जीते लकड़ी मरते लकड़ी, देख तमाशा लकड़ी का भजन

जीते लकड़ी मरते लकड़ी, देख तमाशा लकड़ी का।
दुनियाँ वालों तुम्हें दिखाये, ये जग सारा लकड़ी का॥ टेर ॥
पैदा हुआ था जिस दिन देखो, पलँग बिछा था लकड़ी का।
तुझे झूलने को मँगवाया, वो भी पालना लकड़ी का॥ 1 ॥
खेल खिलौने थे लकड़ी के, हाथी घोड़ा लकड़ी का।
जिसे पकड़ कर चलना सीखा, वो गाडूला लकड़ी का॥ 2 ॥
पढ़ने चला लकड़ी की तख्ती और कलम बनाया लकड़ी का।
गुरुजी ने जब भय दिखलाया, वो भी ढण्डा लकड़ी का॥ 3 ॥
पढ़ लिखकर शादी को चला जब, रेल का डब्बा लकड़ी का।
सुसरे जी के द्वारे देखा, वो भी तोरण लकड़ी का॥ 4 ॥
जिस पटड़े पर खड़ हुआ था, वो भी पटड़ा लकड़ी का।
आगे जा आँगण में देखा, थम्ब रूपा था लकड़ी का॥ 5 ॥
शादी कर कर घर को आया, डाँव भूल गया छंकड़ी का।
अब तो केवल फिकर लगी है, लूण मिर्च और लकड़ी का॥ 6 ॥
वृद्ध भये जब चलने लागे, लिया सहारा लकड़ी का।
माया जाल में ऐसा फँसग्या, जैसे जाला मकड़ी का॥ 7 ॥
अन्त समय जब चलने लागा, डोला बनाया लकड़ी का।
शमशान में जाय उतारया, वो भी चैतरा लकड़ी का॥ 8 ॥
कहत कबीर सुनो भई साधु, माला फेरो लकड़ी का।
पाँच पँचों ने फूँक दिया है, लेकर सहारा लकड़ी का॥ 9 ॥

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