सामूहिक हिंसा, हिंसा न भवति

एक दिन टीचर ने क्लास में बच्चों को पढ़ाया कि हमें  क्रोध नहीं करना चाहिये क्योंकि जब हमें क्रोध आता है तो हम अपना विवेक खो बैठते हैं। इसका परिणाम यह होता है कि हममें भले-बुरे की पहचान नहीं रहती। हम अपना आपा खो बैठते हैं और हमें उचित तथा अनुचित में कोई फर्क नजर नहीं आता। इससे हम कई बार ऐसे कार्य कर बैठते हैं जो हमारे खुद के लिये और हमारे देश या समाज के लिये बड़े घातक साबित होते हैं। हमें प्रयत्न करना चाहिये कि कभी अपने ऊपर क्रोध को हावी न होने दें। यह आदर्श स्थिति है लेकिन यदि क्रोध आ ही जाये तो हमें क्या करना चाहिये, क्या तुममें से कोई इस बातका जवाब दे सकता है?

टीचर का लेक्चर समाप्त होते ही एक ब्रिलियंट छात्र फौरन उठ खड़ा हुआ और बोला, “सर जी! अगर हमें क्रोध आ जाये तो सर्वप्रथम हमें अपने घर में टूट-फूट के लायक वस्तुओं की सूची बना लेनी चाहिये जैसे क्राकरी, कांच के बल्ब, ट्यूब आदि, खिड़कियों के शीशे, फर्नीचर वगैरह वगैरह।’

“फिर तुम्हारा अगला कदम क्या होगा?’ टीचर ने पूछा। “फिर क्या, उन सारी चीजों को अच्छी सामर्थ्य भर उठा कर पटकना चाहिये और फिर उन पर पेटोल छिड़क कर आग के हवाले कर देना चाहिये।’

“लेकिन बेटे, यह तो सरासर आपराधिक प्रवृत्ति है। भला अपना घर फूंक अपने क्रोध को शान्त करना कहॉं की समझदारी है? बल्कि यह तो कोरा पागलपन है। मुझे तुमसे ऐसे उत्तर की आशा नहीं थी।’

“नहीं गुरू जी, यह अपना विरोध व्यक्त करने की विशुद्घ लोकतांत्रिक पद्घति है। क्रोध शान्त करने का यही सॉलिड तरीका है।’

“लेकिन इस तरह से हमारा जो नुकसान होगा, उसका खामियाजा तो अंततः हमीं को भुगतना होगा। क्या तब हमें अपने किये पर शार्मिन्दा नहीं होना पड़ेगा?’

“अरे गुरुजी, इसमें काहे की शरम और काहे का पछतावा। बल्कि हमें तो इस बात पर गर्व होगा कि हमने उत्पात मचाकर सबका ध्यान अपनी तरफ खींच ही लिया। इससे हमारे विरोधी पक्ष को हमारी ताकत का एहसास होगा और वो हमारी बात पर तवज्जो देने को मजबूर हो जायेगा।’

“लेकिन क्या तुम जानते हो कि तुमने जो अपने घर का किया है उसकी भरपाई कभी संभव नहीं हो सकती। गड़े हुए पेड़ को अगर एक बार उखाड़ दिया तो वह दोबारा उसी जगह खड़ा नहीं हो सकता।’

“अरे गुरुजी, आप किस दुनिया की बात कर रहे हैं। यह जो तरीका मैंने बताया है वह नये जमाने की लेटेस्ट पद्घति है। क्या आप नहीं देख रहे कि आज हमारे देश में जिसे अपनी बात मनवानी होती है वो अपने समर्थकों की भीड़ लेकर सड़क पर आ जाता है। जाम लगाता है, वाहनों को तोड़-फोड़ कर उसमें आग लगाता है। रेलों को रोकता है, पटरियों को उखाड़ता है। सरकारी भवनों को तहस-नहस कर देता है और इस तरह अपनी बात लोकतांत्रिक कर ही दम लेता है। बावजूद इसके लोकतंत्र मजबूत हो रहा है, देश तरक्की कर रहा है।’

“लेकिन अपने स्वार्थ के लिये पूरे समाज के लिये मुसीबत खड़ी करना एक खतरनाक हिंसक प्रवृत्ति है। यह एक गंभीर अपराध है।’

“गुरु जी, सामूहिक हिंसा, हिंसा नहीं होती बल्कि यह तो आन्दोलन होता है। सारे राजनैतिक दल यही तो करते हैं। जरा-जरा सी बात पर बंद करना, जाम लगाना या तोड़-फोड़ करना इनकी दिनचर्या का अहम हिस्सा है। क्या कोई उन्हें अपराधी कहता है? बल्कि इन्हें समाज के हित के लिये संघर्ष करने वाला जुझारू नेता कहा जाता है।’

“लेकिन कोई भी गलत काम तो सिर्फ गलत होता है, चाहे अकेले किया या समूह में। कोई भी कानून इसकी इजाजत नहीं दे सकता कि कुछ लोग इकट्ठे होकर अपराध करें तो उन्हें दण्ड के बजाय शाबाशी मिले।’

“अरे गुरुजी, आप गुरु होकर भी समाज की गतिविधियों से अनभिज्ञ नजर आते हैं। देखिये, जब किसी पंचायत में प्रेमी युगल को जिंदा जला दिया जाता है तो कानून उनका कुछ नहीं बिगाड़ पाता क्योंकि सौ दो सौ लोगों पर अभियोग चलाना संभव नहीं जबकि अगर यही काम कोई एक व्यक्ति करे तो उसे जेल होगी और फांसी भी हो सकती है। इसी तरह सड़कों पर उत्पात करने वाले माननीय किसी तरह की कानूनी गिरफ्त में आने से बचे रहते हैं क्योंकि भीड़ पर मुकदमा कैसे चलेगा? अपने अंदर की हिंसक या विध्वंसक प्रवृत्तियों को अमलीजामा पहनाना है तो भीड़ का हिस्सा बनिये। आपको आँच भी नहीं आएगी और आप अपने मन का गुस्सा भी उतार सकेंगे। गुरुजी, यही आज की तारीख का सच है कि आपको अगर भेड़िया बनना है तो उसके लिये अपने जैसों का समूह बना लीजिये।’

– प्रेमस्वरूप गंगवार

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