हम भी जिम्मेदार हैं इस आर्थिक मंदी के

आर्थिक उथल-पुथल की तुलना यदि हम ऐसे गुब्बारे से करें जिसमें क्षमता से अधिक हवा भरी जा रही हो और परिणामस्वरूप वह फूट जाये तो स्थिति आसानी से स्पष्ट हो सकती है। जिस प्रकार से मल्टीनेशनल कंपनियों ने अपने यहॉं अंधाधुन्ध भर्ती की थी और भारी-भरकम पैकेज अपने कर्मचारियों को दिये थे, उससे ऐसा लग रहा था कि या तो कम्पनियों में अंधाधुन्ध आमदनी हो रही है अथवा प्रतिस्पर्धा के चक्कर में मोटे-मोटे वेतन देकर कम्प्यूटर इंजीनियरों और व्यावसायिक मैनेजरों को लुभाया जा रहा है। किन्तु विचारों के किसी एक कोने में यह था कि इसका हश्र सम्भवतः अच्छा नहीं होगा। प्रतिस्पर्धा के दौर में योग्यताओं, प्रतिभाओं को मोटे-मोटे वेतन देकर अपनी कम्पनी में रखना अच्छी बात है किन्तु वेतन इतने भी नहीं होने चाहिए कि कम्पनी का सारा लाभ, सारी पूँजी वेतन में ही निकल जाये और यही हुआ। हर कम्पनी ने आवश्यकता से अधिक भर्तियॉं कीं, क्षमता से अधिक वेतन दिये। परिणाम हुआ कि कम्पनियॉं घाटे में आ गयीं और कर्मचारियों को निकालने को विवश हुईं। नौकरी पर रखना आसान होता है किन्तु किसी को नौकरी पर रख कर निकालना बहुत ही टेढ़ी खीर है। परिणाम सामने आ रहे हैं। कम्पनियॉं कर्मचारियों को निकालने पर विवश हैं और निकाले जा रहे कर्मचारी आन्दोलन पर उतारू। सम्पूर्ण विश्र्व अपनी इस गलती का खामियाजा उठायेगा। एक कम्प्यूटर इंजीनियर को या एक मैनेजर को एक लाख रुपये मासिक से अधिक वेतन और अन्य सुविधाएं साथ में देकर जिन कम्पनियों ने नियुक्तियॉं दी थीं, वह सभी कम्पनियॉं आर्थिक दृष्टि से घुटनों के बल चलने को मजबूर हो गयी हैं।  5 लाख प्रतिमाह वेतन पर नियुक्ति देने वाली कंपनियॉं शीघ्र ही बन्द होने के कगार पर हैं। क्षमता से अधिक हवा भरने पर जैसे गुब्बारा फूटता है ऐसे ही आर्थिक सामर्थ्य से अधिक, वार्षिक लाभ को ध्यान में न रखते हुए लम्बे-चौड़े वेतन पर कर्मचारियों की नियुक्ति करना अपने दुष्परिणाम दिखाने लगा है।

वोट की राजनीति के चक्कर में सरकारी कर्मचारियों, बीमा तथा बैंक व अन्य अर्धसरकारी कार्यालयों में अंधाधुंध वेतन वृद्घि की गयी है। बैंक या बीमा कम्पनी के एक कर्मचारी को जो वेतन मिलता है वह 20 परिवार को पालने के बराबर होता है। आखिर वेतन वृद्घि की कोई तो सीमा निश्र्चित होनी चाहिए। 50,000 रुपये मासिक वेतन प्राप्त करने वाला कर्मचारी इतना काम नहीं करता जितना वेतन लेता है लेकिन कोई भी सरकार वोट बैंक खो देने के डर से, जरा-सी भी हड़ताल होने पर तुरन्त वेतन बढ़ाने को तैयार हो जाती है। परिणाम होता है, ऐसी कम्पनी, बैंकों और निगमों का आर्थिक दृष्टि से टूटना।

