हताश न्यायपालिका-जिम्मेदार कौन?

अभी हाल में देश के सर्वोच्च न्यायालय ने अपने एक निर्णय में हाथ खड़े कर दिये तथा हताश होकर विद्वान न्यायाधीश ने कहा कि अब इस देश को अराजकता से भगवान भी नहीं बचा सकता। राजनेताओं द्वारा बड़ी तादाद में सरकारी बंगलों पर अवैध कब्जों की सुनवाई के दौरान न्यायाधीश ने यह हताशा जाहिर की।

बात यहीं खत्म नहीं हो जाती। इस वक्तव्य के बाद केरल उच्च न्यायालय ने भी अपने एक निर्णय में ठीक इसी प्रकार की हताशा दिखाई। केरल में कम्युनिस्ट पार्टियों एवं अन्य संगठनों के रोज-रोज की हड़ताल, बन्द, रास्ता रोको एवं हिंसा तथा गुण्डागर्दी से परेशान होकर विद्वान न्यायाधीश ने कहा कि केरल को अराजकता एवं गुण्डागर्दी से भगवान भी नहीं बचा सकता।

न्यायपालिका की इस हताशा से स्पष्ट है कि देश के हालात कितने बिगड़ चुके हैं तथा चारों तरफ अराजकता का माहौल है। देश में कानून का कोई शासन ही नहीं है तथा देश में संविधान एवं लोकतंत्र एकदम असफल हो गये हैं।

प्रश्र्न्न यह उठता है कि इस असफलता एवं अराजकता के लिए कौन जिम्मेदार है। इस प्रश्र्न्न का सीधा-सादा उत्तर यह है कि इस हताशा एवं अराजकता के लिए काफी हद तक देश की न्यायपालिका एवं न्यायाधीश स्वयं जिम्मेदार हैं। मानवाधिकार एवं कानून व्यवस्था के नाम पर अक्सर स्वयं न्यायाधीश अपराधियों के विरुद्घ कठोर निर्णय देने में घबराते हैं तथा मुजरिमों को स्वयं ही न्याय व्यवस्था के निकम्मेपन तथा भ्रष्टाचार का कवच पहनाते हैं।

आज भी अनेक नेता अपराध एवं भ्रष्टाचार के संगीन मामलों में मुजरिम हैं परन्तु स्वयं न्यायाधीश उनके विरुद्घ शीघ्र एवं कठोर निर्णय देने से हिचकिचाते हैं। शिबू सोरेन, लालू यादव, मुलायम सिंह यादव, मायावती, करुणानिधि, प्रकाश सिंह बादल, ओमप्रकाश चौटाला, फातमी, तस्लीमुद्दीन, शरद पवार, अर्जुन सिंह, फारूख अब्दुल्ला जैसे अनेक बड़े नेता घोटाले तथा आपराधिक मामलों में फंसे हुए हैं परन्तु कभी भी न्यायालयों ने इनके प्रति कठोरता नहीं अपनाई अपितु न्याय में देरी होने से इनका भविष्य उतना ही सुरक्षित एवं चमकता गया।

इसी तरह न्यायपालिका ने संविधान की कुछ व्यवस्थाओं को इतना अधिक शक्तिशाली बना दिया है कि आज वे कानून स्वयं न्याय व्यवस्था एवं संविधान से ऊपर हो गये हैं तथा अपने आप में संवैधानिक आतंक का पर्याय बन गये हैं। इस श्रेणी में अनुसूचित जाति एक्ट, दहेज निवारण कानून, महिलाओं के यौन उत्पीड़न से संबंधित कानून रखे जा सकते हैं। ये कानून आज आतंक का पर्याय बन चुके हैं तथा न्यायपालिका भी इन कानूनों के सामने बेबस है।

अभी हाल में न्यायपालिका ने कुछ ऐसे निर्णय दिये हैं जो आने वाले समय में समाज एवं स्वयं न्यायपालिका के लिए समस्या बन जायेंेगे। उदाहरण के लिए लड़के-लड़कियों का बिना विवाह साथ रहना (लिव इन) एवं महिला द्वारा विवाहित पुरुषों से शादी करने के मामलों में न्यायालय ने इसमें महिलाओं को कतई दोषी नहीं माना है। हर मामले में पुरुष ही दोषी है। उल्टे महिलाओं को न्यायालय ने मोटा मुआवजा पुरुष से दिलवाया है।

