गुरु-शिष्य संबंध

गुरु समष्टि रूप से सचेतन होता है और यही कारण है कि वह एक गुरु है। गुरु समस्त प्रज्ञा और अनुभव के साथ समष्टि रूप से सचेतन होता है। शिष्य का मन व्यष्टि मन होता है, जो देश एवं काल से आबद्घ होता है। शिष्य अपने मन को गुरु के मन के अनुकूल बनाने का प्रयास करता है, पर कैसे? गुरु के सम्पर्क में आकर, कुछ करके तथा यह समझने का प्रयास करते हुए कि वह गुरु के मन के लिए अनुकूल है या नहीं। यदि गुरु का मन स्वीकार कर लेता है, तो ठीक! शिष्य रूपान्तर को अंगीकार करने लगता है। यदि गुरु अस्वीकार करता है, तो ठीक! शिष्य उसे भी मान लेता है। इस प्रकार से गुरु के सान्निध्य में कार्य करते हुए, शिष्य अपनी इच्छा और अनिच्छा को गुरु की इच्छा और अनिच्छा के साथ समन्वय करते हुए, अपने मन के स्तर को गुरु के मन के स्तर तक उन्नत करता है। यहां आज्ञाकारिता के अतिरिक्त और किसी भी बात का महत्व नहीं है। कार्य महत्वपूर्ण नहीं है। जो महत्वपूर्ण है, वह मन की समरसता है। यदि गुरु आज “हॉं’ कहता है, तो शिष्य “हॉं’ कहता है, और अपने अन्तर्मन से “हॉं’ कहता है, ऊपरी मन से नहीं, जिसका कोई अर्थ नहीं होगा। कल वह “नहीं’ कहता है, तो शिष्य भी “नहीं’ कहता है। कार्य महत्वपूर्ण नहीं है।

मेरा ऐसा जीवन तेरह वर्ष रहा है, और यह मेरा बड़ा सौभाग्य रहा। परीक्षण करते हुए मुझे स्वयं को समन्वित करने में लगभग दो वर्ष लगे, और उद्देश्य मात्र यह था कि मन किधर गया। जब यह देखना सरल हो गया कि मन किस ओर गया, तब मन को गुरु के मन के समरस करना सुगम हो गया। इस प्रकार कुछ समय पश्र्चात्, गुरु के अभिप्राय शिष्य के अभिप्राय बन जाते हैं, गुरु की इच्छाएँ शिष्य की इच्छाएँ बन जाती हैं, गुरु के मन की तरंग शिष्य के मन की तरंग बन जाती है तथा जो महत्वपूर्ण है, वह शिष्य के मन का गुरु के मन के प्रवाह के अनुसार अनुकूल होना है। जब वह उस स्तर पर पहुंच जाता है, तो क्योंकि गुरु का मन समष्टि के स्तर का है, इसलिए तत्काल शिष्य का व्यष्टि मन भी तुरन्त समष्टि के स्तर तक उन्नत हो जाता है। तत्क्षण गुरु के मन का कोषागार शिष्य के मन का कोषागार बन जाता है, बिना कुछ दिये हुए शिष्य सब कुछ प्राप्त कर लेता है। गुरु कभी कुछ नहीं देता है, परन्तु वह शिष्य ही है, जो सब कुछ प्राप्त कर लेता है। तालाब जल से परिपूर्ण है तथा उसकी प्रवृत्ति न तो वहां रहने की है और न बाहर प्रवाहित होने की। कोई व्यक्ति, जो अपने खेत में जल लेना चाहता है, वह तालाब से खेत तक नाली बना ले, पानी स्वतः ही खेत में पहुंच जायेगा। वह युक्ति है, जल के स्तर को खेत से जोड़ने की ही बात है। स्वाभाविक रूप से पानी जब प्रवाहित हो जायेगा, वह रुक नहीं सकता। स्वेच्छा से अथवा अनिच्छा से वह प्रवाहित होता ही है।

शिष्य का गुरु के चरणों में समर्पण का यही अर्थ है। यदि शिष्य सामर्थ्यवान और भाग्यशाली है, जो पूर्ण समर्पण कर दे तो काम बन जाता है, उसमें समय नहीं लगता। वह ऐसा हो जाता है। उसका उपाय है, गुरु की आज्ञा का पालन और मन की समरसता। यह मेरा अनुभव रहा है। गुरु के चरणों में सभी समय छाया के समान निवास करो। किसी व्यक्ति के लिए केवल तब ही पूर्ण समर्पण सम्भव है, जिसके पास परछाई की भांति इस ढंग से साथ चलने का अवसर हो। दूर से यह सम्भव नहीं है और यह ध्यान व्यष्टि मन को समष्टि मन के साथ समरस करने की प्रविधि है, जब गुरु के साथ इस ढंग से निकल चलने का कोई अवसर हो। प्रातःकाल एवं सायं, अभ्यास से, भीतर आत्म-चेतना की ओर जाते हुए तथा बाहर आते हुए, क्रिया के क्षेत्र में आत्म-चेतना के गुण को भरकर, क्रिया के क्षेत्र में पूर्ण आत्म-चेतना अनुप्राणित हो जायेगी तथा वह समष्टि चेतना हो जाएगी।

 

– महर्षि महेश योगी

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