काले गुलाब की खुशबू

कक्षा तीन में पढ़ने वाले एक विद्यार्थी ने कभी मेरा सपना शीर्षक लेख में बड़ी शिद्दत के साथ लिखा था कि उसका एकमात्र सपना है कि वह बड़ा होकर राष्ट्रपति बने। वह बच्चा अब जवान हो चुका है और अपनी उम्र की 46 सीढ़ियॉं भी चढ़ चुका है। इस उम्र तक पहुँचते-पहुँचते इस बच्चे ने सारी दुनिया में अपने नाम-बराक ओबामा की एक ़खास पहचान बना ली है और दुनिया उसे काला जादूगर के तौर पहचानने लगी है। वह अश्र्वेत बालक अपने जिस सपने के साथ जवान हुआ, अब उसका वह सपना एक हकीकत की शक्ल में उससे चन्द कदमों दूर आकर खड़ा हो गया है। अगर हालात किसी अप्रत्याशित घटनााम के शिकार नहीं हुए तो सारी दुनिया अब यह समझने लगी है कि ओबामा का अमेरिका जैसे देश का राष्ट्रपति बनना एक औपचारिक अंतराल भर रह गया है।

ओबामा अगर अमेरिका के राष्ट्रपति बनते हैं (हालॉंकि अगर लिखना अब उचित नहीं लगता) तो एक अश्र्वेत पृष्ठभूमि को उसके इतिहास में पहली बार स्वीकार किया जाएगा। अब तक अपनी लोकतांत्रिक परंपरा को दुनिया में सबसे शानदार साबित करने वाला अमेरिका सचमुच पहली बार इस परंपरा के साथ वास्तविक न्याय की भूमिका में होगा। क्योंकि अभी हाल तक, और बहुत हद तक अभी भी, काले-गोरे की नस्ली अवधारणा उसके समाज के साथ बेतरह जुड़ी रही है। ओबामा और उनका समाज सैकड़ों वर्षों की इस नस्ली पीड़ा को अपने दिल में संजोये शायद इसी दिन का इंतज़ार कर रहे थे कि एक दिन काले बदन का लाल ़खून भी अपने सपनों का सुर्ख गुलाब खिलाने में कामयाब होगा। और अब वह दिन इस कदर सिमट गया है कि उंगलियों पर भी गिना जा सकता है।

अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति की गहरी समझ रखने वाले पत्रकार अब इस विषय पर चर्चा नहीं करते कि एक अश्र्वेत व्यक्ति के राष्ट्रपति बनने से अमेरिकी समाज अथवा उस देश की राजनीति पर क्या असर पड़ेगा, बल्कि ओबामा की शख्सियत में उलझा मीडिया इस चर्चा में मशगूल है कि इस व्यक्ति की मंद मुस्कान कौन-सा अर्थ ध्वनित करती है। अमेरिका के प्रसिद्ध दैनिक समाचार-पत्र न्यूयार्क टाइम्स का तो यहॉं तक कहना है कि ओबामा यकीनन एक राजनीतिक फिनोमिना बन गये हैं। आसान शब्दों में कहा जाय तो ओबामा उस शख्स का नाम है जो राजनीति की सीमारेखा पार कर दुनिया भर की तमाम दबी-कुचली कौमों का विजय-प्रतीक बन गया है। ओबामा इस दृष्टि से एक ऐसे जादूगर का नाम है जो सिर्फ अपनी ओर अपने समर्थकों को ही नहीं खींचता, बल्कि अपने विरोधियों को भी सम्मोहित करने की ताकत रखता है। उनके विरोधी बड़ी शिद्दत और संजीदगी से यह जुमला उछालते हैं कि वे एक कम अनुभवी व्यक्ति को इतनी ऊँची कुर्सी पर बैठने के हिमायती नहीं हैं, लेकिन जहॉं तक ओबामा का सवाल है उसे ज़रूर इस पद पर देखना पसंद करेंगे। और कारण बस इतना भर बताया जाता है कि वे मुस्कुराते हैं, तो लगता है कि सब कुछ अच्छा चल रहा है। वे बोलते हैं, तो उनकी बातों पर यकीन करने को दिल करता है। उनकी मंद मुस्कान अपना असर सम्मोहन की तरह बिखेरती है। अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति बिल क्ंिलटन के बाद वे सर्वाधिक अमेरिकी जनता की पसंद है। इस पसंद की ़खूबी यह है कि इसमें उनके समर्थक और विरोधी समान भाव से शामिल हैं। ओबामा बहुत मीठा भी नहीं बोलते, बल्कि एक हद तक उन्हें कटु भाषी ही कहा जा सकता है। लेकिन इस कड़वाहट के बावजूद उन्हें अमेरिकी जनता ने उन्हें अपना हीरो बनाया है। हीरो वे श्र्वेतों-अश्र्वेतों दोनों के हैं। यह बराक ओबामा ही हैं, जो यह कहने का साहस कर सकते हैं कि दुनिया को सबक सिखाने का बीड़ा उठाने वाले अमेरिका में आज भी काले-गोरों का भेदभाव कायम है।

