आओ कमेटी बनाएँ

आपको खुशी है या नहीं, यह तो मैं नहीं जानता, लेकिन मुझे इस बात की अपार खुशी है कि मुझे एक समिति का सदस्य बनाया गया है। लोग अपने व्यक्तित्व निर्माण के लिए समिति का सदस्य बनने के लिए बड़ी-बड़ी तिकड़में लड़ाते हैं। मैं बिना तिकड़म के ही कमेटी में आ गया हूँ। हमारे यहॉं कमेटी-निर्माण की परम्परा वैसे तो प्राचीनकाल से है, लेकिन वर्तमानकाल में कमेटी बनाना, आयोग गठित करना आम घटनाएँ हैं। कमेटियों के गठन के पीछे पहले अनुभव का लाभ लेना मुख्य था, लेकिन वर्तमान में कमेटियां मामले को टालने अथवा जिम्मेदारियों से बचने का माध्यम बन गयी हैं। लोकतंत्र में इससे बढ़िया अपने को बचाने का लोकतांत्रिक ढंग दूसरा नहीं है, इस दृष्टि से जिस कमेटी का मैं सदस्य बना हूँ, वह भी गालियां सुनाने के अलावा अन्य कुछ नहीं दे पाएगी। पर भाई कुछ भी हो, आखिर कमेटी में लिया तो गया। हर ऐरे-गैरे-नत्थू-खैरे को तो नहीं लिया जाता या आपको तो नहीं लिया गया।

कमेटियों की कार्यशैली पर प्रकाश डालना भी समीचीन होगा। पहली बात तो कमेटी की बैठक नहीं होती और हो जाती है तो निर्णय नहीं होता। इस प्रकार एक अनंत सिलसिला निषियता का जारी रहता है तथा सदस्य जलपान तथा आवागमन भत्ता लेने के अलावा कुछ भी नहीं कर पाते। कई बार तो कमेटी पर कमेटी और कमेटी, बस कमेटी ही कमेटी, इतने कमेटी कि पता ही नहीं चलता कि किस कमेटी को किस बात पर निर्णय करना है? पहली मूल कमेटी को खोजना मुश्किल हो जाता है। कमेटियों के कार्य-सूची और विवरण नहीं मिलते तथा इस प्रकार एक अनावश्यक अराजकता का माहौल बना रहता है।

भारत में एक परम्परा निरंतर फल-फूल रही है तथा लोगों का कमेटियों में प्रवेश का ोज बना हुआ है। आदमी जितनी कमेटियों का सदस्य होता है, उतना ही बड़ा और महत्वपूर्ण माना जाता है। यह नहीं देखा जाता कि उसने निर्णय क्या किये हैं, किये भी हैं या नहीं अथवा “टालू मिक्चर’ पिलाता रहा है, लेकिन कौन ध्यान देता है, चलता रहता है।

मुझे जिस कमेटी में लिया गया है, वह कमेटी कोई ज्यादा उल्लेखनीय तो नहीं है, लेकिन भाई है तो कमेटी! क्या बड़ी और क्या छोटी। हमें भी एक अदद कमेटी चाहिए थी, सो मिल गयी है। वैसे आपसे क्या छिपाना! हमें मुहल्ले की विकास समिति ने सफाई समिति में शामिल किया है। “मुहल्ले की सफाई’ एक संगोष्ठी का विषय है, जिस पर कि समिति का गठन करके काम चलाया जा सकता है। मुहल्ले की सफाई की चुनौती को स्वीकार करने का मतलब अपना पारिवारिक जीवन विषाक्त बनाना।

इधर, आपने सफाई कराई कि मिसेज धारकर आएंगी और फलों के छिल्के गलियारे में फैला जाएंगी, फिर खाने के लिए महाभोज होगा – कुत्ता, सूअर, गाय और सांडों का। आपसी खींचतान, लड़ाई-झगड़ा समाप्त होने से पहले ही माथुर साहब अपना एंटिक काठ-कबाड़ा डाल जायेंगे। काठ-कबाड़ा न तो जानवर खाते हैं और न ही नगर परिषद के सफाई कर्मचारी। इस प्रकार विकास समिति द्वारा गठित सफाई समिति मुंह बाये देखती रहती है, कर कुछ नहीं पाती। इस प्रकार हम लोग जो समिति की बैठक करना चाहते हैं, उसके लिए कोई ठोस कारण नजर नहीं आता है। मिसेज धारकर एवं मि. माथुर दोनों ही प्रभावशाली आदमी हैं और प्रभावशाली आदमियों के खिलाफ किसी भी प्रकार का निर्णय लेने की स्थिति में नहीं होती हैं कमेटियां।

