जीवन गीता

मनुष्य जन्म लेने के साथ ही रिश्तों के बंधन में बंध जाता है। उसी परिवेश में बंधु-बांधव, इष्ट मित्र तथा पूरा परिवार उससे जुड़ जाता है। उस नियति के जुड़ाव को स्वीकार कर वह सहयोग, सहायता एवं अपनापन ढूंढता हुआ सदा के लिए निश्र्चिंत हो जाना चाहता है। उसे हमेशा इंतजार रहता है कि मेरे रिश्तेदार मुझसे दो मीठे बोल बोलकर मुझे आनंद की अनुभूति कराएं। इससे मेरा मन प्रसन्न हो जाएगा, मगर जब उनकी बेरुखी, परायापन देखा जाता है और सोच से उल्टा देखने को मिलता है, तब मन में ऐसी गहरी पीड़ा जन्म लेती है, जो आगे जाकर कुंठा व तनाव बन जाती है। वह निराश मन को इस प्रकार आहत व निर्बल कर देती है, जिससे व्यक्ति कुछ भी करने व सोचने के काबिल नहीं रहता। इसलिए ़जरूरत है अपने आपको तटस्थ रखने तथा यथार्थ में जीने की।

किसी की थोड़ी-सी प्रशंसा में फूल जाना और आलोचना में उदास या दुःखी हो जाना निर्बल मन के विकार हैं। जो व्यक्ति छोटी-मोटी बातों में या छोटे-मोटे कार्य संपादन में औरों का मोहताज बनकर जीवन जीता है या किसी के भरोसे रहकर स्वयं से टूट जाता है या फिर प्रत्येक कार्य संपादन में औरों की प्रतीक्षा में बैठा रहता है, वह कुछ भी नहीं कर सकता। अपनी प्रतिभा को विकसित नहीं कर सकता। स्वयं की क्षमताएं उस तनाव व असंतुलन में ही खो देता है। फिर तो वह शिशु की भांति मॉं की गोद से उतरकर बिना संघर्ष हरियाली ही हरियाली चाहता है, मगर हरियाली मिलती नहीं है। इस धरती पर कई लोग ऐसे भी होते हैं, जिनको किसी का भी सहारा नहीं मिलता। परिवार का समस्त दायित्व खुद पर आ जाता है। ऐसी परिस्थिति ही आदमी की कसौटी होती है और इंसान के धैर्य की परीक्षा होती है, मगर मजबूत मनोबल वाले लोग अपना रास्ता ढूँढ ही लेते हैं।

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