हम भी हैं बेचारे बेबस

आपस की रंजिश में गोलियॉं चलीं, दो हताहत हुए, एक की मौके पर मौत हो गई। पब्लिक का गुस्सा फूट पड़ा – पुलिस निकम्मी है… हत्यारों को तुरन्त नहीं पकड़ती।

इससे पहले कि पुलिसकर्मी कुछ समझ पाते, मृतक की लाश नगर के चौराहे पर थी। मृतक के रिश्तेदारों के साथ कुछ नेता भी नमूदार हुए, जिन्हें बहुत दिनों से अखबारों में सुर्खियां नहीं मिल सकी थीं। मीडिया हरकत में आया, इलेक्टॉनिक चैनल अपने प्रसारण वाहन लेकर मौके पर ही पहुँच गए ताकि खबर से पहले ही खबर सूंघकर दर्शकों के सम्मुख परोस सकें।

रास्ता जाम हो गया, पब्लिक का गुस्सा आठवें आसमान पर पहुंच गया। उनकी मांग बढ़ती जा रही थी, पहले नारा लगाया, “मृतक के परिवार को पॉंच लाख का मुआवजा दिया जाए।’

किसी ने कहा, “मुआवजे की राशि बहुत कम है, अधिक मांगो ताकि समझौते में आसानी हो, मुआवजा अच्छा मिले।’

फिर नारा लगा, “मुआवजा दस लाख रुपये मिलना चाहिए, जब तक मुआवजा नहीं मिलेगा तब तक लाश को चौराहे से नहीं हटाया जाएगा, जाम लगा रहेगा।’

पुलिस की जीप धरनास्थल पर पहुँच गई। एक छुटभैया चिल्लाया, “पुलिस थाना मुर्दाबाद’, उसकी आवाज में किसी ने कोई खास सुर नहीं मिलाया, फिर खिसियाहट से बोला, “अरे, शोर मचाओ, शोर नहीं मचाओगे तो पता कैसे चलेगा कि धरना है, रास्ता जाम है। शोर मचाओ, तोड़-फोड़ करो, बहरी सरकार, बहरा प्रशासन तभी कुछ सुनता है जब तोड़फोड़ होती है, लोग परेशान होते हैं।’

एक सींकिया पहलवान ने डण्डा उठाया। भीड़ में खड़ी परिवहन निगम की बस के शीशे पर दे मारा, उसकी देखादेखी दो-तीन पत्थर बस पर उछले। किसी ने जला हुआ टायर उछाल दिया। फिर जीप में बैठे और नौ-दो ग्यारह हो गए, उनके लिए यह कोई नई बात नहीं थी।

अपने थानेदार मित्र से मैंने यह किस्सा सुना तो मुझे लगा कि भीड़तंत्र में भीड़ की बातें ही ध्यान से सुनी जाती हैं। यदि भीड़ साथ न होती तो मुआवजे की घोषणा कतई न की जाती। आंदोलनकारियों से स्नेह भरा व्यवहार नहीं किया जाता। लोकतंत्र में सबसे अच्छी बात यही हुई है कि जिसे देखो वही रास्ता जाम करके अपनी नेतागिरी चमकाने लगता है। मुद्दे चाहे जैसे भी हों। मुझे एक किस्सा और याद आ गया कि एक परिवार में घरेलू कलह से पति-पत्नी और बच्चे जहर खाकर मर गए तो मुहल्ले वाले ही मुआवजे के लिए सड़क पर जाम लगाकर बैठ गए, रिश्तेदार आ गए, घड़ियाली आंसू बहाने लगे। मृतक परिवार को अपना सर्वाधिक सगा बताने लगे, जबकि उनके कलह को सुलझाने के समय उनके दर्शन दुर्लभ ही थे।

मैंने थानेदार मित्र से पूछा, “भइए… तुम्हारी नौकरी भी क्या है। जिसे देखो, वही तुम्हारे कंधे के फीते खिंचवाने की धमकी देता रहता है। पता नहीं कब किस पल तुम्हारी नौकरी पर आंच आ जाए। कब, कौन तुम्हें समाज का दुश्मन बताकर तुम्हारे खिलाफ आंदोलन कर दे।’

पुलिस का नरम स्वभाव उस समय पहली बार मैंने देखा, जब थानेदार मित्र द्रवित होकर बोले, “हमें तो कोई आदमी समझता ही नहीं, हमें सब पुलिस वाला ही समझते हैं।’

“अरे… पुलिस वाले हो तो पुलिस वाला ही समझेंगे, और कुछ क्यों समझने लगे?’ मैंने कहा। “तुम भी समझना नहीं चाह रहे हो। फिर भी सुनो, कोई अपने घर में झगड़ा कर रहा है, पत्नी से मुंह फुलाकर सूली पर लटक रहा है तो हमें क्या अन्दाजा है कि वह कब अपने घर में पंखे से लटक जाएगा? आपसी रंजिश में किसी को गोली मारी जा रही है, तो क्या जरूरी है कि पुलिसवाला वहां उपस्थित हो। कोई कुछ अपराध करे, कानून का उल्लंघन करे, सारा दोष पुलिस के मत्थे ही मढ़ दिया जाता है। गोया पुलिस ही सब कुछ कराती है, तिस पर मुआवजा तो ऐसे मांगा जाता है, जैसे सारा दोष सरकार और पुलिस वालों का हो।’

“सो तो है… लोकतंत्र में मीडिया सिाय है, दबाव बनाना जानता है। मीडिया के चलते पब्लिक दबाव बनाती है। कोई न्याय की बात नहीं करता, अपने-अपने स्वार्थों की रोटियां सेंककर सभी अपना उल्लू सीधा करने की फिराक में रहते हैं। कोई ठंडे दिमाग से सोचता ही नहीं कि लोकतंत्र का मतलब सरकार पर दोषारोपण करके मुआवजा मांगना ही नहीं है।’ मैंने कहा। मित्र ने कहा, “तुम नागरिक हो, कुछ भी कह सकते हो, सोच सकते हो किन्तु हमारी मजबूरी समझो, हम पुलिस वाले अपना दुःखड़ा किसके सम्मुख रोएं। चौबीस घण्टे की नौकरी, तिस पर खतरा मंडराता ही रहता है।’ मेरी संवेदनाएँ अब थानेदार मित्र के साथ थीं।

 

– डॉ. सुधाकर आशावादी

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