छिपता – उगता सूरज

बलदेव ने दसवीं तो पास कर ली, परंतु उसमें अब आगे की पढ़ाई करने का सामर्थ्य नहीं था। नौकरी मिलने की संभावना भी नहीं थी। नौकरी के लिए काफी दौड़-धूप भी की, कई साक्षात्कार दिये, परंतु हर बार निराशा का ही मुंह देखना पड़ा। बलदेव को नौकरी मिलती भी तो कैसे? न तो उसका कोई अपना किसी सरकारी नौकरी में बड़े पद पर था और न ही उसके पास धन था। उसने नौकरी के लिए बहुतेरी उठापटक की, परंतु हाथ कुछ नहीं आया।

इन्हीं दिनों प्रदेश में सरकार के पॉंच वर्ष का कार्यकाल पूर्ण हो गया तथा नई सरकार बनाने के लिए चुनावों की घोषणा भी हो गयी। कई राजनीतिक पार्टियों ने प्रत्येक विधानसभा क्षेत्र के लिए अपने-अपने प्रतिनिधि चुनाव में उतार दिये तथा सभी अपने-अपने चुनाव प्रचार में जी-जान से जुट गये। सौभाग्य से बलदेव के चाचा मिलखीराम को भी नई पार्टी का टिकट मिल गया। सो वह भी अपने चाचा के चुनाव-प्रचार में जोर-शोर से जुट गया। उस समय उसके मन में एक उत्साह भरा आश्र्वासन जोर पकड़ता जा रहा था कि पिछली सरकार के समय बहुत दौड़-धूप उठ-पटाक करने के बाद भी नौकरी नहीं मिल पायी थी, अब तो मिल ही जाएगी। सभी नेता अपने-अपने प्रचार में बेरोजगारी को दूर करने के लिए बड़े-बड़े वादे कर रहे थे। सभी पार्टियां एक-दूसरे पर भ्रष्टाचार, महंगाई, तानाशाही आदि न जाने क्या-क्या आरोप लगा रहे थे और अपने आपको साफ-सुथरा, सच्चा देशभक्त एवं समाज हितैषी साबित करने के लिए पूरा जोर लगाने में जुटे हुए थे। देखते ही देखते केंद्र की सरकार हार गई और नई पार्टी की नई सरकार बन गयी। इसका प्रभाव प्रदेशों पर भी पड़ा। वहां भी हर जगह अचम्भित परिवर्तन हो गये। सौभाग्य से बलदेव के चाचा मिलखीराम भी अपने विधानसभा क्षेत्र के विधायक बन गये। अब तो बलदेव को पूरा विश्र्वास हो गया कि उसे नौकरी मिल ही जाएगी।

मिलखीराम विधायक बनने के बाद सब वादे भूल गया। जब भी बलदेव ने याद दिलायी, तो हर बार उसे एक ही उत्तर मिला, मैं सिफारिश नहीं कर सकता। क्षेत्र विकास के दूसरे कार्यों के लिए संघर्ष करता रहूंगा, परंतु नौकरी नहीं दिलवा सकता। क्योंकि हमारे मुख्यमंत्री अपने ठोस सिद्धांतों पर ऐसे अड़े हुए हैं, जैसे एक ऊँचा सीधा खड़ा पहाड़। जिस पर चढ़ना कठिन ही नहीं बल्कि नामुमकिन है।

