अग्रिम जमानत : गिरफ्तारी पर रिहाई-ता़जा परिप्रेक्ष्य

अग्रिम जमानत का दंड प्रिाया संहिता की धारा 438 में तो उल्लेख नहीं किया गया है लेकिन लॉ कमीशन ने अपनी 41वीं रिपोर्ट में इसका उल्लेख किया है। गिरफ्तारी का पूर्वाभास होने पर जो जमानत प्रदत्त की जाती है उसे अग्रिम जमानत कहा जाता है। यह कथन आज भी प्रासंगिक है कि बर्बर समाज में आप जमानत की मांग नहीं कर सकते तथा सभ्य समाज में इसे मना भी नहीं कर सकते। व्यक्ति स्वातंत्र्य हमारे संविधान का महत्वपूर्ण आधार स्तम्भ है व संविधान के अनुच्छेद-22 में व्यक्तिगत स्वतंत्रता विषयक तत्वों को उपबंधित किया गया है। 1973 की दंड प्रिाया संहिता के लागू होने के पूर्व भारतीय कानूनों में अग्रिम जमानत का कोई प्रावधान नहीं था, हालांकि 1935 में लाहौर उच्च न्यायालय के न्यायाधीश सर डगलस यंग ने एक कुख्यात अभियुक्त नजीर अहमद को अग्रिम जमानत पर छोड़ा था। सर डगलस यंग ने कदाचित ऐसा क्रिमिनल प्रोसीजर कोड के अन्तर्निहित शक्तियों का उपयोग करते हुए किया था। संविधान द्वारा प्रदत्त मौलिक अधिकारों में “स्वतंत्रता का अधिकार’ वर्तमान अराजकता और अनावश्यक राजनैतिक दखलंदाजी के वातावरण में निश्र्चय ही और अधिक प्रासंगिक हो जाता है।

दंड प्रिाया संहिता 1973 में पहली बार धारा 438 के तहत अग्रिम जमानत का प्रावधान लाया गया जो 1 अप्रैल, “74 से प्रभावी हुआ। विधि आयोग ने अपनी 41वीं रिपोर्ट में इस प्रावधान के बारे में अपना अभिमत प्रकट करते हुए कहा कि अग्रिम जमानत स्वीकार करने की आवश्यकता उस समय होती है जबकि कुछ प्रभावशाली व्यक्ति अपने प्रतिद्वंद्वियों को झूठे मुकदमों में फंसाने की कोशिश करते हैं ताकि उन्हें कुछ दिन जेल में बंद करवाकर उनकी छवि को धूमिल किया जा सके एवं उन्हें अपमानित किया जा सके। झूठे मुकदमों से बचने के अतिरिक्त जब इस बात के युक्ति-युक्त कारण हों कि एक अभियोगी के भाग जाने अथवा जमानत पर रहते हुए उसका दुरुपयोग करने की कोई आशंका नहीं है तो इस बात का कोई औचित्य नहीं है कि उसे पहले जेल भेजा जाए तथा वह वहॉं कुछ दिन रहकर जमानत के लिए आवेदन प्रस्तुत करे। सामान्य जमानत व अग्रिम जमानत के आदेश में फर्क है कि सामान्य जमानत तो बन्दी बनाए जाने के बाद अनुदत्त की जाती है जबकि अग्रिम जमानत गिरफ्तार किये जाने की आशंका या पूर्वानुमान पर अनुदत्त की जाती है।

हालांकि विधिक प्रावधानों में अग्रिम जमानत मंजूर करते समय जमानत प्राप्त करने वाले पर कई शर्तें लगाई जा सकती हैं, लेकिन उस प्रार्थना-पत्र का निस्तारण किस प्रकार से होगा, इसके लिए कोई दिशा-निर्देश नहीं है। विधायिका द्वारा यह शक्ति न्यायपालिका को इस आशय से सौंपी गई है कि न्यायालय इस शक्ति का प्रयोग अपने अनुभव, योग्यता, ज्ञान व स्वविवेक से उनके सम्मुख प्रस्तुत विवाद के तथ्यों व गुणावगुण के आधार पर करेंगे।

