एक डॉक्टर से संवाद

इन दिनों शहर में एक बात की चर्चा आम है कि फलां, फलां और फलां डॉक्टर को लिंग निर्धारण करने एवं कन्या भ्रूण-नष्ट करने की प्रैक्टिस करने के कारण कोर्ट ने सज़ा सुनाई है। किसी महफिल में बातचीत के दौरान मेरे मुंह से भी जोश में निकल गया कि ऐसे डॉक्टरों को तो सज़ा होनी ही चाहिए। तब एक डॉक्टरनी का चेहरा तमतमा गया और उसने सवालों की झड़ी लगा दी। मेरी तो बोलती बंद हो गई। उसके सवालों में दम था। अपना पक्ष चाहे कितना ही मजबूत क्यों ना हो पर यदि अगले की बात में दम है तो मान लेना चाहिए। उसने मेरे कंधे पर हाथ रख कर पूछा, तुम मुझे यह बताओ कि सात लड़कियों की एक गरीब मॉं मेरे पास अपने आठवें गर्भ का टेस्ट करवाने आए तो क्या मैं उसे ना बताऊं कि उसके गर्भ में क्या पल रहा है? यह औरत जिसका हीमोग्लोबिन पॉंच है, घर में खाने को पर्याप्त राशन नहीं है और जिसका आदमी उसे बेटा न जनने के कारण रोज़ाना पीटता है, क्या उसका टेस्ट करना पाप है? चलो मान लिया कि उसके गर्भ में विकसित कन्या की सफाई करना तो पाप है, पर क्या यह पाप नहीं है कि बाद में वह अपनी बेटी को किसी बूढ़े के गले बांधने को विवश हो या किसी को बेच दे या देह-व्यवसाय करने को लाचार कर दे? फिर उस डॉक्टरनी ने एक-दूसरी मिसाल देते हुए सवाल ठोंका, एक क्लर्क या मामूली कर्मचारी है। जिसकी तीन बेटियां हैं, उसका टेस्ट नहीं करेंगे तो क्या वह चौथी, पांचवीं, छठीीर्ं संतान तब तक पैदा नहीं करता रहेगा जब तक कि उसके बेटा ना हो जाए? ये जो न्यायाधीश लिंग निर्धारण की सज़ा सुना रहे हैं या जो वकील ऐसे केसों की सुनवाई कर रहे हैं या जो टीम छापा मारने आई थी, इनमें से कितने ही ऐसे हैं जिन्होंने खुद भी अपनी सन्तानों का लिंग निर्धारण करवाया होगा और गर्भ की कन्या की हत्या करवाई होगी। फिर उसका आखिरी सवाल तो पूरे समाज से था। यह सवाल सचमुच ही चौंकाने और चकराने वाला था। वह बोली, तुम मुझे यह बताओ कि पीएनडीटी एक्ट के तहत कितने ही डॉक्टरों का तो रिमांड लिया जा चुका है, पर क्या आज तक अभिभावकों पर भी एक्शन हुए हैं? जबकि अभिभावकों की रजामंदी के बिना तो किसी के भ्रूण का वध संभव ही नहीं है। बात जंचने लायक थी। जंची भी। और यही लगा कि बेटियों के भ्रूण के वध में सबसे ज्यादा कसूरवार हम हैं। हम यानी कि अभिभावक हैं। डॉक्टरों का नम्बर दूसरा है।

 

एक बार की बात है कि सुरजे सेठ के छोरे के चक्कर में पॉंच छोरियां हो ली थीं। अब जब फिर से बालक हुआ तो सेठ ने कसूत्ती थाली बजा दी। फिर छठी का न्योता दे दिया। छठी वाले दिन सारा गांव सेठ के घर जिम्या अर बालक के हाथ में शगुन के रुपये देकर आया। नत्थू सबसे आखिर में पहुँचा। हलवाई भी कोंचे-कढ़ाई ले-ले जा लिये थे। नत्थू ने बधाई के सौ रुपये छोरे के हाथ में दिये अर जीमने बैठ गया पर उसे बचाखुचा खाकर कुछ स्वाद-सा नहीं आया। वह जल्दी ही उठ कर चल पड़ा, पर थोड़ी दूर जाकर उसके वे सौ रुपये रड़कने लगे अर वो फिर उल्टा सेठ के घर की तरफ हो लिया अर जाकर बोल्या, सेठ जी! तन्नैं ऐसे कर्म तो नहीं कर रखे कि रामजी तन्नैं छोरा देवै। सेठ बोला, नां चौधरी साब! छोरा ए होया है, अर देख लो उसका मुंह कती मेरे पे गया है। नत्थू बोल्या, ना सेठजी! बात जंचती नहीं, अर फेर एक बार छोरी होण लाग ज्यैं तो पूरी सात होया करैं। सेठ बोल्या, नां चौधरी साब! इबकै तो छोरा ए होया है। नत्थू बोल्या, ठीक है, ताई तैं भेजूंगा अर वा इस बालक का पोतड़ा सूंघके ए बता देगी कि के होया है? सेठ डरते हुए बोल्या, छोड़ो चौधरी साब, ऊं तो छोरा ए होया है, शक्ल भी मेरे तैं मिलै है, पर गर्दन के नीचे-नीचे अपनी मॉं पे चला गया है।

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