ट्वेंटी फोर आवर्स – नयी प्रतिभा कहानी

मैं बेटी के साथ घर पहुँचा तो देखा कि गेट पर निमंत्रण-पत्र पड़ा था। मेरी बेटी किसी भी तरह के समारोहों में जाने के लिए हमेशा तैयार रहती है। निमंत्रण-पत्र देखते ही वह उछल पड़ी, पापा कार्ड आया है। ट्वेंटी फोर आवर्स हेल्पलाइन का 26 जनवरी को उद्घाटन है। 11 बजे ब्रंच और 9 बजे हवन का कार्यक्रम है। चलोगे न पापा! पक्का चलना है। बेटी ने मुझे जल्दी से हॉं करने के आग्रह के साथ कहा।

पिछले दिनों पड़ोस में गृह-प्रवेश के लिए हमें दोपहर के खाने का मौखिक निमंत्रण मिला था, जिसे उसने एक तरह से रट लिया था। उसने बड़े उत्साह के साथ कहा था, पापा, कल तो आपके दोस्त का गृह-प्रवेश है। बड़े मजे आएँगे। मैं तो सिर्फ आइसक्रीम खाऊँगी। गृह-प्रवेश वाले दिन दोपहर लंच का समय दिया गया था। मैं कार्यालय की व्यस्तताओं के चलते पौने तीन बजे घर पहुँचा तो वह यह कहते हुए रोने लगी कि इतनी देर करके आए हो, अब क्या मिलेगा, आइसक्रीम तो कब की खत्म हो चुकी होगी। अंत में गृह-प्रवेश के समारोह में जाने पर ही शांत हुई।

खैर बात ट्वेंटी फोर आवर्स हेल्प लाइन के उद्घाटन की चल रही थी। मेरी बेटी दुविधा में थी कि मम्मी के साथ गणतंत्र-दिवस पर स्कूल के बच्चों का कार्यक्रम देखने जाया जाये या 11 बजे ट्वेंटी फोर आवर्स के उद्घाटन पर। आखिर में उसने पहले अपनी मम्मी के साथ गणतंत्र-दिवस पर जाने का निर्णय किया। दोपहर 2 बजे गणतंत्र-दिवस के कार्यक्रम के समापन के पश्र्चात दोनों मेरे कार्यालय पर आ गई। बेटी को ट्वेंटी फोर आवर्स हेल्पलाइन का कार्यक्रम याद था। पापा, अभी तो ब्रंच चल रहा होगा। जल्दी चलो। उसने उत्साह के साथ कहा। मैं पत्नी व बेटी को लेकर अपने घर की तरफ चल पड़ा। जैसे ही हम उस शॉपिंग काम्प्लेक्स के समीप पहुँचे, हमें ट्वेंटी फोर आवर्स हेल्पलाइन के उद्घाटन स्थल से डीजे की आवाज सुनाई दी। हट जा ताऊ पाछै नै जी भर के नाचण दे गाने की तीखी आवाज दूर तक सुनाई पड़ रही थी। मैं अपनी बेटी के साथ चाय-नाश्ता लेकर टैंट से निकला तो देखा कि टैंट के गेट पर सैकड़ों की संख्या में प्रवासी मजदूर और उनके बच्चे खड़े हमें भी अंदर जाने दो साहब। हम भी थोड़ा नाश्ता-पानी ले लेंगे, साहब। कह रहे थे। वे लोग आयोजकों के सामने गिड़गिड़ा रहे थे। पापा इस कंपनी वालों ने तो पूरे सेक्टर के घरों में निमंत्रण भेजे हैं, फिर इन मजदूरों को अंदर क्यों नहीं जाने दिया जा रहा? बेटी ने मुझसे सवाल किया।

बेटी, ये सब प्रवासी मजदूर हैं। दूसरे प्रदेशों से कोसों दूर चलकर यहॉं मजदूरी करने के लिए आये हैं। अपने यहॉं सेक्टरों में बने बड़े-बड़े आलीशान भवनों को बनाने में अपना श्रम बेचकर परिवार का पेट पालते हैं। ये सब अपने परिवारों के साथ झोपड़ी या अर्धनिर्मित कमरों में रहते हैं। अंगीठी, चूल्हा, ईधन, रसोई, खाना-पीना व सोना सब कुछ एक ही कमरे में करना पड़ता है। आँधी व बरसात में बच्चों सहित रात ठिठुरते हुए भी काटनी पड़ती है। सेक्टरों में बसे नवधनाढ्य परिवार इन प्रवासी मजदूरों को निकम्मे और गैर-जरूरी आबादी समझते हैं। भवन-निर्माण के कार्यों से मिलने वाली मजदूरी में से अपने परिवार को रोटी खिलाने के साथ-साथ ये गॉंव के दबंग सूदखोरों से लिए कर्ज का ब्याज भी चुकाते हैं। इन प्रवासी मजदूरों व इनके बच्चों के पास कोट, पैंट, टाई, बाइक, मोबाइल, गाड़ी और साफ-सुथरा, चिकना-चुपड़ा चेहरा नहीं है। इसलिए इन्हें अंदर नहीं जाने दिया जा रहा है।

प्रवासी मजदूरों व उनके बच्चों के मुँह में टैंट के अंदर छोले-भटूरे खाते लोगों को देखकर पानी आ रहा था। वे बार-बार टैंट के अंदर घुसने की कोशिश कर रहे थे। तीन-चार तंग जींस-जैकेट पहने मोबाइल पर गाने सुनते नौजवान उन्हें बाहर का रास्ता दिखा रहे थे। मैं अपनी बेटी को लेकर प्रवासी मजदूरों व उनके बच्चों को टैंट के अंदर प्रवेश न करा पाने की लाचारी के साथ घर लौट आया।

– नरेश कुमार

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