सृजन समर्पण की उत्तरशती

पुस्तक : सृजन समर्पण की उत्तरशती

संपादक : डॉ. रामचन्द्र तिवारी एवं अन्य

प्रकाशन : सार्थक प्रकाशन, गौतम नगर,

नई दिल्ली

मूल्य : 130 रुपये मात्र।

श्रीजीतेन्द्र नाथ पाठक एक विलक्षण व्यक्तित्व के कवि हैं। वे समस्त विश्व को काव्यमय बनाना चाहते हैं। उनके इस रागात्मक व्यक्तित्व को केवल एक हल्के-से हवा के झोंके के स्पर्श की दरकार है, बस उनमें कविता के तार झनझना उठते हैं। यह प्रेरणा तो उन्हें कहीं बाह्य जगत् से ही प्राप्त हुई है, जैसे मॉं सरस्वती का वरदान पा लिया हो।

पाठक जी का कहना है कि नयी कविता नयी शताब्दी के यांत्रिक हो रहे जीवन की ओर संकेत करती है। कवि देशज, तद्भव, तत्सम, उर्दू, अंग्रेजी आदि शब्दों का प्रयोग आवश्यकतानुसार करते हैं। इससे वे भावों, विचारों व भाषा में विविधता लाने में और सम्प्रेषित करने में अति सफल हुए हैं।

डॉ. पाठक की कविताएँ समकालीन मनुष्य की जातीय और वैश्विक पीड़ा से जुड़ी हुई हैं। वह जातीय जीवन की दुर्नियति, बेशुमार कष्टों और उत्पी़डनों से पूरी तरह व्यथित होकर कविता की परिभाषा करते हैं : कविता/ यदि तुम्हें तुम्हारी / दीवारों की साजिश से मुक्त कर / सूखे और बाढ़ से पिटे मैदानों / बदहाली से बिसूरते गॉंवों/ और बेहाली से ऊँघते फुटपाथों से न जोड़ दें / तो वह कविता क्या है?

समर्पण और सृजन की उत्तरशती नामक ग्रंथ में समस्त लेखकों द्वारा इन कृतियों के मूल्यांकन का विस्तार है। प्रस्तुत कृति डॉ. पाठक की अद्भुत काव्य कला का श्रेष्ठ उदाहरण है। वे मानवीय वेदना और करुणा के कवि हैं। वे विसंगतियों के अंधकार में मानव समाज को रोशनी प्रदान करने का प्रयत्न करते हैं। विसंगति, घुटन और हताशा में डूबे व्यक्ति को चेतना, जीवन मूल्य प्रदान करने वाली चिंता उनके कर्तृत्व में विद्यमान है। इसलिए पाठकजी जीवनगत विसंगति की चुनौतियों से मुकाबले के लिए तैयार रहते हैं, एक सुखद मानव-भविष्य को रूप देने के लिए सचेष्ट रहते हैं।

जितेन्द्र नाथ पाठक मानवीय संवेदनाओं के कवि हैं। उनकी कविता जीवन के प्रत्येक क्षेत्र को अपनी परिधि में समाहित करने की क्षमता रखती है। उनकी सोच इतनी व्यापक तथा विराट है कि वह आम आदमी की संवेदना तक पहुँचती है। वह किसी भी बात को पूरा करने के पहले उसे चुनौती के रूप में लेते हैं और उस चुनौती के द्वारा ही अपने लक्ष्य को प्राप्त करते हैं।

इस कविता में अभिव्यक्त दर्शन महत्वपूर्ण है, शाम के अंधेरे ने कहा – / मौन का अर्थ / मुखरता के अंधेरे से कहीं ज्यादा है भाई / तमाम बोलते हुए लोग / टिड्डियों की तरह / चाटते चले जा रहे हैं/ पृथ्वी की पूरी हरियाली / किन्तु मौन के भीतर का अर्थ/ खोलती है िाया की भाषा/ और लौटा देती है / धरती को उसकी हरियाली। इस तरह से पाठकजी समग्रतावादी कविता के प्रवर्तक कवि माने जा सकते हैं।

जितेन्द्रनाथ पाठक की खास विशेषता यह है कि वे एक तरफ तो अध्यात्म से जुड़ते हैं तो दूसरी तरफ वे भौतिकवाद से भी जुड़े हैं। उनका यह जुड़ाव दोनों को उचित सामंजस्य में ही रखता है, कभी भी असंतुलित नहीं होने देता। उस संतुलन में वह अपने प्रियतम को सॉंझ के डूबते सूरज की तरह देखकर उदास हो जाता है और यह उदासी इतनी ज्यादा बढ़ जाती है कि प्रियतम की जुदाई में वह अपने इस जीवन को भी डूबते सूरज की भॉंति देखने लगता है।