इस आशा से निराश होकर अंत में बलदेव ने लोक-निर्माण विभाग के एक कनिष्ठ अभियंता से मिलकर दैनिक भोगी मेट की नौकरी प्राप्त कर ली। उसे मास्टर रोल मिल गया, परंतु उसके लिए भी उसने न जाने क्या-क्या किया। कनिष्ठ अभियंता दयालु था। वह जानता था कि एक मजदूर का जीवन क्या होता है। उसमें न जाने कितनी आहें होती हैं और कितना ही दर्द। लेकिन कार्य निरीक्षक अपने आपको अधीक्षण अभियंता ही समझता था। हर समय बलदेव पर रौब झाड़ता रहता। हालांकि बलदेव के सारे मजदूर मेहनती एवं ईमानदार थे, जबकि अन्य मेट हेरा-फेरी भी करते थे। वह उन्हें कुछ नहीं कहता, क्योंकि हर मास्टररोल में तीन-चार नाम जाली भरे रहते थे तथा उस पैसे को कार्य निरीक्षक के साथ मिलकर अन्य मेट बांट लिया करते थे, जिससे उनकी अच्छी ऊपरी कमाई हो जाया करती थी। ऐसा करने के लिए कार्य निरीक्षक एवं दूसरे मेटों ने बलदेव को कई बार उकसाया, परंतु उस पर कोई प्रभाव नहीं हुआ। वह जिस राह पर चल रहा था, उससे भटकना नहीं चाहता था। यह शायद उसके पैतृक संस्कारों का ही प्रभाव था। इसलिए वह कार्य निरीक्षक की झिड़कियों को चुपचाप सहता रहता था।

उन्हीं दिनों कनिष्ठ अभियंता का तबादला हो गया। कुछ समय के लिए उसका चार्ज दूसरे अभियंता को मिल गया। उसके पास एक महीना लगाने के बाद जब दूसरे महीने के लिए बलदेव ने उससे मास्टररोल मांगा तो उसने उत्तर दिया…

अभी तेरा मास्टर रोल नहीं आया है।

कार्यालय के कई चक्कर लगाने के बाद भी जब उसे मास्टर रोल नहीं मिला, तो वह हारकर घर में बैठ गया।

किसी प्रकार सहायक अभियंता को पता चला कि बलदेव क्षेत्र के विधायक मिलखीराम का भतीजा है, तो उसने एक मजदूर को उसे बुलाने भेज दिया। उसके बुलाने पर वह सहायक अभियंता के कार्यालय में जा पहुंचा। वहां उसे मजदूरों से पता चला कि कार्य निरीक्षक तथा कनिष्ठ अभियंता को साहब से उसे मास्टर रोल न देने के लिए काफी डांट पड़ी है। जब बलदेव साहब के कमरे में पहुंचा तो उन्होंने उसे कुर्सी पर बैठने के लिए कहा। वह कुर्सी पर बैठ गया तो साहब बोले, भाई, हमें तो पता ही नहीं था कि आप हमारे विधायक महोदय के भतीजे हो। यदि पता होता तो तुम्हें इतना कष्ट न उठाना पड़ता। यह रहा मास्टर रोल। उठाओ, और काम पर चले जाओ।

यह कहकर सहायक अभियंता ने मेज पर रखा मास्टररोल बलदेव की ओर सरका दिया। बलदेव ने उसे छुआ तक नहीं, केवल थोड़ा मुस्कुरा दिया। जब साहब ने उससे मुस्कुराने का कारण पूछा तो बलदेव ने उत्तर दिया, सर, आज मेरे चाचा जी विधायक हैं, इसलिए आप मुझे यह मास्टर रोल दे रहे हैं, लेकिन इस समाज में न जाने कितने ही लोग ऐसे हैं, जिनका कोई सहारा नहीं है। जब उन पर ऐसी बीतती है तो न जाने उनके दिल में कितना दर्द होता है, यह अनुमान मैं लगा चुका हूं। चढ़ते सूरज को तो सभी अर्घ्य देते हैं, नमस्कार करते हैं, परंतु जब वह छिपने लगता है तो उसकी ओर कोई नहीं देखता। सभी दुबक कर अंदर छुप जाते हैं। आज देश में बेकारी, निर्धनता एवं भ्रष्टाचार जैसे राक्षस क्यों फैल रहे हैं? शायद, इसका एक मजबूत एवं स्पष्ट कारण यह भी हो सकता है।

उसकी बात सुनकर सहायक अभियंता कुछ नहीं बोल पाया और बलदेव चुपचाप उठकर चला आया था।

– हरिकृष्ण मुरारी

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