तपेदिक के खिलाफ जंग हारते हम

Treatment for Tuberculosis इसे विडम्बना कहें या सरकारों की अक्षमता कि तपेदिक या टीबी एक ऐसी बीमारी है जिसके बारे में दावा किया जाता है कि यह पूरी तरह ठीक हो सकती है लेकिन यह रोग समूची दुनिया में हर साल 20 लाख लोगों की मौत का सबब बनता है। हमारे देश में सरकारी आंकड़ों के अनुसार हर साल करीब 18 लाख लोग इसकी चपेट में आते हैं और उनमें से तीस हज़ार से अधिक हर साल मौत के मुंह में चले जाते हैं। उत्तर प्रदेश में हर छह मिनट में एक व्यक्ति की मौत टीबी के कारण हो जाती है। यह सब उस स्थिति में होता है जबकि इस रोग की सबसे नयी दवा की खोज करीब तीस साल पहले कर ली गई थी। देश में टीबी के रोगियों की बढ़ती तादाद और इससे मरने वाले लोगों की तादाद में कमी न आने के पीछे सबसे बड़ी समस्या देश में रोगों के प्रति लोगों के शरीर में प्रतिरोधक क्षमता का अभाव होने तथा सरकारी अस्पतालों में लाख दावों और ढिंढोरा पीटे जाने के बावजूद समय पर उपचार का न मिल पाना है। एड्स, मलेरिया, चर्म रोग तथा अन्य रोगों के मुकाबले इतनी बड़ी तादाद में लोगों की मौत का यही सबसे बड़ा कारण है। विशेषज्ञों के अनुसार टीवी से होने वाली मौतों का आंकड़ा किसी भी अन्य संक्रामक रोग की तुलना में सबसे ज्यादा है।

इस रोग का सबसे ज्यादा प्रकोप निर्धन मजदूर तबके और कुपोषण से ग्रस्त व्यक्तियों में पाया जाता है क्योंकि अत्यधिक श्रम और पौष्टिक आहार नहीं मिलने से शरीर में ऊर्जा का संतुलन बिगड़ जाता है जिसकी वजह से शरीर में प्रतिरोधक क्षमता में आई कमी से इस बीमारी की चपेट में आने का खतरा बढ़ जाता है। असलियत में यह आज समूचे विश्र्व की समस्या बन चुकी है। ब्राजील, दक्षिण-पूर्व एशिया और अफ्रीका के देशों के अलावा और भी बहुतेरे देश इसकी चपेट में हैं। विश्र्व के अधिकांश अधिक आबादी वाले व निर्धन देशों में इस बीमारी का प्रकोप सबसे ज्यादा पाया जाता है। देश में इस रोग के प्रसार में जनसंख्या वृद्धि की अहम भूमिका है जिसकी चपेट में हर उम्र के लोग आ रहे हैं। इस रोग के कीटाणु शरीर में सांस के जरिये प्रवेश करते हैं और जिन रोगियों के बलगम में कीटाणु होते हैं, वही इस रोग को फैलाते हैं।

स्वर्ण पदक से सम्मानित डॉ. वेदान्तम् के अऩुसार आजकल एड्स के चलते टीवी का खतरा तेजी से बढ़ता जा रहा है। एड्स विषाणु से शरीर की प्रतिरोधक क्षमता बहुत ही कम हो जाती है। यही नहीं मधुमेह के रोगियों में भी टीबी की आशंका बढ़ जाती है। टीबी की दो किस्में हैं- एक पलमोनरी टीबी यानी फेफड़ों की और दूसरी शरीर के अन्य अंगों में पायी जाने वाली टीबी जैसे त्वचा, पेट के हिस्सों में, आँख, दिमाग व हड्डियों में पायी जाने वाली नॉन पलमोनरी टीबी। सबसे ज्यादा संक्रामक फेफड़ों वाली टीबी है। इसका रोगी जैसे ही खांसता है, छींकता है, वैसे ही वह टीबी के विषाणुओं को यथा माइक्रो बैक्टीरिम ट्यूबर क्लोसिया हवा में छोड़ता है। पास में बैठा व्यक्ति या गुजरता हुआ व्यक्ति जैसे ही सांस लेता है, ये विषाणु उसकी सांस के साथ उसके शरीर में प्रवेश कर जाते हैं जिसे ड्रॉप्लेट इन्फेक्शन कहा जाता है।