“झुकती सॉंझ से/ तुम्हारा न जाने कौन रिश्ता है/ कि तुम्हारे न होने पर वह/ बेहद उदास हो जाती है।’

“झुकती सॉंझ का आसमान/ बढ़ते अंधेरे / को भरने जल उठते हैं बल्ब / तब तुम फिर से उजागर होती हो/ एक टीस बन कर / रोशनी के इर्द-गिर्द।’ – रोशनी के इर्द-गिर्द (पृ.स.16)

भारतीय जनता की अस्मिता का ख्याल तो उन्हें कविता की प्रत्येक पंक्ति में रहता है। वे अपनी कविताओं के माध्यम से यथार्थ की समग्रता को समेटते हुए मनुष्य की संकीर्णता को भी उजागर करते हैं। “सागर मन की कविताएँ’ इसी भावना से ओत-प्रोत हैं। वह समूचे समाज को बदलने के पक्षधर हैं। वे लिखते हैं –

हमें ताज्जुब है उन लोगों पर / जो शब्दों का संगीत पहचानते हैं / उनका अर्थ जानते हैं / और उनका प्रयोग करते हैं / शतरंज के मोहरों की तरह / इसलिए / शब्दों पर से उठता जा रहा है विश्वास हमारा/ और शायद हमारे समय का भी। (शब्दों की यात्रा सागर मन, पृ.स.42, 43)

जितेन्द्रनाथ पाठक की कविता में भावों का उन्मेश है। उनकी कविताओं में यथार्थ का पुट तो है ही, उस यथार्थ में कल्पना ऐसे सिमट कर एक हो गई है मानो दूध और पानी का संबंध हो। इस तरह समूची कविताओं के अर्थगाम्भीर्य को बहुत ही ऊँचाई प्रदान कर देती हैं।

मानवीकरण द्वारा एक गॉंव का यथार्थ किन्तु मर्मस्पर्शी बिम्ब निम्न पक्तियों में देखें –

पेड़ों के बीच/ कच्चे-पक्के घरों और गलियों की कथा पहने / सिर पर / सफेद दुमंजिले की टोपी लगाए / नदी के कगार पर / नंगे पॉंव खड़ा है / एक गॉंव।

कवि गॉंव की पीड़ा को सत्ता के मठाधीशों तक पहुँचाना चाहता है। उसकी असमर्थता व मूक वाणी को स्वर देता है कि इनकी ही सहायता से सत्ता पाये तुम क्यों इन्हें भूल गये?

प्रकृति का अंधाधुंध दोहन एवं औद्योगिकीकरण के तीव्र विकास का भयावह परिणाम है- पर्यावरण प्रदूषण। मानव-जीवन के रक्षा-कवच अर्थात् ओजोन परत में हुए छेद की समस्या से विश्र्व समुदाय के बड़े-बड़े वैज्ञानिक चिन्तित हैं। प्रकृति के प्रति उदासीनता इस संकट को और बढ़ाती जा रही है। इन भावनाओं से ओत-प्रोत होकर लिखी गई पंक्तियॉं – मैंने देखा / उसके अगल-बगल के पेड़ कट गए हैं / मुझे लगा कि उसके दो भाई / उसके दाहिने और बाएँ हाथ कट गए हैं / और बेहद छटपटा रहे हैं / छूट गया वह अकेला / हर आँधी-तूफान के लिए।

इतनी सुन्दर एवं स्तरीय रचना संग्रह के लिए जितेन्द्र नाथ पाठक बधाई के पात्र हैं। निश्चय ही सहृदय पाठक वर्ग इनकी कृतियों का हृदय से स्वागत करेगा। इस संदर्भ में महाकवि तुलसीदास की पंक्तियॉं बरबस याद आ रही हैं-

“”सरल कविता कीरति बिमल सुनि आदर हैं सुजान /सहज बयरू बिसराइ रिपु जो सुनि करहि बखान।”

निश्चय ही यह कविता की युगों-युगों तक व्याप्त रहने वाली परम कसौटी है, जिस पर कवि पाठक जी की रचनाएँ आने वाले दिनों में और भी अधिक खरी उतरेंगी- हमारी ऐसी हार्दिक शुभकामनाएँ हैं।

– राजकुमारी सिंह

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