इस हालत में झुंझलाकर मैंने एक दिन संयोजक से कहा, “”आप इस समिति के सदस्यों को उनके हाथों में एक-एक झाड़ू क्यों नहीं थमा देते, ताकि इधर वे डालें और हम लोग उठाकर उसे कचरापात्र में डाल दें, क्योंकि न तो किसी में नागरिक दायित्व बोध है और न नगर परिषद को फुर्सत, इसलिए “सफाई समिति’ के सदस्य ही यह सफाई करें।”

संयोजक शांतभाव से मंद मुस्कान के साथ समझाते हुए बोले, “”यह क्या कह रहे हैं शर्मा जी? यह तो हाई पावर कमेटी है। केवल सलाह देने तथा मार्ग बताने के लिए गठित की गयी है। इसलिए मेरी मंशा कमेटी को झाडू सौंपने की कतई नहीं है।”

मैं बोला, “”जब यह हाई पावर कमेटी है तो क्यों नहीं हम मि. माथुर तथा मिसेज धारकर को कहें कि वे अपनी घिनौनी हरकतें बंद करें।”

“”समझा करो शर्मा जी। माथुर साहब हमारी विकास समिति के चेयरमैन हैं, उन्हें कुछ भी कहना सारा काता-कपास करना है। इसलिए गुड़-गोबर से बचने के लिए ही हमें समिति को जिंदा भर रखना है। जब भी बैठक करते हैं तो थोड़ा गपशप हो जाती है। चाय, बिस्कुट हो जाते हैं, छुट्टी के दिन के तीन घंटे पता ही नहीं, कैसे निकल जाते हैं।” संयोजक ने कहा। “”लेकिन इस तरह तो काम नहीं हो पायेगा तथा जिन लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए इसका गठन किया गया है, उनका क्या होगा?” मैंने पूछा।

संयोजक जी बोले, “”देखो, ज्यादा सोचना ठीक नहीं है। लक्ष्य न तो सरकार प्राप्त कर सकी और न ही हम। न कोई इनका प्राप्त करना जरूरी है। हमारे लिए तो बस कमेटी में बना रहना जरूरी है, वरना मैं कमेटी में मेम्बर बदलने की सिफारिश करूंगा।”

मेम्बर बदलने की बात पर मेरी बोलती बंद हो गयी। कल निकाल दिया गया तो घर का रहा न घाट का। लोग नाराज होंगे और कहेंगे कि साला बनता था तीस मार खां, ठीक किया इसे इस समिति से हटा दिया गया, यही सोचकर चुप हो गया।

इसलिए कमेटियों का चस्का बुरा तो है, लेकिन यह व्यक्तित्व निर्माण का अनिवार्य तत्व भी है। इसीलिए मैं “सफाई समिति’ की निषियता से उद्वेलित नहीं हूं और न ही मीटिंग के प्रति सजग। समिति में होने से मुहल्ले के लोग आते हैं, पूछते हैं, सुझाव देते हैं, मानते हैं और एक छोटा-मोटा-सा आभामंडल बना रहता है, जो जीने के लिए जरूरी है। बस मेरा काम तो “सफाई समिति’ से चल रहा है। आप भी किसी कमेटी के सदस्य बनिये, कोई नहीं बनाये तो स्वयं समिति का गठन कर डालिए। किसी संस्था को सुझाव दीजिए कि वह संचालन करे। हो सकता है कि आप भी किसी समिति के सदस्य बन जाएं।

समिति का सदस्य बनना गरिमा और गौरव दोनों ही की बात है। आदमी आत्म-सम्मान की भावना से सराबोर रहता है तथा जीवन का पहिया घूमता रहता है। किसी को लाभ पहुंचाना हो अथवा हानि पहुंचानी हो तो भी समिति में होना आवश्यक है, इससे सामान्य ज्ञान बढ़ता है तथा मेल-मिलाप के अवसर भी मिलते हैं। काम हो या नहीं, लेकिन समिति चलती रहती है अनादि काल तक। किसी सरकारी समिति में आ गये तो और भी आनंद है। टीए तथा डीए मारो तथा चक छानो। नजर दौड़ाइये आपकी सदस्यता कहां फिट हो सकती है। किसी भी चीज को बचाने के लिए भी समिति बनायी जाती है। मुहल्ला बचाओ, पार्टी बचाओ, देश बचाओ, जिला बचाओ, राज्य बचाओ, बस बचाओ-बचाओ चिल्लाते रहें, काम बना रहेगा। फिलहाल हो सके तो देश को कमेटियों से बचाओ वरना रसातल में जाने के सारे सुयोग बन गये हैं, उनमें कमेटी निर्माण पहला कदम है।

– पुरन सरमा

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