सत्य की राह

धर्म सत्य पर आधारित है। “धर्मः सः न यत्र सत्यम् नास्ति’। जहॉं सच्चाई नहीं है, वहॉं धर्म नहीं है। शास्त्रों में कहा गया है कि जो धर्म में प्रतिष्ठित हैं, वे सर्वज्ञ बन जाते हैं। सब कुछ उनको मालूम हो जाता है। उन्हें पढ़ने, लिखने, सीखने की जरूरत नहीं पड़ती। सत्य में प्रतिष्ठित होना सबके लिए सम्भव है, चाहे वह पढ़ा-लिखा हो अथवा अनपढ़। सत्य में प्रतिष्ठित होने के लिए लिखने-पढ़ने की आवश्यकता नहीं है, अनपढ़ भी सत्य में प्रतिष्ठित हो सकते हैं। “सत्य प्रतिष्ठित सर्वज्ञ बीजं’ अन्त में सत्य की ही विजय होती है, मिथ्या की जय नहीं होती। मिथ्याश्रयी परम शक्तिधर हो तो भी उसकी हार हो जायेगी। सत्याश्रयी यदि एक चींटी के समान हो और मिथ्याश्रयी ऐरावत की तरह बड़ा हो, तो उस ऐरावत को भी सिर झुकाना पड़ेगा। छोटी चींटी की जय हो जायेगी। मैं नहीं मानता कि तुम चींटी हो, किन्तु यदि कोई तुम्हें ऐसा समझे तो उसको समझना चाहिए कि यह चींटी सत्याश्रयी है, अतः उसकी विजय होगी ही। “सत्यमेव जयते नानृतं सत्येन पन्था वितती देवयानः।” सत्य की जो राह है, वह कल्याण की राह है। उससे मोक्ष की राह प्रशस्त हो जाती है और इसी कल्याण के रास्ते पर युग-युग से मुनि-महर्षि चलकर आगे बढ़े और चलते-चलते पहुंच गये उस स्थान पर, जो सत्य का परमाश्रय है, वे परमपुरुष के पास पहुंच गये। “ह्याप्तकाम’ अर्थात मनुष्य जिस चीज को जानना चाहता है, उसे जान गया। उसकी वह भूख मिट जाती है, प्यास मिट जाती है, तृप्ति मिल जाती है, मनुष्य जो चाहते हैं पा जाते हैं, सर्वज्ञ बन जाते हैं। प्राचीन काल में ऋषि-मुनि उसी सत्य का रास्ता पकड़ कर उसके आश्रय परमपुरुष के पास पहुंच गये थे, “यत्र तत् सत्यस्य परमं निधानं।’ आज के मनुष्य उन्हीं ऋषियों-मुनियों के उत्तर पुरुष हैं। अतः वे भी उस रास्ते पर चलकर परमपुरुष तक पहुंच जायेंगे। हिम्मत के साथ आगे बढ़ते रहो। घबराने की कोई जरूरत नहीं है। हीनमन्यता का कोई अवकाश नहीं है, सत्य के पथ पर चलो, धर्म तुम्हारे साथ है। जय तुम्हारी अवश्य होगी।

 

– आनन्दमूर्ति

 

You must be logged in to post a comment Login