चिंता पश्चिम की नकल के नतीजों की

आज जब भारत की उन्नति की चर्चा होती है तो बर्टेंड रसेल की याद आ जाती है। उन्होंने कहा था कि आने वाले समय में पूरब और पश्र्चिम की सभ्यताओं में एक ही अंतर रह जाएगा कि पूरब और भी अधिक पश्र्चिमी सभ्यता की तरह दिखेगा। आज भारत की प्रगति की चर्चा किन बातों में होती है? उन्हीं बातों में जिसे पश्र्चिमी देशों की बढ़त कहा जाता है: सेंसेक्स, बड़े महानगर, ढेरों पैसा और बेतहाशा भोगवाद, नई-नई कारें, एयरलाइंस, तकनीकी विकास, चुनावी लोकतंत्र आदि। हम समृद्घ भारतवासियों का मन खट्टा नहीं करना चाहते, न ही अकारण शिकायती बन रहे हैं। केवल ध्यान दिलाना चाह रहे हैं कि हमने लोकतंत्र, उन्नति, समृद्घि आदि के ठीक वही पैमाने अपना लिए हैं जो पश्र्चिमी सभ्यता के पैमाने हैं।

पश्र्चिमी लोकतंत्र के मूल तत्व पर विख्यात अमेरिकी विद्वान सैमुअल हंटिग्टन की सारगर्भित उक्ति पर विचार करें : थॉमस जेफरसन द्वारा प्रतिपादित “अमेरिकी विचार’ (द अमेरिकन ब्रीड) वस्तुतः अमेरिकी पहचान का सर्वाधिक महत्वूपर्ण तत्व है। यह विचार सत्रहवीं और अठारहवीं सदी में अमेरिका में जा बसने वालों की विशिष्ट एंग्लो-प्रोटेस्टेंट संस्कृति की उत्पत्ति था। इस संस्कृति के मूल तत्व थे: अंग्रेजी भाषा, ईसाइयत, मजहबी विश्र्वास, कानून के शासन की ब्रिटिश धारणा, शासकों की जिम्मेदारी, व्यक्ति के अधिकार और मतभेद रखने के प्रोटेस्टेंट मूल्य, काम की नैतिकता और यह विश्र्वास कि मनुष्य में यह योग्यता और यह उसका कर्त्तव्य भी है कि वह धरती पर स्वर्ग की रचना करे। हंटिग्टन ने यह भी कहा कि इस सिद्घांत का दूसरे देशों में प्रसार करना अमेरिकी विदेश नीति का एक प्राथमिक लक्ष्य होना चाहिए।

यह एक आधुनिक विद्वान के शब्दों में लोकतंत्र की धारणा है। इसके ईसाई-साम्राज्यवादी निहितार्थ स्वतः स्पष्ट हैं। हमारे देश के अधिकांश प्रभावी बुद्घिजीवी अमेरिकी-यूरोपीय लोकतंत्र के इन पूर्वाग्रहों से प्रायः अनजान हैं, इसीलिए वे यह सोचकर खुश होते हुए नेपाल का नाश देखते रहे कि वहां “लोकतंत्र’ आ रहा है! इसी मतिभ्रम में वे पश्र्चिमी देशों की भारत संबंधी नीतियों की भी सही समीक्षा नहीं कर पाते, उल्टे लोकतंत्र के नाम पर असंख्य ऐसी नीतियां या संस्थाएं बना डालते हैं जो हमारे हित में नहीं, और जिनका पश्र्चिमी संस्थाएं अपने स्वार्थ में दुरुपयोग करती हैं। तरह-तरह के मानवाधिकार आयोग, अल्पसंख्यक चिंता संबंधी कानून और संस्थान, सेक्स शिक्षा समेत शिक्षा में तरह-तरह के कुविचारों का प्रसार आदि अनेक कार्य केवल अंध-नकल में किए गए हैं। बिना यह देखे कि क्या हमारे समाज की परंपराएं, मान्यताएं और स्थितियां वैसी ही हैं जिनके संदर्भ में पश्र्चिम ने अपने वहॉं यह सब नियम या संस्थाएं बनाई हैं?

नेपाल या भूटान में लोकतंत्र आ रहा है, इस पर ताली बजाने से पहले पश्र्चिमी सभ्यता की अन्य विशेषताओं को भी समझना चाहिए। यूरोपीय सभ्यता कुछ इस तरह बनी है कि उसके संपर्क से अधिकांशतः दूसरी सभ्यताओं का नाश हो जाता है। अमेरिका, ऑस्टेलिया, न्यूजीलैंड, आीका के कई देशों में तो यह पिछली पॉंच सदियों में हुआ ही है। उससे पहले भी हुआ है। यदि यूरोपीय सभ्यता एवं उसके विचार और सोच-विचार के तरीके यूं ही हावी रहे तो संभव है कि भारतीय और दूसरी सभ्यताएं भी मूल अमेरिकी सभ्यताओं की तरह आने वाले समय में समाप्त हो जाएं। अपने आप में भी पश्र्चिमी लोकतंत्र त्रुटिहीन प्रणाली नहीं है। राज्यतंत्र का भारी विस्तार, अन्य सामाजिक संस्थाओं का अभाव या दुर्बल रहना, कानूनी और राजनीतिक प्रिायाओं का पैसे के बल पर भितरघात, स्वतंत्रता के नाम पर उच्छृंखलता, परिवार का क्षीण होना, व्यक्ति का एकाकी होकर टूटना, अयोग्य लोगों का सत्तातंत्र पर काब़िज हो जाना आदि अनेक व्याधियां उन लोकतंत्रों में देखी जा सकती हैं। स्वयं जॉर्ज बुश का रिकॉर्ड दिखाता है कि वे उस पद के योग्य नहीं थे जो उन्हें मिल गया। इसके अतिरिक्त देशहित के नाम पर दूसरे देशों में मनमाने हस्तक्षेप करना यूरोपीय लोकतंत्रों की अन्य कमी है जिसकी समुचित व्याख्या वे नहीं दे पाते।