ऐसे मामलों में जितना पुरुष दोषी होता है उतनी ही महिला होती है। वह समाज में अनैतिकता ही नहीं फैला रही अपितु किसी अन्य महिला का उत्पीड़न भी कर रही होती है। इसके साथ ही वह किसी मॉं-बाप, बेटा-बेटी, भाई-बहन पर अत्याचार की दोषी है, अतः वह भी एक अपराधी है। परन्तु न्यायालय एक अपराधी को तो सजा देती है परंतु दूसरे अपराधी को पुरस्कृत करती है।

देश में विवाह कानून के दुरुपयोग में भी न्यायालय मददगार सिद्घ हो रहे हैं। इन सभी व्यवस्थाओं के दुरुपयोग पर स्वयं सर्वोच्च न्यायालय के एक न्यायाधीश ने टिप्पणी की कि देश का कानून परिवारों को तोड़ने एवं उजाड़ने का कार्य कर रहा है।

इसी प्रकार न्यायपालिका ने देश में आतंकवाद पर लगाम कसने में अत्यन्त कमजोरी दिखाई है। कश्मीर, नन्दीग्राम, सिंगुर, रायपुर तिराह कांड जैसे जघन्य आपराधिक मामलों में कोई मजबूती नहीं दिखाई जिससे आपराधिक तत्वों के हौसले बुलन्द करने में मददगार रहा है। अब जातीय आरक्षण एवं तुष्टीकरण ऐसे कगार पर पहुँच गये हैं जिनके सामने न्यायपालिका बेबस हो गयी है। यह दोनों व्यवस्थाएं अपने आप में संविधान एवं न्यायपालिका से ऊपर हो गई हैं।

देश के गैर सरकारी संगठन (एनजीओ) भी अब इतने शक्तिशाली हो गये हैं कि इनके सामने न्यायपालिका एकदम बेबस हो गई है। गुजरात दंगों के बाद कुछ एनजीओ ने देश की न्याय व्यवस्था को घुमा कर रख दिया तथा उनसे मनमर्जी निर्णय करवाये। अब एनजीओ अपने आप में एक कानून बन चुके हैं।

इस सारे वर्णन से स्पष्ट है कि आज देश की न्याय प्रणाली में हताशा एवं बेबसी के लिए स्वयं न्यायपालिका जिम्मेदार है। उसके अपने निर्णयों ने ही उसे आज इतना कमजोर कर दिया है कि आज जज महोदय स्वयं हताश एवं बेबस हो गये। इतना ही नहीं, आज अनेक जज रिटायरमेंट के बाद नौकरी के लिए नेताओं की चापलूसी करते हैं जिससे सेवानिवृत्ति के बाद उन्हें रोजगार मिल सके। मानव अधिकार आयोग, अनुसूचित जाति आयोग, अल्पसंख्यक आयोग आदि ऐसे आयोग हैं जो वोट बैंक को लुभाने के लिए बनाये गये हैं तथा आयोग के लिए वोट बैंक का अखाड़ा बन गये हैं। परन्तु इन आयोगों में पुनः रोजगार के अवसरों के कारण कतिपय न्यायाधीश इन पदों पर गिद्घ टकटकी लगाये रहते हैं जिससे न्यायपालिका की मजबूती एवं निष्पक्षता प्रभावित होती है।

अगर न्यायपालिका को स्वयं को पुनः मजबूत करना है तो बिना किसी भय अथवा लालच के मजबूत एवं कठोर निर्णय लेने होंगे। अगर अब भी विद्वान न्यायाधीश ऐसा नहीं करते तो उन्हें हताश एवं बेबस होकर भगवान की ओर ही देखना होगा और एक समय ऐसा आयेगा कि उनकी हताशा एवं बेबसी से भगवान भी सुरक्षा नहीं कर पायेंगे।

– डॉ. योगेश शर्मा

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