हैरत है कि इस टिप्पणी के बाद भी अमेरिका उन्हें अपनी सबसे ऊँची कुर्सी पर बिठाने जा रहा है, वह अमेरिका जिस पर अब तक गोरों का आधिपत्य रहा है। अब इसे ओबामा की मंद मुस्कान का जादू कहें या उस गोरी कौम की मानसिकता में बदलाव जो अब तक काली-भूरी चमड़ी को निकृष्ट तथा हेय मानने की अवधारणा से ग्रस्त रही है। यह धारणा अमेरिकी समाज की मानसिकता से एकदम बाहर हो गई है, इसे भी नहीं स्वीकार किया जा सकता। औरों की बात छोड़ दी जाय, तो ओबामा ने राष्ट्रपति बुश के साथ अपनी पहली मुलाकात का जो विवरण दिया है, उसका भी संकेत कमोबेश इसी से जुड़ता है। ओबामा व्हाइट हाउस में राष्ट्रपति बुश से पहली मुलाकात का हवाला देते हुए कहते हैं कि उन्होंने हाथ तो उनसे बड़ी गर्मजोशी के साथ मिलाया और फिर वे बगल में खड़े गार्ड की तरफ मुड़े। गार्ड ने तुरंत उनके हाथ पर सेनिटाइजर (एक तरह का साबुन) डाल दिया। राष्ट्रपति ने ओबामा की हथेली पर भी थोड़ा सेनिटाइजर डालते हुए कहा कि इससे हाथ साफ कर लेने से जुकाम नहीं होता। ओबामा को उनका आशय समझते देर नहीं लगी। फिर तुर्की-ब-तुर्की जवाब देते हुए उन्होंने भी कहा कि- काश! इससे दिल भी साफ हो जाते।

मुस्कुराते हुए कड़वी से कड़वी सच्चाई को बेबाक लहजे में कहने वाला यह शख्स अब उस मुकाम पर खड़ा है जहॉं से उसका और उसकी जाति का स्वर्णिम भविष्य महज कुछ कदम दूर है। अब चन्द दिनों बाद उसकी हैसियत दुनिया के सबसे ताकतवर देश के सबसे ताकतवर आदमी की होगी। यह विजय-गाथा अकेले ओबामा के नाम दर्ज हो, ऐसा भी नहीं है। ओबामा की इस विजय के साथ एक इतिहास भी जीतेगा। वह इतिहास, जिसके अभिलेख उत्पीड़न की भाषा में लिखे गये हैं। वह इतिहास, जिसे सभ्यता ने अवांछित समझ कर हमेशा ठुकराया है। उस इतिहास की परिभाषा को अगर ओबामा ने एक नया अर्थ दिया है तो उस इतिहास ने भी ओबामा को एक न हारने वाली तथा हर युद्ध की विजय अपने नाम दर्ज कराने वाली ताकत बख्शी है। अब यह ताकत सिर्फ अमेरिका का ही नहीं, सारी दुनिया का भविष्य लिख सकेगी। मगर उस भविष्य की तस्वीर आपसी भाई-चारे, मेल-मुहब्बत, सहिष्णुता-सद्भाव तथा प्रेम और करुणा की हो सकती है। क्योंकि इसकी पृष्ठभूमि में संवेदनाओं का वह धरातल है जो अपनी सहजता में मानवीय मूल्यों की अभिव्यक्ति को कई रंगों में उकेर सकता है।

