गुस्से का दफ्तरी समाजशास्त्र

सत्तर के दशक में सलीम-जावेद ने अमिताभ बच्चन को एंग्री यंग मैन के रूप में फिल्मी पर्दे पर पेश किया और उनका जादू सिर चढ़कर बोला। इस सफलता के पीछे एक मनोवैज्ञानिक कारण यह था कि युवा मर्द आाामक ही अच्छा लगता है। दिलचस्प बात यह है कि एंग्री यंग मैन का बिल्ला वास्तव में पुरूष प्रोफेशनल्स के पक्ष में काम करता है और अब इसकी पुष्टि शोध द्वारा भी हो गयी है। अमेरिका की नॉर्थ वेस्टर्न यूनिवर्सिटी में ब्रेसकौल और एरिक उल्मैन द्वारा किये गये अध्ययन का नतीजा यह निकला कि लोग उन नर प्रोफेशनल्स को स्वीकार करते और रिवार्ड देते हैं, जो कार्यस्थल पर गुस्सा होते हैं, लेकिन जो महिलाएं ऑफिस में अपना आपा खो देती हैं या गुस्से में आ जाती हैं, उन्हें कम योग्य समझा जाता है। इस नये अध्ययन से सेक्स के युद्घ में एक और नया कोण जुड़ गया है।

अध्ययन से मालूम पड़ता है कि गुस्सैल पुरूषों को अधिक स्टेटस, अधिक वेतन मिलता है और उनसे उम्मीद की जाती है कि वह गुस्सैल महिलाओं की तुलना में अच्छा काम करेंगे। गुस्सैल महिलाओं को तो जॉब खोने का डर लगा रहता है।

इस अध्ययन से अलग अगर व्यक्तिगत अनुभवों को देखें तो महिलाओं का कहना है कि यह बात एकदम सही है। एक कॉस्मेटिक कंपनी में काम कर रही निशा रस्तोगी कहती हैं, “”पुरूष की आाामकता को उसकी योग्यता के चिह्न के रूप में देखा जाता है। समझा जाता है कि वह अधिक करने व पाने का भूखा है और इसलिए जो कुछ करेगा, उसमें सफल होगा। इस कारण उसे कार्पोरेट जगत में उच्च पद, अधिक जिम्मेदारी और अधिक वेतन मिलता है। अगर महिला गुस्सा हो गयी तो उसे सिर्फ कुंठित के रूप में देखा जाता है।”

मुंबई की एक वित्त सलाहकार कंपनी में काम कर रही शालिनी चुग इस बात से सहमत हैं कि बोर्डरूम में लिंग के आधार पर भेदभाव मौजूद है। वे कहती हैं, “”खेल से कार्पोरेट दुनिया तक में पुरुष का गुस्सा किलर इंस्ंिटक्ट और हासिल करने वाले के रूप में देखा जाता है। लेकिन अगर कार्यस्थल पर महिला गुस्से में आ जाये तो उसे कुंठित समझा जाता है। यह माना जाता है कि वह काम के दबाव को बर्दाश्त करने में असक्षम है। महिलाएं भी अपने गुस्से के बारे में सफाई देने लगती हैं।”

एक सॉफ्टवेयर प्रोफेशनल सीमा अग्रवाल कहती हैं, “”हमारी बॉस महिला है और जब भी वह हमें गुस्सा करती है, हम उसकी वजह सब कुछ गिनवा देते है, सिवाय काम के। इसका अर्थ यह नहीं है कि वह अच्छी प्रोफेशनल नहीं है, लेकिन मैं समझती हूं कि समाज में महिलाओं को देखने का यही अंदाज है।” दूसरे शब्दों में महिलाएं भी यह मानकर बैठ गयी हैं कि कार्यस्थल पर उनका गुस्सा करना असक्षम होने का प्रतीक है।

अध्ययन से यह भी मालूम हुआ है कि अपने गुस्से की सफाई देने पर महिलाएं सजा या डांट अथवा फटकार से बच जाती हैं। लेकिन अगर पुरुष सफाई दे तो उसकी माचो छवि प्रभावित होती है और उसे कमजोर समझा जा सकता है। इसकी वजह पुरुष प्रधान समाज है जिसमें महिला को कमजोर समझा जाता है, ऐसा रानी सांगवान का मानना है, जो एक अखबार में काम करती हैं। उनके अनुसार, “”पुरुषों से यह उम्मीद नहीं की जाती कि जो कुछ वह गुस्से में कहते हैं, उसकी सफाई या कारण दें। दूसरी ओर महिलाओं को दूसरों के सामने गुस्सा होने पर अपराधबोध होता है और वह गुस्से के कारण की सफाई देने लगती हैं। महिलाएं उस खामी की भरपाई करने लगती हैं, जो गुस्सा होने पर उनके प्रोफेशनल प्रोफाइल को होती है।”

शिक्षाविद् मनोज श्रीवास्तव कहते हैं, “”खिलाड़ियों की तारीफ होती है, जब वह मैदान पर आाामकता दिखाते हैं। श्री संत और हरभजन इसकी जिंदा मिसाल हैं और ऐसा प्रतीत होता है कि उन्होंने पुरुषों में गुस्से के गुण की मौजूदगी को सकारात्मक दिशा प्रदान की है। लेकिन महिलाओं के लिए गुस्सा उनके खिलाफ ही काम करता है।”

विशेषज्ञों का कहना है कि यह शीशों का मकान बनाने का एक और कारण है। समाज शास्त्री सारा जैकब कहती हैं, “”दुनियाभर के कार्यस्थलों के बारे में यह बात सही है। महिला किसी भी पद पर हो, उससे यही उम्मीद की जाती है कि वह दफ्तर में हर किसी के साथ कूल व शांत रहेगी। लेकिन यही गुण अगर पुरुष कर्मचारी में हों तो यह कमजोरी का चिह्न समझा जायेगा और माना जायेगा कि उसमें आगे बढ़ने का सही माद्दा नहीं है।”

दरअसल, यह एक और रूकावट है, जो महिला कर्मचारी कार्यस्थल पर महसूस करती हैं। उनके गुस्से को कभी भी यह नहीं समझा जाता कि उसकी जड़ें प्रोफेशनल समस्या में हैं। उसके गुस्से को व्यक्तिगत कारणों से जोड़ा जाता है। इस तरह यह एक और तरीका है, कार्यस्थल पर लिंग के आधार पर भेदभाव करने का।”

– नरेन्द्र कुमार

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