हमारे समय में बड़ी कक्षाओं में तथा बोर्ड परीक्षा की कक्षाओं में बच्चों को एक विषय दिया जाता था- “मेरी पाठशाला’ या “मेरा स्कूल’ पर निबंध लिखो। अब तो निबंधात्मक प्रश्र्न्न बंद ही कर दिए गए हैं। अतः स्कूल के बारे में चिंतन भी बंद हो गया है।
उन दिनों हम स्कूल पर जो कविता लिखते थे, वह सजीव होती थी। छोटी कक्षा में पढ़ते हुए मैंने लिखा था-
यह मेरा प्यारा स्कूल
बालक मन के अनुकूल
सुन्दर बना है स्कूल हमारा
पास लगी सुंदर फुलवारी
इसमें है बढ़िया मैदान
सदा बढ़ाती सबका ज्ञान
हम सब रहते बंधु समान
हमें न होता है अभिमान
अब तो स्कूल का सारा स्वरूप व माहौल ही बदल गया है। कहीं कोई फुलवारी नहीं है। खंभे आस-पास के लोग उखाड़ ले गए। उन्होंने या तो उन्हें जला डाला या उनसे अपनी गाय, भैंस, बकरी के खूंटे बना लिए। तार, चोर चुराकर ले गए। महंगे भाव लोहा बिकता है, बेचकर खा गए। हरी-भरी घास अब्बू खां की बकरी या मामू की गाय या सीताराम पहलवान की भैंस खा गई। स्कूल के चारों तरफ कचरा ही कचरा फैला रहता है। कक्षाओं में गंडेरी और मूंगफली के छिलके छाये रहते हैं। कागज के टुकड़े तो मानो जान-बूझ कर बिछाए गए हों। कभी स्कूल में मूंगफली के छिलके फैलाने पर सजा मिलती थी और अपने द्वारा छिलके न फेंके जाने पर छात्र उसका विरोध करते थे। आज के बालकों-किशोरों का कैसा विरोध?
सभी कहेंगे, ये छिलके हमने नहीं फैलाए। हम मूंगफली खाते ही नहीं। हम जानते तक नहीं किसे कहते हैं मूंगफली?
आज दीवारें और शाला के कोने पान की पीकों, गुटखों की “पिचक’ से भरे पड़े हैं। हर कदम पर पाउच की थैली मिल जाएगी। एक ह़जार तरह के पाउच आज उपलब्ध होंगे।
लकड़ी का सुन्दर-सुखद फर्नीचर गायब है तो उसका स्थान लोहे के बने फर्नीचरों ने ले लिया है। यह बहुत मजबूत होता है, लेकिन विद्यार्थी इसे भी तोड़ डालते हैं। इन्हें हटाते समय बहुत शोरगुल होता है। शोरगुल वैसे भी शिक्षण संस्थाओं में समस्या होती है। अब यह विकट समस्या बन गई है। विद्यार्थी फर्नीचर औंधा-सीधा पटक जाते हैं, इससे चोट लगने पर ए.टी.एस. के इंजेक्शन वगैरह लगाना ़जरूरी हो जाता है। यह एक नई समस्या है। खिड़कियों के सींखचे तोड़कर विद्यार्थी उसमें से वैसे ही भाग जाते हैं, जैसे फिल्मों में उनके “हीरो’ जेल से भाग जाते हैं।
परीक्षाएं अब भी होती हैं, पर अब कहीं कोई उत्साह नहीं होता। न छात्रों में, न शिक्षकों में। शिक्षक कहते हैं कि हमारी परीक्षाएं तो बारहों माह चलती रहती हैं। शाला-कार्य के अलावा शासन हमसे एक सौ तरह के काम लेता है। वह हमारा “परीक्षण’ कराता ही रहता है।
कहते हैं, किसी समय कलेक्टर के सौ दायित्व होते थे। आज शिक्षक के ही 101 दायित्व हैं। वह आज शिक्षक नहीं, “कोल्हू का बैल’ बन गया है। वह कारकून यानी बाबू बनकर रह गया है।
इसमें सबसे खराब हालत है ग्रामीण क्षेत्र के शिक्षकों की। उन्हें एक तो गांवों में रहने की जगह नहीं मिलती। अतः वे नित्य आना-जाना करते हैं, जिससे बहुत अधिक श्रम शक्ति खराब होती है। दूसरे, उन्हें शिक्षा के अतिरिक्त और भी पचासों काम करने होते हैं जो उनके काम का स्वरूप ही बदल देते हैं। शिक्षक अब “पीर, बावर्ची, भिस्ती, खर’ यानी एक नई योनि का प्राणी बनकर रह गया है। उसे आज “बेचारा शिक्षक’ कहा जाता है। सारांश में इधर गुरुजी पकाने लगे दलिया और दाल उधर शिक्षा बेहाल।
शिक्षक के मानदण्ड ही बदल गए हैं। कहते हैं, प्यासा कुएं के पास जाता है। आज कुंआ प्यासे के पास जा रहा है।
शिक्षक का पवित्र काम जबसे बना व्यवसाय
बिगड़ गया सांचा, रह गया- “ढांचा’
चाहिए कुक, वेतन एक हजार
रसोइए का वेतन आठ सौ
मास्टर का वेतन पॉंच सौ
शिक्षक होना जो कभी बात थी गर्व की
आज क्यों बनी शर्म की?
एक महत्वपूर्ण बात इस तारतम्य में और-
हमारे देश में शिक्षक कभी “बेचारा’ रहा नहीं
समाज कोई नाम बिना सोचे-समझे धरता नहीं
“शिक्षक बेचारा’ ही नहीं
“बे-सहारा’ भी है
अब “हमें उसे बेचारा’, “बेसहारा’ शिक्षक कहना होगा
उसे नौकर, समाज का मानना होगा
जब बढ़ जावेंगे काम के आयाम
तो हर काम अधूरा होगा
शिक्षक को शिक्षक रहने दो
उसे “पीर बावर्ची, भिश्ती, खर’ बनने से बचाओ
उधर नेता चुनते ही सब कर्मों की करता छुट्टी
इधर मास्टर जाति की हर बात में लगती ड्यूटी
सारे आदर्श उस पर थोपे जाते
वह यथार्थों के बीच दबाया जाता मारा जाता
समाज बच्चों को हलो, “हाय’ सिखा रहा है।
यानी इधर शिक्षा कुछ है
उधर समाज से मिले रही दीक्षा कुछ और है
दोनों के बीच सामंजस्य हो कैसे
जिससे कि जीवन चले अच्छे से, बहुत अच्छे से।
– ललितनारायण उपाध्याय
You must be logged in to post a comment Login