अग्रिम जमानत के प्रावधानों को दंड प्रिाया संहिता में शामिल किये जाने के बाद से ही न्यायालयों द्वारा इसकी कानूनी समीक्षा की जाती रही है। सर्वोच्च न्यायालय ने गुरुबचन सिंह बनाम स्टेट ऑफ पंजाब एआईआर 1980 एससी 1632 में अग्रिम जमानत के प्रावधानों की समीक्षा करते हुए कुछ विशद सिद्घांतों का प्रतिपादन किया एवं अधिकारों के उपयोग करने से संबंधी दिशा-निर्देशात्मक बिन्दु तय किये हैं। ऐसा करते समय एआईआर 1958 पंजाब व हरियाणा पृष्ठ 1 में दी गई अधिकांश व्याख्याओं से असहमति व्यक्त की है। सर्वोच्च न्यायालय के महत्वूपर्ण निर्णय के मुख्य अंश इस प्रकार हैं : सामान्य व अग्रिम जमानत के फर्क को बताते हुए न्यायालय ने यह अभिमत प्रकट किया है कि अग्रिम जमानत अनुदत्त करने वाले न्यायालय को ऐसी जमानत के आदेश के साथ कुछ शर्तें भी आरोपित करने का अधिकार होगा तथा ऐसे न्यायालय को धारा 437 में उल्लिखित कारणों के विद्यमान होने पर अग्रिम जमानत के आदेश को अस्वीकार करने का अधिकार होगा।

अग्रिम जमानत प्राप्त करने के लिए आवेदक द्वारा न्यायालय को यह संतुष्टि करानी होगी कि उसके पास युक्ति-संगत कारण हैं, जिसके आधार पर उसे विश्र्वास है कि उसे अजमानतीय मामले में गिरफ्तार किया जा सकता है, केवल आशंका विश्र्वास का स्थान नहीं ले सकती। आधार इस प्रकार के होने चाहिए कि न्यायालय उनका लेखा-जोखा निर्लिप्त भाव से कर सके। माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने यह भी करार दिया कि धारा 438 के उपयोग के लिए यह आवश्यक नहीं है कि प्रथम सूचना दाखिल हो जावे। धारा 438 के अधिकारों का उपयोग आवेदक को बन्दी बनाए जाने के बाद नहीं किया जा सकता है।

साधारणतया अग्रिम जमानत के आदेश को समयबद्घ नहीं किया जा सकता, किन्तु न्यायालय यह मुनासिब समझे तो ऐसे अग्रिम जमानत के आदेश को प्रथम सूचना दाखिल होने तक सीमित कर सकती है। जब प्रथम सूचना दाखिल कर दी गई हो तो न्यायालय आवेदक को निर्देश दे सकता है कि वह धारा 437 या 439 के अंतर्गत जमानत का आदेश प्राप्त करे। आमतौर पर अग्रिम जमानत के प्रावधानों की व्याख्या में सर्वोच्च न्यायालय ने उदार दृष्टिकोण अपनाया है, किन्तु क्या उफनती हुई अराजकता लूट-खसोट व दंगे-फसाद की देशव्यापी मौजूदा हालात में अग्रिम जमानत के प्रावधान व्यापक सामाजिक परिप्रेक्ष्य में सार्थक व सकारात्मक रहेंगे, इसका आकलन तो केवल भविष्य ही कर सकेगा। उच्चतम न्यायालय में निर्देशात्मक सिद्घांत के तय किये जाने के उपरांत भी यह नहीं समझा जाना चाहिए कि इस कानून में कोई निश्र्चितता आ गई है। अब भी प्रदेश में भिन्न-भिन्न उच्च न्यायालय अग्रिम जमानत के कानूनी प्रावधानों की व्याख्या अपने-अपने तरीकों से कर रहे हैं। राजस्थान उच्च न्यायालय ने अशोक कुमार शर्मा व अन्य बनाम राजस्थान राज्य (1981) में कहा कि यदि विवाहित शिक्षित लड़की को आत्मदाह के लिए विवश किया जाता है तो ऐसे प्रकरण में सास-ससुर व पति की अग्रिम जमानत अनुदत्त नहीं की जानी चाहिए।