हमारे देश में “राष्ट्रीय तपेदिक रोकथाम कार्यक्रम’ के तहत इसकी रोकथाम की दिशा में सन् 1962 से काम जारी है। इसके बाद इसका पुनरीक्षित कार्यक्रम राष्ट्रीय स्तर पर चलाया गया जिसे बीमारी को नियंत्रित करने वाली मौतों को रोकने की दिशा में “डॉट्स’ को प्रभावी रणनीति की संज्ञा दी गई। इसे विश्र्व स्वास्थ्य संगठन ने भी मान्यता दी है। विडम्बना है कि फिर भी देश में टीबी के मरीज बढ़ते ही जा रहे हैं। अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान के डॉ. सरमन सिंह की मानें तो टीबी के विषाणुओं में प्रतिरोधक क्षमता उत्पन्न हो जाने के कारण टीबी के रोगियों में सैकेंड लाइन दवाएं भी काम नहीं कर रही हैं। डॉ. सिंह के अनुसार अब देश में टीबी के ऐसे रोगी सामने आ रहे हैं जिनका रोग अब लाइलाज साबित हो रहा है। अब तो टीवी के विषाणु पर कोई भी दवा असर नहीं कर रही। ऐसी टीबी एक्स्ट्रीम ड्रग रेजिस्टेंस टीबी (एक्सडीआर टीबी) कहलाती है। हाल ही में देश में मौक्सीप्लोक्सिन को सैकेंड लाइन दवा के रूप में प्रयोग में लाया जा रहा है जिसका दूसरी दवाओं के मुकाबले दुष्प्रभाव कम है। जॉन हॉपकिंस यूनिवर्सिटी के डॉ. रिचर्ड के शोध ने यह खुलासा किया है कि यह दवा टीबी के इलाज का समय कम करने में कारगर साबित हो रही है। गौरतलब यह है कि विश्र्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा शुरू की गई उपचार पद्धति “डॉट’ में छह माह का समय लगता है जबकि इस दवा से जहॉं उपचार की समय सीमा कम होगी, वहीं उपचार सरल किए जाने से पीड़ितों के लिए यह दवा लेना आसान हो जायेगा।

विश्र्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार स्थिति काफी गंभीर और, भयावह है क्योंकि हर साल साढ़े तीन लाख से ज्यादा व्यक्तियों को इसके कारण असामयिक मौत का सामना करना पड़ रहा है। इस हालत में केवल पॉंच लाख की आबादी पर एक टीबी यूनिट, एक लाख की आबादी पर बलगम परीक्षण के लिए माइक्रोस्कोपिक केन्द्र तथा औषधि उपचार कराये जाने की दृष्टि से पॉंच से दस हज़ार की आबादी पर एक डॉट्स केन्द्र खोलने से कुछ नहीं होने वाला, जब तक कि इन केन्द्रों पर डॉक्टर-स्वास्थ्य कर्मी, तकनीशियन बराबर रहें और रोगियों को दवायें आसानी से उपलब्ध हों। यह विडम्बना नहीं तो और क्या है कि हमारे देश में ही नहीं, समूची दुनिया में जिन बीमारियों से 90 फीसदी मौतें होती हैं उनके बारे में शोध पर कुल शोध धन का केवल 10 फीसदी ही खर्च होता है। इसके चलते रोगों के खात्मे की उम्मीद ही बेमानी है।

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