यह अमृत-वाणी हमारे प्राचीन ऋषियों और संतों की है। इस विचार-सूत्र के पीछे क्या मर्म छुपा है, आइए थोड़ा समझने का प्रयास करें। इसकी व्याख्या कई ढंग से की जा सकती है। व्यक्ति-व्यक्ति से मिलकर समाज, देश और विश्व का निर्माण होता है। यदि व्यक्ति बुरा है तो समाज, संगठन और विश्व निश्चय ही बुरा होगा। अतः संसार को बदलना है तो पहले हमें अपने आपको बदलना होगा। किन्तु देखा जाता है कि अपने अनुकूल बनाने या उसे बदलने की चाह में एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति की, एक संगठन दूसरे संगठन की, एक राष्ट्र दूसरे राष्ट्र की, एक जाति दूसरी जाति की, एक धर्म दूसरे धर्म की और एक राजनीतिक पार्टी दूसरी पार्टी की निन्दा करती रहती है। कोई अपना आत्म-चिंतन नहीं करना चाहता। प्रश्न्न यह है कि इसका केन्द्र बिन्दु, इसका नायक और इसका कर्ता-धर्ता कौन है? व्यक्ति स्वयं है। व्यष्टि की बुराइयां ही समष्टि का रूप धारण करती हैं। व्यक्ति के विचार और कर्म से न केवल वह व्यक्ति और उसका परिवार प्रभावित होता है, बल्कि उसकी सूक्ष्म तरंगों से पूरा देश और विदेश सांमित तथा प्रदूषित होता है। अतः यदि व्यक्ति सुधर जाए तो समाज सुधर सकता है। सारा विश्व सुधर सकता है, किन्तु दुर्भाग्य यह है कि हर व्यक्ति अपने को नहीं दूसरों को सुधारने में लगा है। इसलिए समाज गंदा है, संसार कुरूप है और सर्वत्र अव्यवस्था है। सच तो यह है कि समाज और संसार हमारा ही प्रक्षेपण है। जैसे हम हैं, वैसा समाज है और वैसा ही विश्व है।
कोई क्षण भर रुककर अपने अन्तर्मन में झांकना नहीं चाहता कि आखिर मुझमें क्या दोष है? हर व्यक्ति दूसरों की निंदा करने, दूसरों का दोष ढूंढने और दूसरों को अपनी पसंद के अनुसार बदलने का प्रयास कर रहा है। हमारी सारी शक्ति और समय यहां तक कि धन भी दूसरों को बदलने में खर्च हो रहा है और इस बर्बादी के बाद भी कुछ हासिल होता दिखाई नहीं देता। जो हमारे सबसे अधिक निकट है, जो हमारे अपने वश में हैं, यानी ‘हम स्वयं’ इसे बदलने की ओर प्रायः ध्यान नहीं देते, किन्तु दूसरा जो हमसे कुछ दूर है या बहुत दूर है, उसे बदलने का जी तोड़ प्रयास करते हैं, जबकि दूसरों को बदलने की अपेक्षा अपने को बदलना कहीं अधिक आसान है। हम सब आसान काम नहीं कठिन कार्य को चुनते हैं। संसार में जो भी असत्य, अज्ञान, दुःख, पीड़ा, भ्रष्टाचार, अन्याय और शोषण है। उसका बहुत बड़ा कारण यही है कि हम सब स्वयं को न बदल कर, दूसरों को बदलने की शिक्षा दे रहे हैं। जरा सोचिए, जब हम अपने स्वभाव, अपने आचरण और कर्म को नहीं बदल सकते तो फिर दूसरों को कैसे बदलेंगे?
यदि हम अपना सम्मान चाहते हैं तो हमें दूसरों का सम्मान करना चाहिए। यदि हम दूसरों से प्रेम चाहते हैं तो हमें भी दूसरों को प्रेम देना चाहिए। दूसरों से सहायता की आशा करते हैं तो हमें भी दूसरों की सहायता करनी सीखनी चाहिए। परिवार में सुख-शांति और समृद्धि आ सकती है, किन्तु विडम्बना यही है कि कट्टरता और अहं के वशीभूत कोई रत्ती भर भी अपने को बदलना नहीं चाहता। हर सदस्य दूसरों को बदलने की अपेक्षा करता है या वह दूसरों को बदलने में लगा रहता है।
हम झूठ बोल कर दूसरों को ठगते हैं, धोखा देते हैं, किन्तु जब दूसरा भी झूठ बोलकर हमें ठगता है तो हम ाोधित हो जाते हैं और उसे भला-बुरा कहते हैं। स्वयं को बदलना नहीं चाहते, बल्कि दूसरों को बदलना चाहते हैं। संसार हमारा ही प्रतिबिम्ब है। जैसे हम हैं, वैसा संसार है।
कोरा भाषण देकर हम दूसरों को या समाज को नहीं बदल सकते। दूसरों को बदलने के लिए सबसे पहले हमें स्वयं को बदलना होगा। स्वयं अपने आचरण में सुधार करना होगा। दूसरों में बुराई देखने के पहले हमें अपने भीतर बुराइयों को देखना चाहिए और उन्हें हटाने का प्रयास करना चाहिए। जिन दोषों के हम स्वयं शिकार हैं, उन दोषों के लिए दूसरों की आलोचना कैसे कर सकते हैं? उस बुराई को दूर करने के लिए हम भला दूसरों को उपदेश कैसे दे सकते हैं? क्या इसका असर दूसरों पर होगा? अतः पहले हम अपने को नैतिक और चरित्रवान बनायें, फिर दूसरों को बनाने की कोशिश करें। पहले हम अपना स्वास्थ्य सुंदर बनायें फिर दूसरों को स्वस्थ रहने की शिक्षा दें।
पहले हम स्वयं सत्य और धर्म के रास्ते पर चलें फिर दूसरों को इस पथ पर चलायें।
हमें आदर्श बनना चाहिए। शुरूआत दूसरों से नहीं, बल्कि अपने आपसे कीजिए। दूसरों के लिए स्वयं उदाहरण बनिए। दूसरों को बदलने का सबसे सच्चा और अच्छा तरीका है, स्वयं अपने आपको बदलना।
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