चरित्र गिर गया है

आजकल कॉलेजों में प्रवेश प्रक्रिया चल रही है। छात्राएं अपने प्रवेश पत्र लेकर प्रवेश समिति में पहुँचती हैं तो हम प्राध्यापक साथी उनके डाक्यूमेंट चेक करते हैं। किसी भी कक्षा में प्रवेश हेतु चरित्र प्रमाणपत्र लगाना जरूरी है। एक लड़की चरित्र प्रमाणपत्र नहीं लाई थी। मैंने उससेे पूछा कि “कहॉं है तुम्हारा चरित्र प्रमाणपत्र?’ लड़की का जवाब चौंकाने वाला था। बोली, “जी, मेरा चरित्र खो गया है।’ समिति के सदस्यों ने कनखियों से एक-दूसरे की ओर देखा। फिर एक ने समझाते हुए कहा कि “चरित्र खो गया है, नहीं कहते। तुम्हें कहना चाहिए कि चरित्र प्रमाण-पत्र खो गया है।’ इस घटना के अगले दिन एक-दूसरी लड़की ने इसी सवाल के जवाब में कहा, “जी, मैं बस में आ रही थी और मेरा चरित्र रास्ते में गिर गया, मैं स्कूल से दूसरा चरित्र ला दूंगी।’ पहले दिन की घटना याद करते हुए हम दुबारा हंसे। तीसरे दिन एक लड़की आई और बोली, “मैडम, मेरा चरित्र वापिस कर दो।’ मैंने पूछा, “क्या हुआ?’ तो बोली, “जी, मैंने यहॉं दाखिला लेने के लिये चरित्र लगाया था अब मुझे मेरा चरित्र चाहिए क्योंकि मुझे दूसरे कॉलेज में दाखिला लेना है और वहॉं चरित्र लगाना है।’ भाषा की यह त्रुटि यद्यपि हंसाने के लिये पर्याप्त है पर एक सवालिया निशान भी खींच जाती है। बच्चों के तो सिर्फ चरित्र प्रमाण-पत्र गिरे हैं, गुम हुए हैं, पर देश के नेताओं का चरित्र तो सचमुच गिर भी गया है और गुम भी हुआ है। जिन नेताओं ने चार सालों तक एक पार्टी विशेष की नीति-रीतियों को कोसा, वे ही नेता आज कुर्सी को हथियाने के लिये बाहर-भीतर “डील’ करते घूम रहे हैं। ऊपर से देखने पर तो लगता है कि हमारे नेता कितने उदार मन के हैं जो अपने विरोधियों को गले लगाना जानते हैं पर भीतर से देखें तो समझ आता है कि उनका सारा चरित्र स्वार्थ और कुर्सी की धुरी पर टिका है। आम आदमी अपने चरित्र और निंदा को लेकर कितना सतर्क रहता है, पर नेताओं को ना तो अपनी निंदा से डर लगता है और ना ही चरित्रहीनता से। हमारे नेता चिकने घड़े हो चुके हैं। कोई कटाक्ष, तिरस्कार या उलाहना हमारे नेताओं को न तो सताता है और न डराता है। वे किसी को भी धकिया सकते हैं, किसी को भी आलिंगनबद्घ कर सकते हैं, किसी के भी घर जाकर कुर्सी की भीख मांग सकते हैं। अब आप सोचिये, इतना गिरा हुआ चरित्र उठाने में कितने बरस लगेंगे?

एक बार की बात है कि नत्थू कई दिनों से बीमार था और बिल्कुल मरने वाला हो रहा था। एक दिन उसकी खाट के पास यमराज आया अर बोला, “ताऊ नत्थू! तूने तो सारी उम्र लोगों की भलाई की है पर अब चलने की तेरी बारी है, तूं बता हम तेरे लिये क्या करें? तेरी कोई आखिरी इच्छा हो वो बता।’ नत्थू तो हक्का-बक्का रह गया। किसी तरह सिटपिटाते हुए बोल्या, “वा मेरे यार! तूं आया भी तो किस टाइम या जब मेरी जान निकलने वाली हो रही है।’ फिर बोल्या, “महाराज, मुझे एक बार जापान घुमा दो अर जहाज में तो मैं बैठूं नहीं, बस यूं करो कि हमारे गांव से जापान तक की सड़क बनवा दो। हवाई जहाज में बैठे बाद तो मैं मरा ए निकलूंगा।’ यमराज बोल्या, “ताऊ! बुरा मान चाहे भला, ये सड़क बनवानी बेहद मुश्किल है। तूं किमें और मांग ले।’ एक बार तो नत्थू के जी में आया कि जब इसके किमें बस का ही नहीं है तो और किमें मांगन की भी टाल कर दे, पर फिर बोल्या, “महाराज! नेता जैसा दुनिया में और कोई नहीं है, पर ये नेता कती समझ नहीं आए। तूं यूं बता दे, नेता की जात है के चीज?’ यमराज बोल्या, “ताऊ! सड़क कितणी चौड़ी बनवाणी है?’

– शमीम शर्मा

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