गोधरा कांड के अभियुक्तों पर पोटा नहीं

सर्वोच्च न्यायालय की एक खंड पीठ ने, जिसकी अध्यक्षता स्वयं मुख्य न्यायाधीश के. जी. बालाकृष्णन कर रहे थे, गोधरा कांड के सभी 134 आरोपियों पर से पोटा हटाने का निर्देश दिया है। ़गौरतलब है कि इन सभी आरोपियों पर सन् 2002 में साबरमती एक्सप्रेस के एक डिब्बे में आग लगाकर अयोध्या से लौट रहे 59 रामसेवकों को जिन्दा जला कर मार डालने का आरोप आयद किया गया था। ़गौरतलब यह भी है कि इस घटना के बाद पूरे गुजरात में बड़े पैमाने पर दंगे हुए थे जिसमें ह़जारों की संख्या में लोग मारे गये थे। इस संदर्भ में गुजरात सरकार और उसके मुख्यमंत्री पर आरोप लगा था कि दंगे के संदर्भ में उनकी भूमिका पक्षपातपूर्ण थी। अर्थात कथित तौर पर राज्य सरकार की सभी संबंधित मशीनरियों ने बहुसंख्यकों का साथ दिया था और अल्पसंख्यकों के खिलाफ अभियान में उनको मदद पहुँचाई थी। इन आरोपों को तब और बल मिला जब गोधरा कांड के अभियुक्तों की गिरफ्तारी आतंकवाद निरोधक ़कानून (पोटा) के तहत की गई और दंगे के आरोपियों को सामान्य फौजदारी कानून के तहत गिरफ्तार किया गया। ध्यान देने योग्य बात यह भी है कि गोधरा कांड में गिरफ्तार किये गये सभी अभियुक्त अल्पसंख्यक मुसलमान समुदाय के थे और दंगों के अभियुक्त बहुसंख्यक हिन्दू। इस हालत में गुजरात के भाजपायी मुख्यमंत्री पर यह आरोप लगना स्वाभाविक ही था कि वे दोषियों को स़जा दिलाने में भेदभाव बरत रहे हैं।

“पोटा’ कानून राजग शासनकाल में पारित किया गया था और इसे पारित करने के पीछे उद्देश्य बताया गया था, आतंकवाद की घटनाओं की रोकथाम के साथ ही आरोपियों को त्वरित न्याय प्रिाया के जरिये दंडित करना। केन्द्र सरकार द्वारा नियुक्त आतंकवाद निरोधक समीक्षा समिति ने अपनी जॉंच के बाद यह रिपोर्ट प्रेषित की थी कि इन अभियुक्तों पर इस कानून के तहत मुकदमा नहीं चलाया जाना चाहिये। लेकिन गुजरात की मोदी सरकार ने इस समिति की अनुशंसा स्वीकार करने से इन्कार कर दिया था। अब उसी अनुशंसा को सर्वोच्च न्यायालय ने अपनी मंजूरी दी है और इन सभी अभियुक्तों पर से पोटा हटा कर फिर से निचली अदालत में न्यायिक प्रिाया शुरू करने का निर्देश दिया है। पोटा हटने के बाद गोधरा कांड के इन अभियुक्तों के मन में अब नये सिरे से यह आशा बंधी है कि कम से कम अब उनकी जमानत ़जरूर संभव हो सकेगी। इन लोगों को सबसे बड़ी त्रासदी यह झेलनी पड़ी है कि ये लोग लगभग 6 साल से जेलों में बंद हैं, जिनमें कई मर भी चुके हैं, लेकिन अभी तक इनके खिलाफ मुकदमे की प्राथमिक कार्रवाही भी शुरू नहीं हो सकी है। सर्वोच्च न्यायालय के इस आदेश के साथ इन्हें अवश्य कुछ राहत मिलने की संभावना बनती है।

सर्वोच्च न्यायालय के इस निर्देश का स्वागत कांग्रेस सहित कई दलों ने किया है। स्वागत करने के पीछे एक राजनीतिक कारण यह भी माना जा सकता है कि आतंकवाद को लेकर भाजपा लगातार केन्द्र की कांग्रेसनीत सरकार पर अपना दबाव बना रही है कि वह “पोटा’ की पुनर्वापसी करे अथवा उस जैसा कोई कानून ले आये। कांग्रेस की ओर से उसकी यह पेशकश लगातार नकारी जा रही है। नकारने के पीछे एक कारण कांग्रेस की ओर से यह बताया जा रहा है कि उस ़कानून के बहुत सारे प्रावधान पुलिस को असीमित अधिकार देते हैं जिससे व्यापक स्तर पर इसके दुरुपयोग की संभावना बनती है। इसके अलावा राजनीतिक कारणों से भी इसका दुरुपयोग किया जा सकता है। कांग्रेस के इस कथन को पूरी तरह ़गलत भी नहीं सिद्घ किया जा सकता। यह आशंका तब भी प्रकट की गई थी जब राजग सरकार ने इसे अपने कार्यकाल में संसद का संयुक्त अधिवेशन बुला कर पारित करवाया था।

सर्वोच्च न्यायालय ने अप्रत्यक्ष ही सही, कांग्रेस द्वारा प्रकट किये जा रहे पोटा के इस विरोध को अपना समर्थन प्रदान किया है। इससे और कुछ नहीं तो उसके पक्ष को नैतिक बल ़जरूर मिला है। जहॉं तक भाजपा और उसके शासित राज्य गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी का सवाल है, सर्वोच्च न्यायालय के इस निर्देश ने एक राजनैतिक धक्का उन्हें ़जरूर दिया है। नानावटी-शाह आयोग की रिपोर्ट आने के बाद और इस रिपोर्ट में नरेन्द्र मोदी को “क्लीन चिट’ मिलने के बाद, पूरे संदर्भ में भाजपा अत्यधिक उत्साहित थी। अब किसी न किसी रूप में उसके उबाल पर सर्वोच्च न्यायालय ने पानी के छींटे अवश्य डाल दिये हैं। हालॉंकि सर्वोच्च न्यायालय ने गोधरा कांड के इन आरोपियों को दोषमुक्त नहीं किया है और उनके अपराध के ऩजरिये से सामान्य कानून के तहत निचली अदालत में मुकदमा चलाने की स्वीकृति भी दी है, लेकिन उन्हें आतंकवादी मान कर “पोटा’ में उनकी गिरफ्तारी को स्वीकृति नहीं दी है। इसका एक पक्ष यह भी है कि सर्वोच्च न्यायालय की इस पेशकश से भारतीय न्याय प्रणाली पर भरोसा भी म़जबूत हुआ है। यह भरोसा कि भले ही कुछ देर से मिले, लेकिन न्याय प्रत्येक पीड़ित को मिलेगा।

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