हमारे देश में कानून प्रतिदिन नजीरों में बदलता है। आज देश की बिगड़ती हुई स्थिति में वर्ग-संघर्ष, साम्प्रदायिक तनाव आदि मामलों में अग्रिम जमानत के प्रावधानों का अऩुचित लाभ उठाया जा रहा है। समाज की संवेदनशीलता को प्रभावित करने वाले अपराधों के संबंध में इन प्रावधानों के उपयोग में व्यापक सतर्कता बरती जानी चाहिए। हालांकि माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने अग्रिम जमानत के संबंध में बहुत ही उदार दृष्टिकोण व्यक्त किया है, किन्तु न्याय के सामाजिक दायित्वबोध को ध्यान में रखते हुए आवश्यक है कि अग्रिम जमानत की सुविधा का लाभ दिए जाने से पूर्व प्रकरण के दूरगामी प्रभावों को भी दृष्टिगत रखा जावे। कुछेक विधि शास्त्रियों का मत है कि अग्रिम जमानत के प्रावधान तफ्तीश में रुकावट डालते हैं जबकि कुछ अन्यों की राय है कि यह प्रावधान कार्यपालिका व पुलिस की मनमानी पर कवच का काम करते हैं किन्तु इसके वास्ते आवश्यक है कि हम इनकी प्रिाया इतनी सहज व सरल बनावें कि आम नागरिक इनका प्रयोग कर सकें। पंजाब व हरियाणा उच्च न्यायालय द्वारा हाल ही में विनिर्णय एआईआर 1988 (पीएंडएच) 95 में विनिर्णित किया गया है कि आतंकवादी तोड़फोड़ की गतिविधियों के विवादों में अग्रिम जमानत नामंजूर करना संविधान के अनुच्छेद 14 का उल्लंघन नहीं है, क्योंकि आतंकवादी गतिविधियों का दंड संहिता में वर्णित आरोप तथा अन्य कानूनों में वर्णित अपराधों में भिन्नता है।

सर्वोच्च न्यायालय ने सोम मित्तल बनाम स्टेट ऑफ कर्नाटक एआईसी 2008 (65)-187 (एससी) में एक नया सिद्घांत प्रतिपादित किया है जो जमानतों के मामले में एक उदार दृष्टिकोण को परिलक्षित करता है तथा वह सिद्घांत अग्रिम जमानत के प्रावधानों की व्याख्या में प्रासंगिक है। इस सोम मित्तल के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय के पूर्ण पीठ के निर्णय, जो श्रीमती अमरावती अन्य बनाम स्टेट ऑफ यूपी का हवाला देते हुए निर्देशित किया है कि सेशन्स न्यायालय को धारा 439 दंड प्रिाया संहिता के तहत जमानत के आवेदन पर विचार करते वक्त तथा इस पर अंतिम आदेश होने तक अभियुक्त को अंतरिम जमानत पर छोड़ देना चाहिए। यह इस वास्ते भी आवश्यक समझा गया कि उत्तर प्रदेश में अग्रिम जमानत के प्रावधान प्रभावी नहीं हैं। यद्यपि यह सिद्घांत यूपी के न्यायालयों के लिए निर्देशात्मक है किन्तु अन्यत्र भी सेशन्स कोर्ट से नियमित जमानत की धारा 439 के अंतर्गत आवेदन पर पूरा विचार करने की अवधि के मध्य अंतरिम जमानत लेने में कोई कानूनी अवरोध नहीं है। इसी सोम मित्तल के मामले में उच्चतम न्यायालय ने एक महत्वपूर्ण बात कही है। सर्वोच्च न्यायालय ने जोगेंद्र कुमार बनाम स्टेट ऑफ यूपी का हवाला देते हुए कहा है कि यद्यपि पुलिस को संज्ञेय अपराध के मामलों में बिना वारंट के अभियुक्त को गिरफ्तार करने की शक्ति प्राप्त है किन्तु इसका अभिप्राय यह कतई नहीं है कि गिरफ्तारी की ही जावे बल्कि पुलिस को गिरफ्तारी करने के पूर्व गिरफ्तारी करने के औचित्य पर विचार करना चाहिए।

– शांतिमल जैन

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