तला़क ही आ़जादी का दरवा़जा नहीं!

divorce-is-not-the-answerउस दिन आभा ऑफिस से घर आयी तो झल्ला कर रह गई। रात के लगभग ग्यारह बज रहे होंगे। खा-पीकर सभी आराम से सो रहे थे। पतिदेव का तो कुछ कहना ही नहीं। जनाब निश्र्चिंत हो पलंग पर ऊँघ रहे थे। उसने ननद के बिस्तर के नजदीक आकर धीमी आवाज में पूछा, “शीला, किचन की चाबी कहॉं है? मेरे लिए भी खाना बनाया है न?’

“किसके पास इतनी फुर्सत है। तुम ऑफिस में गुलछर्रे उड़ा कर आधी रात को हर रोज आओ और हम लोग…’

आभा की आँखों में आँसू भर आये। पति के कमरे में आयी तो उसने भी दो खट्टी-मीठी बातें सुनाईं। एक तो ऑफिस के काम से थकी-मांदी, दूसरे, बसों में धक्के खाकर घर आयी तो चारों तरफ से कड़वी और दिल को जला देने वाली बातों ने आभा को तोड़ दिया। पति ने व्यंग्यात्मक लहजे में जब इतना तक कह दिया कि “आभा, ऑफिस के दोस्त-यारों ने तुमसे बातें कर अपना समय पास किया और किसी होटल में ले जाकर तुम्हें खिलाया नहीं?’

“शट अप…!’ आभा के मुख से यकायक चीख-सी निकल पड़ी।

प्रायः हम सुनते हैं कि पति-पत्नी में सिद्घांतों को लेकर अथवा अपनी जरूरतों को लेकर झगड़े हुए और झगड़े समाप्त होने की दूसरी सुबह उन दोनों की जबान पर एक जानलेवा शब्द “तलाक’ उभर आया। जिद और नासमझी के आवरण में रहकर झगड़े करना आसान तो है, लेकिन इससे जो जहर की कंटीली झाड़ियॉं मन की धरती पर उग आती हैं, उसकी जड़ से कटाई करनी शायद मुश्किल ही नहीं, असम्भव भी है। जोश में आकर या आस-पड़ोस की नकल कर अति आधुनिक पति या अति आधुनिका पत्नी अपनी “बात’ को ऊपर रखने के चक्कर में शायद अपने भीतर के अहम् से समझौता नहीं कर पाते और यहीं से शुरू होता है, “तलाक’ जैसी छूत की बीमारी का उनके मन और तन पर आामण।

झगड़े होने के कारण एक नहीं अनेक हैं। मेरे पड़ोस में तो एक परिवार ऐसा है जो अकसर इस बात पर झगड़ता रहता है कि “कमाऊ मियां-बीबी की आमदनी पर अधिक अधिकार फलां का नहीं मेरा हो।’ बहू को पति के परिवार का कोई सदस्य (सास, ननद आदि) परेशान करता है या पत्नी ने आरंभ से ही कल्पना की हो कि वह पति के साथ अलग रहेगी और जब वह कल्पना साकार नहीं हो पाती अथवा अन्य कोई भी सपना जिसे विवाह से पूर्व लड़की ने संजोया हो और किसी भी हालत में वह पूरा होता नजर न आता हो, तो वह कुंठा की शिकार होती है और यही कुंठा झगड़े को जन्म देती है। विवाहित दम्पति को यह जरूर सोचना चाहिए कि सपने अक्षरशः पूरे नहीं होते। सपनों की मायावी दुनिया से बाहर आकर आपको यथार्थ के धरातल पर पॉंव रखकर “समझौते’ के साथ जीवन जीने की बात सोचनी चाहिए।

ऐसे छोटे-मोटे झगड़ों की सीढ़ियॉं चढ़कर पति-पत्नी तलाक के दरवाजे तक पहुँचते हैं। यह विषम एवं विकट स्थिति खलती भी है तो सबसे पहले पत्नी को ही। उसे ही सबसे पहले अहसास होता है कि सब कुछ खत्म हो गया। संबंधों की नाजुक डोर भयंकर विस्फोट के साथ टूट गयी और वह बेचारी अबला अकेली तो थी ही, अब और अकेली हो गयी।

हमारे पड़ोस में एक तलाकशुदा खन्ना साहब हैं। उनकी ही बातों को यहां परोस रहा हूं। “न जाने कब यह सब हो गया? किसी ने जबर्दस्ती तलाकनामे पर हस्ताक्षर करवा दिया शायद। इस आंधी को तो रोका जा सकता था लेकिन मेरे अन्दर छुपे “पुरुष’ ने मुझे कांटों की सेज पर बिठा दिया। शादी से पहले मैंने कभी ऐसा सोचा तक भी नहीं था।’

