक ऐसी फिलॉसफी है, जो हमारे जीवन को धर्म और नैतिक अनुशासन देती है। इस अनुशासन से हम आज सफल, संतुष्ट और प्रसन्न रहते हैं। यह सभी की कामना है, जो पितरों के आशीर्वाद के रूप में पूर्ण होकर हमें प्राप्त हो जाती है।

– रीमा राये

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