हर पल संघर्ष करती औरत

भारतीय महिलाओं की स्वतंत्रता और उनके सशक्तीकरण के कितने भी दावे क्यों नहीं किये जायें, सच यही है कि तमाम कानूनों के बावजूद उन्हें लगातार अपने वजूद की लड़ाई लड़नी पड़ती है। हाल ही में किये गये एक सर्वेक्षण में 40 प्रतिशत भारतीयों ने माना कि विधवाओं और तलाकशुदा महिलाओं के साथ बड़े पैमाने पर भेदभाव होता है। अंतर्राष्टीय स्तर पर जहॉं औसतन 86 प्रतिशत लोगों ने माना कि महिलाओं के अधिकार महत्वपूर्ण हैं वहीं ऐसी राय रखने वाले भारतीयों की संख्या 60 प्रतिशत ही रही। केवल 53 प्रतिशत भारतीयों ने माना कि देश की सरकार महिलाओं के साथ भेदभाव को रोकने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।

वास्तविकता तो यह है कि औरत जात सबसे पहले अपने गर्भ में औरत के लिए जगह ढूंढती है। ऐसा केवल अपने अर्ध समाज में ही नहीं है। विश्र्व में कहीं भी सामान्यतः मॉं पहले लड़का ही चाहती है। एक समाचार के अनुसार भारत में भ्रूण लिंग निर्धारण अपराध होने के कारण अब महिलाएं विदेशों में जाकर ऐसे परीक्षण करवाने लगी हैं। हम कितने ही जागरूक हो जायें लेकिन बेटे का मोह छूटता ही नहीं। अभी भी अधिकांश घरों में बचपन में लड़कों को ही वरीयता मिलती है, चाहे वे उम्र में छोटे हों- मुद्दा चाहे खान-पान और वस्त्रों का हो या शिक्षा का। एक विद्वान का कहना है कि लड़की यह सब महसूस करती है और मन में छोटी होती जाती है। उसमें सहनशीलता के बीज भी इसी आयु में बोये जाते हैं क्योंकि उम्रभर उसे पुरुष प्रधान परिवार और समाज में ही रहना है।

इसे भी विडम्बना ही कहा जा सकता है कि वैज्ञानिकों द्वारा यह स्थापित किये जाने के बावजूद कि लड़का या लड़की होना पुरुष के शारीरिक योगदान पर निर्भर करता है, बेटियां पैदा करने के लिए औरत ही प्रताड़ित होती है। किसी ने ठीक ही लिखा है कि दुनिया में अगर न्याय का कोई एक विश्र्वव्यापी संघर्ष है, तो वह नारी के लिए न्याय का संघर्ष है। अगर किसी एक मुद्दे पर हर सभ्यता, हर परंपरा का दामन दागों से भरा है, तो वह स्त्री की अस्मिता का मुद्दा है। इस न्यूनता का एहसास भी हर समाज के अवचेतन में मौजूद है। पुरुष विधुर हो या तलाकशुदा, कोई अंतर नहीं पड़ता। उसे दूसरी शादी करने में समस्या का सामना नहीं करना पड़ता जबकि औरत की परिस्थितियां विपरीत होती हैं।

बहुत लम्बे तर्कों या शास्त्रार्थ में जाये बिना केवल इतना स्पष्ट करना ़जरूरी है कि किसी भी स्त्री के व्यक्तित्व का अधिकार किसी भी धर्म, सभ्यता या समाज व्यवस्था की कृपा का परिणाम नहीं है। उल्टे स्त्री के स्नेहमयी और ममतामयी व्यक्तित्व का हनन हर सभ्यता का सबसे बड़ा नैतिक खोखल है। शायद ही औरत को अपने देशकाल में नये सिरे से अपनी जगह बनानी पड़ती है। वर्ना आज भी ऐसे परिवारों की कमी नहीं जहॉं हर फैसला पुरुष का होता है। बच्चा हो या न हो यह भी पुरुष की इच्छा पर निर्भर करता है।

स्त्री को रक्षा के लिए कानूनों का जो कवच दिया गया था, वह नयी चुनौतियों के आगे अपने को लाचार पा रहा है। उन कानूनों के भरोसे भी निश्र्चिंत नहीं हुआ जा सकता। वे कानून ठीक तरह से लागू हों, इसके लिए तो सजग रहना ही पड़ेगा। ़जरूरत ज्यादा से ज्यादा कानूनों के थोड़े से पालन की नहीं, थोड़े से कानूनों के अच्छी तरह पालन की है।

– डॉ. रेणुका

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