मुक्तक

अपना दाना सबकी ऩजरों से बचा ले जाएगा, उसको उसकी जीत का, पहला नशा ले जाएगा। पंख ़ज़ख्मी हैं परिन्दे के, म़गर तुम देखना, घोंसले तक उसको, उसका हौसला ले जाएगा।   कहते हैं हमसे संत कि, दौलत असार है, ये एकतरफ़ा आपका, कैसा विचार है। देते नहीं हैं आप तो उपदेश मुफ़्त में बतलाइये […]

मेरे ही ़ज़ख्मों से इक चिं़गारी सुलगाता रहा

वह जिसे ओढ़ता रहा सुनता रहा बिछाता रहा मुझे बस उसी ़ग़जल के शेरों में उलझाता रहा रूई के सुंदर सफ़ेद पर्वतों पर चढ़ाकर मुझको मेरे ख्वाबों को अंदर ही अंदर से जलाता रहा बुझी हुई चिंगारी में ढूँढ कर शोलों का वजूद मेरे ही ़ज़ख्मों से इक चिं़गारी सुगाता रहा मं़िजल की तलाश में […]

जिसे कभी देखा था

मटमैले रूप में, सड़क के किनारे जिसे कभी देखा था सर्द मौसम में जिसका तन आधा ढका था जिसका पेट पीठ से सटा था वह आया था इस शहर में काम की तलाश में उस पर अपने परिवार का बोझ था उसे कोई काम नहीं देता था। उन्हें शक था, कि वो एक चोर है। […]

जीवन में

जीवन में ऐसे अवसर भी आते हैं जब अपने को अकेला और असहाय पाते हैं तब सहायता के लिए चारों ओर देखते हैं लेकिन लोग हमें शंका भरी ऩजरों से देखते हैं इस तरह हताशा के गहरे अंधेरे में खो जाते हैं पर यह अंधेरे अधिक समय तक टिक नहीं पाते उस व़क्त हमें चारों […]

हिन्दुस्तानी

आज हर एक कहता अपने को सच्चा हिन्दुस्तानी क्या कभी इसने जाना है सच्चे हिन्दुस्तानी की क्या है कहानी एक था वो देश पर देता था अपनी जान की कुर्बानी लेकिन अब देश को कर बर्बाद ला रहे हैं उसकी आँखों में पानी   जब कोई देश के लिए शहीद होता तो कहते उसे बड़े […]

ग़जल

करना न ा़र्ंिजंदगी से मुर्दानगी की बात करना हो जब भी करना मर्दानगी की बात   दरिया के पास प्यास से कुछ लोग मर गये मौजें-रवां में होती रही तिश्र्न्नगी की बात   पत्थर-दिलों के सामने करना कभी न दोस्त! पलकों के बीच डबडबा रही नमी की बात   गुलशन में ़कह़कशां के कुछ फूल […]

दूसरी तकलीफ़ की तरफ़

एक तकला़फ से तुमको मैंने बचाया है। अब आओ, दूसरी तकलीफ़ की तरफ़ चलें। एक रात बीती है अब चल पड़ें एक-दूसरी रात की तरफ़। एक अध्याय छूट गया है जहां उसे रहने दें वहीं जलती लकड़ी और टूटे कलश की तरफ़ मुड़कर देखना उचित नहीं चलो, दूसरा एक अध्याय हमें बुला रहा है।   […]

अस्तित्व

मैंने कई बार कोशिश की है तुम से दूर जाने की, लेकिन मीलों चलने के बाद जब मुड़ कर देखता हूँ तो तुम्हें उतना ही करीब पाता हूँ।   तुम्हारे इर्द-गिर्द वृत्त की परिधि बन कर रह गया हूँ मैं।   –     अनूप भार्गव

अ़र्जी

शक की कोई वजह नहीं है मैं तो यों ही आपके शहर से गु़जरता उन्नीसवीं सदी के उपन्यास का कोई पात्र हूँ मेरी आँखें देखती हैं जिस तरह के दृश्य, बेा़र्ंिफा रहें वे इस यथार्थ में नामुमकिन हैं   मेरे शरीर से, ध्यान से सुनें तो आती है किसी भापगाड़ी के चलने की आवा़ज   […]

तीन कविताएँ – मीनल विठलाणी

(1) जान कर तुम क्यों अनजान बन गये मेरे दीवानेपन का सामान बन गये पागल होने की हद तक चाहा है तुम्हें जाने फिर भी क्यों तुम चॉंद बन गये   (2) अपनी ़िंजदगी का एक दिन तो मेरे नाम कर दो झूठमूठ ही सही कुछ तो बदनाम कर दो जीने के लिए इतना सहारा […]