जन्म से पूर्व ही – कहानी

indian-womenउस दिन मेरे पापा और हमारे परिवार के अन्य सदस्य बहुत प्रसन्न थे, जब मेरी मम्मी ने अपने गर्भवती होने की सूचना उन सब को दी थी। यहां तक कि मेरी दादी ने सब रिश्तेदारों को लड्डू भी बांटें, क्योंकि यह खुशखबरी दो सालों के लम्बे अन्तराल की निराशा के बाद मिली थी। दो साल विवाह को हो गये थे और गर्भवती न हो पाने की वजह से पहले मेरी मम्मी ने अच्छा-खासा तनाव झेला था। वह तरस गई थीं गर्भवती होने के लिये, क्योंकि जिस समाज में हम रहते हैं, वहां एक बांझ और संतानहीन स्त्री के लिये अच्छे विचार नहीं रखे जाते हैं।

जब तक एक विवाहिता अपने उर्वर होने का साक्ष्य न दे दे, उसे पर्याप्त सम्मान ही नहीं मिलता बल्कि उसका वैवाहिक जीवन भी खतरे में झूलता नजर आता है। जितनी जल्दी स्त्री मां बनती है, उसके परिवार में महत्ता का आंकड़ा ऊपर उठता जाता है और परिवार में उसका स्थान सुरक्षित हो जाता है। मेरे माता-पिता ने इस दिन की प्रतीक्षा में कोई कसर नहीं रख छोड़ी थी। अच्छे डॉक्टर्स और विशेषज्ञों को दिखाया और परामर्श लिया था। मंदिरों में प्रार्थनाएं कीं एक बच्चे को पाने के लिये, यहां तक कि तांत्रिकों के चक्कर में भी पड़े और वह सब किया, जो उनसे कहा गया। और अन्तत: वह दिन आ ही गया, जिसने सबको प्रसन्न कर दिया। खासतौर पर मेरी मम्मी को, जिसने न जाने कितनी रातें आंखों ही आंखों में काटी थीं। इन सब वजहों से ज्यादातर रिश्तेदार, विशेषत: मेरी दादी ने उन्हें बच्चा पैदा न कर पाने के लिये जिम्मेदार ठहरा कर न जाने कितना कुछ सुनाया था। और बस इस तरह मैं आस्तत्व में आया।

शायद अभी असली संसार में पहुंचने में बहुत समय बाकी था, पर मैं खुश था कि मैं परिवार में खुशी लेकर आया हूँ। जब तक मेरी मां ने अपनी उर्वरता का साक्ष्य नहीं दे दिया, उसे यह सम्माना प्राप्त नहीं हुआ था, जो कि उसे अब प्राप्त हो रहा था। वैसे मेरी मम्मी मुझे पाकर बहुत प्रसन्न थीं, किन्तु उन्हें जी मिचलाने, थकान और स्तनों में हल्के दर्द की शिकायत भी थी, जो कि आमतौर पर गर्भ स्थापित होने के लक्षण होते हैं। गर्भावस्था के दौरान बढ़ने वाले हारमोन्स की वजह से मेरी मम्मी सम्वेदनशील और मूडी हो गई थीं, कभी वह अत्यधिक प्रसन्नता अनुभव करतीं, कभी गहरे अवसाद में डूब जातीं। हर भावना बहुत सघनता से महसूस करतीं, एक पल वह खुशी-खुशी मेरे जन्म के बाद के प्लान्स बनातीं और अगले ही पल रोने लगतीं कि अगर वह मोटी और बदसूरत हो गईं, तो तब भी क्या मेरे पापा उनसे उतना ही आकर्षित रहेंगे! अगर वह इसी तरह मोटी होती रहीं और पहले जैसी खूबसूरत न रहीं तो! ये शंकाएं बहुत सहज और प्राकृतिक थीं, जिनसे हर गर्भवती स्त्री उलझती ही है। जहां भविष्य के प्रति वह उत्साहित थीं, वहीं अपने अन्दर आते शारीरिक बदलावों से वे घबरा भी रही थीं। वह चिन्तित थीं कि वो मोटी हो रही हैं।