इस दृष्टि से देखा जाय तो अमेरिका ओबामा के साथ एक संाांति की दहलीज पर खड़ा है। जिसके परिवर्तन की अनुगूंज ओबामा के शासनारूढ़ होने के पहले ही सुनाई देने लगी है। परिवर्तन की यह बेला इतिहास की गुफाओं से बाहर आकर न जाने कबसे अपने इस अश्र्वेत बेटे का इंतजार कर रही थी। उसके हाथ कुछ स्मृतियॉं और गाथायें हैं, उस सतत संघर्ष की गाथायें जो अपनी चमड़ी का रंग काला होने की वजह से अनन्त उत्पीड़नों का शिकार होती रही हैं। परिवर्तन की यह स्वर्णिम बेला ओबामा के हाथों उसे सौंपेगी और चाहेगी कि उत्पीड़न का वह इतिहास फिर से दुनिया के किसी हिस्से में न लिखा जाय। यह सराहनीय है कि ओबामा अपने और अपनी जाति के इस इतिहास पर पर्दा डालने की कोशिश नहीं करते। उनकी इच्छा है कि लोकतांत्रिक मूल्यों और मानवाधिकारों का पैरोकार अमेरिका उन्हें और उनके जातीय इतिहास को अपनी पूर्ण स्वीकृति दे।

सच तो यही है कि संघर्ष के बुनियादी उसूल ही आदमी को आस्थावान बनाते हैं। ओबामा के कार्यालय में अगर महात्मा गांधी की तस्वीर टंगी है और गांधी के प्रति ओबामा अपनी हार्दिक श्रद्धा का अभिषेक करते हैं, तो यह न तो अकारण है और न ही अनायास। गांधी वस्तुतः उस संघर्ष के सूत्रधार हैं जो आज ओबामा के रूप में अपना विजय-भाव प्रदर्शित कर रहा है। नस्लभेद और रंगभेद के खिलाफ गांधी ने यह लड़ाई पहली बार अहिंसात्मक तौर पर दक्षिण अफ्रीका में लड़ी और वे इस संघर्ष के महानायक बन गये। इसलिए अगर ओबामा सचमुच जब अपने जातीय इतिहास के मूलबिन्दु पर खड़े होंगे तो उन्हें श्रद्धावनत होकर भारत के बेटे-गांधी को स्वीकार करना ही होगा। अगर यह स्वीकृति ईमानदार होगी तो इसके एक सिरे पर गांधी होंगे और दूसरे सिरे पर भारत होगा। वैसे भी गांधी की स्वीकृति का सीधा मतलब है भारतीयता की स्वीकृति। फिलहाल जिस मुकाम तक ओबामा पहुँच गये हैं वहॉं उन्हें कुछ पल ठहर कर यह सोचना होगा कि गांधी किसी इतिहास पुरुष का नाम नहीं है, वह सर्वकालीन मनुष्यता के भविष्य-पुराण हैं। आज बारूदी ढेर पर बैठी विश्र्व-मानवता को गांधी ही परित्राण दे सकते हैं और उनके उसूलों और आदर्शों के साथ एक ऐसे वैश्र्विक-समाज की रचना संभव हो सकती है जो घृणा और विद्वेष की जगह करुणा और प्रेम की खुशबू से लबरेज़ हो। अमेरिका के आंगन में एक काला गुलाब उस खुशबू को नया अर्थ देने का संकल्प लिए खिल चुका है। कहीं उस काले गुलाब का नाम ही तो बराक ओबामा नहीं है?

 

– रामजी सिंह उदयन

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