खन्ना साहब अपने किये पर अब पछता रहे हैं। वास्तविकता यह है कि तलाक के बाद घर आई लड़की या तो मां-बाप के लिए बोझ बन जाती है या जीवनभर के लिए एक उपेक्षिता बनकर रह जाती है। ठीक यही हाल तलाकशुदा पुरुष का भी होता है। घर-समाज और उसके भीतर का पुरुष जीवन को दीमक की तरह चाट जाता है, यानी वह एक छुतहा (कुल-समाज से निष्कासित) का जीवन जीने की बात सोचकर ही टूट जाता है। एक सर्वेक्षण के अनुसार तलाक हो जाने के बाद अधिकांश पति-पत्नियां कुछ महीने बीतने के बाद ही पछताने लगते हैं और एक-दूसरे के पास जाने के लिए अन्दर-ही-अन्दर छटपटा उठते हैं अर्थात “समझौता’ करने को तैयार दिखते हैं। तलाक से पूर्व जिस समझौते को वे महज एक “कायरता’ का नाम देकर टाल देते रहे, तलाक के बाद उन्हें समझौते की सुध भी आती है और तब समझौते में बिल्कुल ही कायरता नजर नहीं आती। तलाक के मामलों से निपटने वाले वकील भी इस तथ्य की पुष्टि करते हैं। पुरुष अन्दर-ही-अन्दर घुटते रहते हैं लेकिन तलाकशुदा पत्नी को फिर दुबारा समाज के दबाव डालने पर भी स्वीकार नहीं करते। उनका क्या, कहीं-न-कहीं शादी कर लेंगे। लेकिन तलाकशुदा नारी की त्रासदी का कहीं अंत नहीं। हमारा समाज भी तो इतना उदार नहीं कि तलाकशुदा लड़की को अपना ले।

नारी एक परित्यक्ता का जीवन जी कर भला सुख-चैन की धूप में बैठ सकती है? कदापि नहीं। सारी जिन्दगी अकेली रहना उसके लिए कितनी दुखदायी प्रिाया होती है, यह तो वही बता सकती है। शारीरिक आवश्यकताओं की पूर्ति न होने पर कई बार वह विक्षिप्त-सी हो जाती है, लेकिन समाज यह कहकर चुप हो जाता है कि बेचारी के दिल पर सदमा लगा है। धीरे-धीरे सब ठीक हो जायेगा।’ कभी-कभार तो ऐसे भी केस आते हैं कि “अपनी ही तलाकशुदा या विधवा बेटी का बाप ने गला घोंट दिया।’ जिसे अपने स्नेह के आंसू से सींचा, विवाह किया, पर परित्यक्ता की चादर में आने पर आखिर बाप ने उसी की निर्मम हत्या क्यों की? इस सबका सीधा-सादा जवाब यही है कि तलाकशुदा बेटी का बाप सामाजिक प्रवंचना का शिकार होकर टूट जाता है। वह कहीं न कहीं अपनी बेटी को ही दोषी समझने लगता है और सबसे अच्छा तरीका उसे यही सूझता है।

भला ऐसे समाज से कोई इतनी जल्दी कैसे निपट सकता है? इन बातों का कुल मिलाकर अभिप्राय यह कदापि नहीं कि पति को दाम्पत्य जीवन में ऊधम मचाने की छूट दे दी जाए। आजादी छिन्न-भिन्न हो गयी है तो पत्नी अदालत की शरण में न जाये और न ही हम यह कहना चाहते हैं कि कोई पति अपनी दुश्र्चरित्र पत्नी से अथवा अन्य ठोस वजहों के बावजूद तलाक न ले। अब तक हमने जिन बिन्दुओं को छुआ है, हमारी भरसक कोशिश यही रही है कि आप अपनी जिद, तुनकमिजाजी और झूठे दर्प (अहं) के कारण अपने पारिवारिक जीवन को नाहक न उजाड़ें। किसी भी पति-पत्नी के लिए आदर्श स्थिति वह होती है जो आम समस्याओं को खुद सुलझाकर सुखद जीवन जीने की बात सोचते हैं।

तलाक ही एक ऐसा कोई बंद दरवाजा नहीं जिसे खोलकर आजाद हुआ जाए और अपने सुखी होने का सपना साकार होता माना जाये। रिश्ते तोड़ना तो बहुत आसान है, लेकिन टूटने के बाद जोड़ना मुश्किल ही नहीं, असम्भव भी है। महज अपने-अपने सिद्घांतों और अधिकारों के द्वंद्व में आकर तलाक के दरवाजे पर दस्तक देना “जानलेवा’ ही नहीं अपितु पारिवारिक रूप से एक गुनाह भी है। बिना किसी ठोस आधार के चन्द तकरारों के माहौल में तलाक का फैसला कभी न लें। ज्यादा माहौल खराब लगे तो कुछ दिनों के लिए मायके चली जाएं ताकि आप दोनों का मूड नीट एंड क्लीन, स्थान परिवर्तन के बाद हो जाये और आप तलाक जैसी संाामक बीमारी से बाल-बाल बच जायें या बची रहें।

 

– सुधीर भटनागर

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