सांसदों व विधायकों को मिलने वाली करोड़ों रुपये की राशि जो सांसद व विधायक निधि के रूप में दी जाती है, वह भी इस आर्थिक उथल-पुथल की जिम्मेदार है। जो काम सरकार को सीधे-सीधे करना चाहिए उसके लिए पहले से ही पैसा सांसदों और विधायकों को दिया जाये यह उचित नहीं है। इससे भ्रष्टाचार बढ़ता है। पैसे का सदुपयोग नहीं होता। कुछ सांसदों और विधायकों को छोड़ कर यह सांसद और विधायक निधि देश के काम नहीं आती। केवल कुछ व्यक्तियों की ाय शक्ति बढ़ाने से सुखद नहीं बल्कि दुष्परिणाम सामने आते हैं। सांसद और विधायक निधि केवल व्यक्तिगत लाभ के लिए सांसदों और विधायकों द्वारा बनाये गये कानून हैं। यह समाप्त होने चाहिए।

किसानों की ऋण माफी भी बैंकों को खोखला कर रही है। राजस्व पर भी भारी दबाव पड़ रहा है। वोट प्राप्त करने के लिए सरकार पहले कर्जा बॉंटती है और कर्जा वसूल न होने की दशा में पुनः वोट के लालच में कर्जा माफ कर देती है। इसका लाभ केवल तथाकथित किसानों को मुख्य रूप से होता है। प्रत्येक पार्टी की सरकार किसानों को अपने पक्ष में करने के लिए कर्जे बॉंटना और कर्जे माफ करने का नाटक दोहराती रहती है। जनता की गाढ़ी कमाई का पैसा कर्जों के बॉंटने और माफ करने में चला जाता है और जो किसान कर्जा लेते हैं वह उस कर्जे की राशि से अपनी खेती को नहीं सुधारते बल्कि व्यक्तिगत सुविधाओं में, मनोरंजन में वह पैसा उड़ा देते हैं। ऋण केवल उसे ही दिया जाना चाहिए जो ऋण का सदुपयोग करे और ऋण को वापस कर दे। बैंकों पर जो मुसीबत आयी है या आने वाली है उसका कारण कर्जे बॉंटना और उनकी वसूली न होना मुख्य है।

सरकार करों व बिजली की चोरी रोकने में सफल नहीं हुई है। व्यापारिक संस्थान करोड़ों रुपये की चोरी कर रहे हैं। कभी छापा पड़ता है तो पकड़े जाते हैं, जुर्माने होते हैं लेकिन बाद में पिछली हानि को भी पूरा करने के लिए चोरी की मात्रा बढ़ा दी जाती है। ऐसे कई व्यापारिक संस्थान हैं जिन पर अरबों रुपये कर की देनदारी है किन्तु कभी सरकारी शिथिलता और कभी राजनीतिक प्रभाव के चलते कर वसूली नहीं होती। बिजली का तो इससे भी बुरा हाल है। कई मोहल्ले ऐसे हैं जिनमें खुलेआम तारों पर कट-वे डालकर बिजली की आपूर्ति होती है और विभागीय कर्मचारी ऐसे मोहल्लों में जाने से डरते हैं और यदि चले भी गये तो या तो वहॉं से पिटकर आते हैं अथवा कोई कार्यवाही चोरों के विरुद्घ करने में स्वयं को असमर्थ पाते हैं। यह सरकारी नीति का दुष्परिणाम है।

सांसदों, विधायकों और बड़े-बड़े शिखरस्थ अधिकारियों पर टेलीफोन और बिजली के बिल की बकाया करोड़ों में है। जितना बड़ा सांसद उतनी ही बड़ी बकाया राशि। देशभक्ति की इससे बड़ी मिसाल क्या होगी कि हम टेलीफोन और बिजली का बकाया भी नहीं देना चाहते। हम सांसद हैं अतः यात्रा भी मुफ्त करेंगे, खाना भी मुफ्त खायेंगे और होटल में भी मुफ्त ठहरेंगे। हम देशभक्त हैं, देश को हर प्रकार से चूसने का हमें अधिकार है। इन सांसदों, विधायकों और अधिकारियों से टेलीफोन या बिजली का बिल वसूल करने का साहस प्रधानमंत्री में भी नहीं है क्योंकि उन्हें भी अपनी कुर्सी बचाने के लिए इनका समर्थन चाहिए।

