आटे पर बैंक लोन!

बैंक वाली बाला का फोन था। रिसीव किया तो मधुर आवाज गूंजी, “सर! आपके लिए खुशखबरी!! हमारे बैंक ने आटे और गेहूं खरीदने के लिए भी लोन देना शुरू कर दिया है। आप जैसे गरीब लेखकों को ईएमआई की सुविधा देने का निर्णय किया गया है। सर, आप बैंक आएं और अनाज के लिए लोन ले लें तथा आसान ईएमआई से चुका दें। ऐसे सुनहरे अवसर बार-बार नहीं आते। आप यह मौका हाथ से न जाने दें। हमारे बैंक से आटा खरीदने के लिए लोन ले लें। आटा खाते रहें और ईएमआई चुकाते रहें।’

यह सुनकर मन-मयूर नाच उठा। हिया में उमंगें हिलोरें लेने लगीं। पहली बार फीलगुड का अहसास हुआ। सोचा, वाकई हम आर्थिक उदारीकरण के युग में जी रहे हैं। देखिए ना! बैंक भी कितने उदार हो गए। कहॉं तो लोन के लिए चक्कर काटते-काटते कई जोड़ी जूते घिस जाते थे लेकिन अब तो गरीबों का भी पूरा ख्याल रखा जाने लगा है। मैं बाला के मीठे स्वर से खुश था कि चलो कहीं से तो बैंक लोन का डोल जमा। आटा खाने के बाद लोन चुकाना पड़ेगा। यह भी एक अच्छी खबर थी, क्योंकि औसतन भारतीय खाना खाने के बाद जुगाली करने लग जाता है। मैं भी लोन चुकाने की जुगाली करूंगा। लोन के जुगाड़ से भी ज्यादा खुशी मोबाइल की फिजूलखर्ची के पत्नी के आरोपों का सटीक जवाब मिल जाने की थी। अब पत्नी से कह दूंगा कि देख मोबाइल का कमाल, इसने सारी समस्याएं चुटकियों में सुलझा दीं।

मैं प्रफुल्लित मन से बैंक पहुँचा। शानदार दफ्तर। शानदार कालीन। शानदार फर्नीचर। जानदार बालाएं। सुन्दर स्वस्थ युवा। अच्छी अंग्रेजी में लोने देने को तत्पर। मैंने उन्हें बड़ी प्रसन्नता से बताया कि आटा खरीदने के लिए लोन लेने आया हूँ और बैंक से मुझे फोन भी आया था। ये सुनते ही उस सुंदर बाला ने हिकारत से मुझे देखा और कहा, “सर, मैं तो कार लोन को डील करती हूँ। आप रमा के पास जाएं।’

“रमा कहॉं हैं?’ मेरे सवाल का जवाब मिला, “वे जो महंगे फोन पर बतिया रही हैं, वे रमा जी हैं।’ रमा जी की टेबल पर कई फोन रखे थे। सभी रह-रह कर बज उठते थे। रमाजी एक फोन रखतीं, दूसरा उठातीं। दूसरा फोन रखतीं, तीसरा उठातीं। इस बीच उनका मोबाइल बजने लगता, वो मोबाइल उठातीं और सुर मिलातीं। मैं उनके सामने जाकर खड़ा हो गया। कभी उन्हें देखता तो उनकी नजर पड़ने पर उनके फोन को घूरने लगता। रमा जी की बॉडी लैंग्वेज देखकर मुझे लग रहा था कि फोन रखते ही वे मुझसे बात करने वाली हैं, लेकिन वे मेरी तरफ मुस्कान फेंकते हुए दूसरे फोन पर लग जातीं। काफी देर तक मुझे इस तरह खड़ा देख कर रमाजी ने मेरी तरफ नजर घुमाई, फोन पर बतियाते हुए ही बोलीं, “कहिए सर! मैं और यह बैंक आपके लिए क्या कर सकते हैं? आपकी सेवा में हम तत्पर हैं।’

मैंने सोचा, अब तो अपना काम हो जाएगा। मैं मुस्कुराते हुए बोला, “आप चाहें तो मुझे आटा खरीदने के लिए लोन दे सकती हैं।’ “देखिए, बैंक ने वित्त मंत्री के आदेश से अपनी पॉलिसी बदल दी है। पिछले वर्ष हमने कुछ लोगों को आटे के लिए लोन दे दिया था। तबसे सब आटा खाकर चित्त हो गए। अब हम केवल गेहूँ के लिए लोन दे रहे हैं।’ मैंने कहा, “कोई बात नहीं, पॉलिसी बदल गई तो क्या हुआ। आप मुझे गेहूँ के लिए ही लोन दे दीजिए।’

“देखिए, क्या आप ईएमआई भर सकेंगे?’ उनका सवाल सुनकर मैं झेंप गया। फिर साहस जुटाकर बोला, “क्यों नहीं! आप मेरा और मेरे परिवार का पेट भर रही हैं तो मैं ईएमआई क्यों नहीं भर सकता? वैसे यह ईएमआई है क्या बला?’ वे बोलीं, “सर इक्वल मंथली इन्स्टालमेंट ही ईएमआई है।’ “अच्छा, यह कितनी राशि होगी?’ मैंने जिज्ञासावश पूछा। “यह तो लोन की राशि पर निर्भर करेगा।’ “लोन कितना मिलेगा?’ “यह आपकी इन्कम पर निर्भर करेगा।’ “मैं तो लेखक हूँ। आय तो कम-ज्यादा होती रहती है।’ “तो फिर आपको गारंटी देनी होगी।’ “वो तो नहीं है।’ “तो फिर लोन मिलना भी मुश्किल है।’

रमा जी का फोन फिर बजने लगा। वे किसी उद्योगपति को आटा फैक्टी के लिए लोन देने में लग गईं। मैंने फिर सोचा, आटा, गेहूँ, दाल और सब्जी के लिए किस बैंक से लोन लूं। हर बैंक ने मुझे निराश किया। अगर आप लोन की ईएमआई की गारंटी ले सकें तो कृपया सूचना दें। देखिए निराश न कीजिएगा। बहरहाल, मैं अपने तईं भी प्रयास में लगा हूं और प्रयास करते रहने से कामयाबी मिलती ही है। कोई न कोई बैंक तो ऐसा मिल ही जाएगा जो मुझे आटे के लिए लोन देने को तैयार हो जाएगा।

 

– यशवन्त कोठारी

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