यह परिस्थिति पापा के लिये कठिनाई पैदा कर रही थी। उनकी ऐसी मानसिक स्थिति से पापा स्वयं असमंजस में थे। वे उन्हें समझा पाने में असमर्थ थे। पापा उनके आंसुओं से घबरा कर ऐसी स्थिति से बचने के लिये अक्सर उन्हें उपेक्षित कर देते, जबकि उन्हें इस समय स्नेह की आवश्यकता थी। कभी-कभी वे सोचतीं कि मेरे पति मुझसे प्यार नहीं करते हैं और सहयोग तो बिल्कुल ही नहीं करते। किन्तु कुलमिला कर दोनों बहुत खुश थे। मेरी दादी भी उतना ही खुश थीं। अब वे मेरी मम्मी के साथ रहने में आनन्द महसूस करतीं और उनसे अपने अनुभव बांटतीं, जैसे कि मेरी बुआ जी के जन्म की बातें। बुआ जी पापा के भाई-बहनों में सबसे बड़ी थीं। मेरी दादी ने मम्मी को कहा कि अब उन्हें काम कम करना चाहिये आराम ज्यादा। पहले तीन महीनों में ज्यादा आराम करना चाहिये और क्योंकि गर्भावस्था के ये पहले तीन महीने बड़े नाजु़क होते हैं। आजकल दादी बड़ी अच्छी हो गईं थीं, मम्मी के प्रति हमेशा सहयोगात्मक रवैय्या रखतीं। अब तक मम्मी ने भी समझ लिया था कि शरीर और दिमाग एक ही हैं, गर्भावस्था में शरीर में जो बदलाव आ रहे हैं, उनसे भावनात्मक बदलाव आएंगे ही। गर्भावस्था का प्रभाव जो उनके मानस पर पड़ा था, उससे उन्हें भावनात्मक उतार-चढ़ावों को नियंत्रित करने में सहायता मिली।

सब कुछ बहुत अच्छी तरह से चल रहा था। मेरे पापा एक बहुत सुन्दर से बच्चे का पोस्टर लेकर आये और उन्होंने उसे हमारे शयन कक्ष की एक दीवार पर लगा दिया। मेरी दादी ने एक छोटा-सा आसमानी रंग का कार्डिगन बुनना शुरु कर दिया और नन्हीं बूटीज भी मेरे लिये बना लीं। मेरे चाचा मेरे लिये खिलौने लेकर आए, एक बंदूक और कुछ और खिलौने। हमारा कमरा छोटे-छोटे खिलौनों, प्रॅम आदि से भर गया था। मैं स्वयं भी बहुत खुश था, अपनी मां के गर्भ में पलता हुआ। मैं आसपास के वातावरण के लगातार सम्पर्क में था। स्वाद और महक की प्रतििाया में मैं अपनी पसंद-नापसंद को अचानक हिलडुल कर व्यक्त करता। तेज प्ऱकाश, शोर, दबाव और पीड़ा की प्रतििाया को भी मैं अपनी बचाव की मुद्राओं में व्यक्त करता था, जबकि संगीत सुन कर मैं या तो जोर से पैर चलाता या चुपचाप आराम से सुना करता। हालांकि मैं बहुत सारी अवरोधक परतों के बीच था, जो कि मुझे बाहर के वातावरण से सुरक्षित रखे थीं – एमीनियोटिक द्रव्य, भ्रूणीय परतें, गर्भाशय और मां का उदर। मैं ध्वनियों, सम्वेदों और गति के उत्प्रेरक घेरों में सिमटा था।

जब भी मैं हाथ-पैर चलाता या जब मां के गर्भाशय तथा मेरी धड़कनों में हरकतें बढ़ जातीं, तब मम्मी पापा को अपना अनुभव बताया करतीं। अपनी मां के सान्निध्य में मैं गर्भ में बढ़ रहा था।

तब एक दिन मेरे पापा की बहन यानी मेरी बुआ जी ढेर सारे बच्चों के सामान के साथ आईं, जो कि निश्र्चित रूप से मेरे लिये थे। उन्होंने मेरी मम्मी को सलाह दी कि वे गर्भाशय का अल्टासाउण्ड टेस्ट अवश्य करवायें। किन्तु मेरी मम्मी को तो कोई समस्या नहीं थी। वे अपनी महिला चिकित्सक से उनकी राय के अनुसार नियमित चैकअप करवाती रहीं थीं। अत: उन्होंने बुआ जी को कहा कि उनकी डॉक्टर ने उन्हें ऐसी कोई सलाह नहीं दी है। फिर बुआ तो चली गईं, किन्तु वे दादी, के दिमाग में सोनोग्राफी करवाने की बात भर गईं। दादी, मम्मी-पापा पर पास ही के एक क्लीनिक चलने के लिये दबाव डालने लगीं, क्योंकि अब यह टेस्ट हमारे छोटे-से गांव में भी उपलब्ध हो गया था। दादी के दबाव में आकर पापा मेरी मम्मी को सोनोग्राफी के लिये ले गये। मम्मी का दिल आशंकाओं से धड़कने लगा, साथ ही मेरा भी। सोनोग्राफी करने वाला तकनीशियन मेरी मम्मी को अन्दर लेकर गया। और मम्मी के गर्भ का जहां मैं था, अल्टासाउंड स्कैन हुआ। फिर हम सब डॉक्टर से सलाह लेने की अपनी बारी के इंतजार में क्लिनिक की लॉबी में जाकर बैठ गये।

मूलकथा – रितेश झाम्ब

अनुवाद – मनीषा कुलश्रेष्ठ

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