पश्र्चिमी सभ्यता की इन कमियों के कारण ही गांधीजी ने कहा था कि भारत को अपना आत्मसम्मान लौटाने तथा एक स्वस्थ समाज बनाने के लिए वह सब पूरी तरह भूल जाना होगा जो उसने पिछले सौ वर्षों में अंग्रेज व यूरोप से सीखा है। यह अटपटा लग सकता है, किंतु इन बातों को गंभीरता से समझने का प्रयास करना चाहिए। गांधी भारतीय ढंग से रहते थे, भारतीय ढंग की बातें करते थे, किंतु उन्होंने यूरोप और भारत की परंपराओं, मानसिकता और व्यवस्थाओं को अच्छी तरह समझा था। उनसे अधिक इस अंतर को समझने वाले केवल श्री अरविंद ही थे। अपनी प्रसिद्घ पुस्तिका “हिन्द स्वराज’ में महात्मा गांधी ने भारतीय दृष्टि से समानता, सुख, समृद्घि, वैश्र्विक शांति-सद्भाव की अवधारणा बड़े सुंदर और प्रभावशाली ढंग से रखी थी। क्या आज भारत की उन्नति की जो वाहवाही हो रही है, उसमें उस अवधारणा का एक भी तत्व देखा जा सकता है? यदि हिन्द स्वराज को आधार मानें तो हमारे देश ने अनेक क्षेत्रों में दुर्गति की दिशा में प्रगति की है। तब यह कौन-सी मानसिकता है जो एक ओर महात्मा गांधी की जय-जयकार करती, उन्हें अतिरंजित महिमा-मंडित करती है, जबकि उनकी सभी मूलभूत शिक्षाओं, आकांक्षाओं को घूरे पर फेंक कर मुदित होती है?

यह मानसिकता है आत्मसमर्पण और हीनताबोध की। इसे सेंसेक्स की अथवा विदेशों में सफल भारतीयों की बढ़ती गिनती से नहीं छिपाया जा सकता। व्यापार और उद्योग हमारे राष्टीय जीवन के महत्वपूर्ण पक्ष अवश्य हैं, किंतु केंद्रीय तत्व नहीं हैं। केंद्रीय चीज है: सामाजिक सौहार्द व सुख-समृद्घि, संतोषपूर्ण जीवन एवं भाविक उल्लास, सांस्कृतिक वैभव, नैतिक श्रेष्ठता और आध्यात्मिक परिपूर्ति। ये वे बातें हैं जो युगों-युगों से भारतीय मनीषा ने ज्ञान और अनुभव से रेखांकित किया है। गांधी ने केवल उसे दुहराया भर था। इन बिंदुओं पर हम कहॉं हैं? हमारे समाचार-पत्रों की हेड-लाइनें इसकी दयनीय तस्वीर हमें रो़ज दिखाती हैं। हम अपनी सभ्यता तथा पहचान भूल रहे हैं। भारतीय सभ्यता हमेशा सत्य, अहिंसा, सबके लिए शांति और संयम की मान्यताओं पर टिकी है। यह उसका मूल स्वभाव कहा जा सकता है। आज हम इसे तज कर सब कुछ पश्चिमी तरीके का बनाने में लगे हैं। केवल राजनीतिक, आर्थिक संस्थाएं ही नहीं बल्कि आचरण, नैतिकता और चरित्र भी। अपनी सभ्यता-संस्कृति के मूलाधार छोड़ने को ही उन्नति, प्रगति और आधुनिकता कह रहे हैं। यह आत्मघाती प्रवंचना है।

लगता है कि गांधीजी से जो भूलें हुईं, उनमें एक यह भी थी कि समय के साथ वह अपनी क्षमता को अधिक कर आंकने लगे थे, और साथ ही उन्होंने अपने सहयोगियों समेत भारतीय उच्चवर्ग की मानसिक, वैचारिक गिरावट की गहराई को भी ठीक नहीं आंका था। जवाहरलाल नेहरू को अपना उत्तराधिकारी बनाना अन्य कारणों के अतिरिक्त इस कारण भी था। नेहरू उसी वर्ग के प्रतिनिधि थे जो मन से पश्र्चिमीकृत हो चुका था। पश्र्चिमी संस्थाओं, नारों और महानुभावों के प्रति नेहरू जी में भारी आकर्षण था। पर यह भी विरोधाभासी सत्य है कि नेहरू यूरोपीय मानसिकता और सच्चाइयों को ज्यादा नहीं समझते थे। इस प्रसंग में किसी विद्वान ने उनकी तुलना मुहल्ले के उस उत्साही बालक से की है जो सड़क पर बाजे-गाजे के साथ आने वाले हर जुलूम में शामिल हो जाता है। 1928 ई. में सोवियत रूस पर लिखी नेहरू की पुस्तक से लेकर 1964 तक प्रधानमंत्री के रूप में विदेश नीति, शिक्षा और विकास संबंधी उनके अंतिम वक्तव्यों तक इस कड़वे सत्य को परखा जा सकता है। इसलिए प्रथम प्रधानमंत्री के रूप में उन्होंने नए भारत को पश्र्चिमी दिशा दी। यह उससे नितांत विपरीत था जो भारतीय सभ्यता का स्वाभाविक पथ रहा है। आज हमारी कथित उन्नति और कई क्षेत्रों में घोर दुर्गति का एक मुख्य कारण पश्र्चिमी सभ्यता का अंधानुकरण ही है।

– शंकर शरण

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