हारे को हरिद्वार

चुनावों में हारे हुए प्रत्याशी हरिद्वार चले जाते हैं। इसका कोई प्रमाण और आंकड़ा तो उपलब्ध है नहीं, पर हो सकता है पहले के जमाने में कुछ एक गये भी हों। हरकी पौड़ी पर नहा-धो कर तरोताजा होकर लौट भी आये हों या फिर साधु-संन्यासी हो गये हों। साधु-संन्यासी होकर भी तो राजनीति की ही जा सकती है।

तथापि, उत्तर प्रदेश के पराजित प्रत्याशियों के बारे में पहले यह उक्ति सटीक लगती थी। अब हरिद्वार स्वयं उत्तराखंड में चला गया है। वहॉं के हारों का हरिद्वार जाना तो समझ में आता है। उत्तर प्रदेश वाले भला क्यों जाएँ? इस प्रदेश में क्या गंगा नहीं बहती है? किसिम-किसिम की गंगाएँ हैं। यहीं पर डुबकी मारकर प्रायश्र्चित कर लेंगे।

एक तो चुनाव में ही इतना खर्च हो गया। चुनाव आयोग की नजर बचाते-बचाते भी काफी कुछ बह गया। जितनी जमा-पूंजी थी, उसका एक बड़ा हिस्सा स्वाहा हो गया। लंबी कमाई का सपना धरा रह गया। अब हरिद्वार जाने का खर्च भी झेलें! नहीं जाते हरिद्वार।

प्रचार में हर द्वार गये। क्या फल मिला? हरिद्वार जाकर भी क्या कमा लेंगे। चुनाव में चलते-चलते थक गये। प्रचार-वाहनों तक के पांवों में छाले पड़ गये। भाषण भूंकते-भूंकते समर्थकों समेत खुद का गला पगला गया। हाथ जोड़ते-जोड़ते हथेलियों में गड्ढे पड़ गये। झुक कर प्रणाम करते-करते कमर दोहरी हो गयी। वह तो गनीमत कहिए कि रीढ़ नहीं थी, वरना वह भी टेढ़ी हो गयी होती। अब खुद के द्वार का ताला भीतर से बंद करके बिसूरने के दिन हैं, तो हरिद्वार चले जाएं! नहीं जाते।

मतदाता जितना बिगाड़ सकते थे, बिगाड़ चुके। अब कोई इन पराजित प्रत्याशियों का क्या बिगाड़ लेगा? यहीं डटे रहेंगे। विधानसभा के द्वार तक जा नहीं पाए, हरिद्वार क्यों जाएं भाई! एक अदद प्रतिष्ठा की लुटिया थी, वह भी अपने ही चुनाव क्षेत्र की तलैया में डूब गयी। चुनाव से पहले कितनी पूजा-अर्चना की थी। किस-किस धाम पर मत्थे नहीं टेके। हर सिद्घपीठ पर गये। हर जाति के देवी-देवता पूजे, तमाम खंडहरों के जीर्णोद्घार का आश्र्वासन बांटते फिरे। जब भगवान नहीं पसीजे, तो हम ही भक्ति के लिये बचे हैं।

जो जीते हैं, जाएं। ये जीते-जी कहीं नहीं टरकने वाले हैं। ऊपर और नीचे वालों पर भरोसा ही खत्म हो गया। हार गये तो संन्यासी हो जायें क्या? नहीं जाते हरिद्वार! राजनीति करने उतरे हैं। चुनाव के दंगल में कूदना ही हिम्मत का काम है। ये इनके सुस्ताने के दिन हैं। जब भी मौका पाएंगे, फिर कूदेंगे। आज इस टीले से कूदे थे, कल किसी और दल के चबूतरे से छलांग लगाएँगे। राजनीति के कुएं में, जो एक बार मेढक सरीखा फुदक लेता है, वह ता उम्र वहीं का होकर रह जाता है। ये कुआं बदल लेंगे, नदी किनारे नहीं जाएंगे।

ये क्षेत्र का विकास करना चाहते थे। अपने-परायों का इहलोक सुधारना चाहते थे। वोटर छली निकले। इनके अरमानों का गला घोंट दिया। खैर, लोग जब अपना जीवन ही नहीं सुधरवाना चाहते, तो ये कर भी क्या सकते हैं?

बाहर विजयी प्रत्याशियों की जय-जयकार हो रही है। वे हार लटका कर मचल रहे हैं। ये हार चुके हैं। मुंह लटकाए बिस्तर पर करवटें बदल रहे हैं। कुछ रोज घर पर आराम फरमाएँगे। फिर जी नहीं बहलेगा, तो हरिद्वार की जगह पर अपनी आबोहवा बदलने के वास्ते किसी रमणीक पर्वतीय स्थल की तरफ प्रस्थान कर जाएँगे।

– सूर्यकुमार पांडेय

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