विदेश यात्राएं किसी भी देश की आर्थिक स्थिति को खराब करने में सोने पे सुहागे का काम करती है। विदेश यात्राओं से कोई लाभ नहीं होता। केवल मंत्री और अधिकारी मौजमस्ती के लिए विदेश यात्राओं पर, सरकारी खर्चे पर सपरिवार जाते हैं और साथ में अपने दोस्तों को भी ले जाते हैं। वहॉं से जो खरीदारी करके लाते हैं, उसका भुगतान भी सरकारी कोष से होता है। सुविधाशुल्क का भी बहुत बड़ा हाथ मन्दी लाने में है। किसी एक अफसर, मंत्री, व्यापारी के घर की जॉंच की जाये तो करोड़ों रुपया हिसाब-किताब से बाहर, आय से अधिक सम्पत्ति के रूप में मिल जायेगा। जिन-जिन अधिकारियों के यहॉं और जिन-जिन मंत्रियों के यहॉं छापे पड़े हैं उनके यहॉं करोड़ों रुपयों की सम्पत्ति यहॉं पर और विदेशों में मिली है। यदि कोई कानून हो और स्विस बैंकों से जानकारी की जाये तो रिश्र्वत का पैसा अनायास ही हाथ आ सकता है। सुविधाशुल्क के नाम पर प्रत्येक विभाग देश को और जनता को चूना लगा रहा है। इससे तो अच्छा है कि सुविधाशुल्क को कानूनी मान्यता प्रदान कर दी जाये।

बेरोजगारी भी एक प्रकार से आर्थिक मंदी के लिए जिम्मेदार है। बेरोजगार युवक रास्ते से भटक जाते हैं। रेलों में, सड़कों पर, बैंकों में रोज ही लूट की घटनाएं होती हैं। करोड़ों रुपया इधर से उधर हो जाता है। कुछ पकड़ा जाता है और कुछ पकड़ने वाले खा जाते हैं। इससे महंगाई भी बढ़ती है और आर्थिक मंदी का दौर भी हावी होता है। आर्थिक उथल-पुथल के लिये िाकेट का खेल और िाकेटरों को दिये जाने वाला धन भी जिम्मेदार है। िाकेटर को एक साल में करोड़ों रुपये दे दिये जाते हैं। जिसका कोई लाभ देश को नहीं मिलता।

आर्थिक मंदी के इस दौर का उद्योगों का सरकारीकरण भी जिम्मेदार है। चीनी मिलें अधिग्रहीत की गयी थीं। जितने की मिल नहीं थी उससे अधिक रुपया उन मिलों में अब तक लग चुका है और मिलें अब भी चलने योग्य नहीं हैं तथा हर साल हानि दे रही हैं। बैंकों ने मिलों को कर्जा दिया। बैंक दिवालिया हो गये और मंदी हावी होती गयी। हम खुद जिम्मेदार हैं इस आर्थिक मंदी के। कोई अंकुश न किसी अधिकारी पर है, न मंत्री पर और ना ही सरकारी उद्योग-धन्धों पर है। सरकारी खजाना और बैंक खाली होते जा रहे हैं। जनता पर राजकोष के हित में अंधाधुन्ध कर लगाये जा रहे हैं। जनता करों के बोझ से पिस रही है। उद्योग सरकारीकरण के चलते पिस रहे हैं। बैंक कर्जे बॉंटते-बॉंटते दिवालिया हो गये हैं। ऐसे में आर्थिक मंदी नहीं होगी तो क्या होगा। देश का ईश्र्वर ही मालिक है क्योंकि जिस देश का राजा अपने ही कोष की चोरी करने लगे तथा अधिकारी और मंत्री भ्रष्टाचार में लिप्त हो जाये उस देश का आर्थिक ढांचा एक दिन तो लड़खड़ाकर गिरेगा ही। प्रतीक्षा कीजिए। अब भी अगर नहीं सुधरेंगे और नहीं चेतेंगे तो बरबादी के अलावा कुछ हाथ नहीं आयेगा।

 

– हितेश कुमार शर्मा

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