लोकलाज के डर से दर्ज नहीं होते हैं महिला उत्पीड़न के मामले

Due to Fear of insult in Society did not compaint about rapeतुमने अब तक शिकायत क्यों नहीं की?

साहब हमें डर लगता था कि कोई मेरी बात नहीं मानेगा।

पड़ोसियों से कहती या किसी खास दोस्त/सहेली को क्यों नहीं बताया?

हरदम तो ताले में बन्द रखा जाता था साहब। कोई घर आता तो उससे बात तक करने की इजाजत नहीं थी…। यह अंश है उस बातचीत का जो महिला पुलिस ने साफिया से की थी। तब, जब वह अपने पिता के कुकर्म से तंग आकर गोमती नदी में कूदने जा रही थी। वहॉं एक अपरिचित व्यक्ति ने उसे रोका और पुलिस के हवाले कर दिया। घर के अन्दर घटने वाली घटनाओं ने उसके अन्दर इतनी घृणा और आतंक भर दिया था कि इससे बाहर निकलकर उसके लिए जीवन जीने की कल्पना की संभावना ही नहीं थी। इस घटना की रिपोर्ट बाद में पुलिस द्वारा लिखी गई जिसमें 72 वर्षीय पिता हाशिम सिद्दीकी के खिलाफ अपनी दो बेटियों गुड़िया और साफिया के साथ दुराचार का आरोप था। इस मामले में हाशिम सिद्दीकी को सज़ा भी हुई।

अभी हाल ही में ठाकुरगंज (लखनऊ) में रहने वाली उषा ने अपने पिता राजेन्द्र प्रसाद द्विवेदी पर यही आरोप लगाया। उषा का कहना था कि पिता ने उसे डेढ़ साल से बन्धक बनाकर रखा था और विरोध करने पर उसके साथ बुरी तरह मारपीट करता था। किसी तरह यह मामला पुलिस तक पहुँच पाया। मानुषी (एक सामाजिक संस्था) की प्रमुख मधु किश्वर ने एक सरकारी अधिकारी की बेटी की रिपोर्ट तो लिखाई ही, साथ ही साथ उस लड़की ने बताया कि उसके पिता को ही उस जांच की जिम्मेदारी सौंप दी गई थी, जो रिपोर्ट लड़की ने पिता के खिलाफ लिखाई थी। लड़की के पिता ने उसे मार-पीटकर उसके दस्तखत करा लिए कि रिपोर्ट झूठी है और यह उसने किसी के दबाव में लिखवाई थी। तत्कालीन गृह सचिव एस. के. अग्रवाल ने पीड़िता को सुरक्षा का आश्र्वासन भी दिया था।

सीतापुर जिले की एक 19 वर्षीया लड़की ने एक महिला संस्था को एक लिखित शिकायत के जरिये बताया कि उसके ससुर ने उसकी नाक काट दी और दुष्प्रचारित कर दिया कि वह बदचलन है, जबकि पीड़िता का आरोप है कि ससुर ने उसका शारीरिक शोषण करने का प्रयास किया और उसका विरोध किया तो नतीजे में उसकी नाक तो काटी ही गई, साथ ही बदचलनी का आरोप भी उसके सिर मढ़ दिया गया। लखनऊ के आलमबाग निवासी नीतू ने अपने चाचा के खिलाफ दुराचार की रिपोर्ट लिखवाई थी।

मुद्दा यह है कि ऐसी घटनाएं हमारे इर्द-गिर्द लगातार घट रही हैं, जिन्हें सुनकर यह सवाल उठता है कि क्या लड़कियां अपने ही घरों में सुरक्षित हैं? बात दरअसल यह है कि लोकलाज के कारण घरेलू यौन उत्पीड़न के मामले प्रायः दब जाते हैं। एक अधिकारी शालिनी माथुर का कहना है कि पुरुष ही परिवार के मुखिया होते हैं। महिलाओं की स्थिति दोयम दर्जे की होती है और उन्हें शुरू से ही दबकर रहना सिखाया जाता है और वैसे भी उनके पास शिकायत करने का कोई मंच नहीं होता है। लिहाजा शिकायतें दर्ज नहीं हो पाती हैं, जबकि घर के बाहर जिस तरह की उत्पीड़न की घटनाएं होती हैं, उनके मुकाबले घरों में लड़कियों की स्थिति ज्यादा खराब है।

कानपुर की महिला मंच की नीलम चतुर्वेदी ने व्यक्तिगत अनुभव के आधार पर बताया कि एक काउंसिलिंग के दौरान उन्हें तीस में से 28 लड़कियों ने बताया कि वे अपने घरों में या आस-पास ऐसी लड़कियों को जानती हैं, जिनके साथ उनके सगे-संबंधियों ने यौन उत्पीड़न का प्रयास किया। ज़ाहिर था कि वे लड़कियां किसी और के बहाने अपनी आप-बीती बयान कर रही थीं। बनारस की संस्था सार्क की प्रमुख रंजना गौड़ ने बताया कि उनकी संस्था द्वारा किये गये एक सर्वेक्षण के अनुसार सूबे में 65 फीसदी ऐसी लड़कियां हैं, जो अपने घरों में ही सुरक्षित नहीं हैं। वहीं पीवीसीएचआर के डॉ. लेनिन रघुवंशी का कहना है कि ऐसे मामले लोकलाज के डर से दर्ज नहीं हो पाते हैं। साथ ही लड़की घर में ही खुद को असुरक्षित महसूस करती है। दोनों को काउंसिलिंग की ज़रूरत होती है। साथ ही हमारे समाज में महिलाओं के प्रति संवेदनशीलता और जागरूकता ही इन मामलों को रोक सकती है।

खास बात यह है कि पुलिस तक यह खबरें आसानी से नहीं पहुँच पाती हैं। पहुँच भी जाएं तो मजिस्ट्रेट के सामने मेडिकल कराने और मजिस्ट्रेट के सामने बयान की जटिल प्रिाया के दौरान महिला पुलिस सहित, जो लड़की के साथ होते हैं वे उसे इस तरह देखते हैं कि जैसे वही अपराधी हो। दूसरे, महकमे के पास ऐसी घटनाओं का कोई अलग से ब्योरा नहीं होता है, जबकि सामाजिक कार्यकर्ताओं के अनुुसार इन मामलों को दबाने के बजाय जेण्डर सेन्सिटीविटी के प्रयास किये जाने चाहिये और महिलाओं को ऐसी शिक्षा दी जानी चाहिए कि वे अपने खिलाफ होने वाले अपराध को बयान कर सकें। तभी इस तरह के मामले रुक पायेंगे।

– डॉ. दुर्गा प्रसाद शुक्ल आजाद

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