तू नहीं तो तेरा मजाक ही सही!

कवि सम्मेलन पूरे शबाब पर था। एक बुजुर्ग शायर पढ़ रहे थे – आग भी हैरान थी शायद ये मंजर देखकर, जब उसे तहजीब दां घर की दुल्हन तक ले गये। हम इधर उसके दुपट्टे को रफू करते रहे, वो उधर, शेरों को उसके तन-बदन तक ले गये।

तालियों की गड़गड़ाहट के बीच वे माइक से हटे तो संचालक ने “तन-बदन’ वाली उनकी पंक्ति को तीन-चार बार दोहराया और बोला, “”बुजुर्गवार ने तन-बदन की चर्चा छेड़ दी है तो लीजिए, मैं एक तन-बदन वाली को ही बुला देता हूँ। जी भर कर दीदार कीजिए। उसकी कविताओं का मजा लीजिये।” वह शरारती हो उठा। फिर तो एक सुदर्शना कम अल्पवसना कवियित्री कम अभिनेत्री अपनी जगह से उठी और इठलाते हुए जलवा बिखेरने लगी। थोड़ी ही देर में उसने श्रोताओं कम दर्शकों को मंत्रमुग्ध करके रख दिया। उसका जादू लोगों के सिर चढ़ा तो इतनी जोर-जोर से बोलने लगा कि कविता के बोल “गोल’ से हो गये। वह हटी तो श्रोताओं कम दर्शकों को झटका-सा लगा। उनमें से कई उसे ही फिर से बुलाने के लिए नयी फरमाइशें लेकर आगे आ गये। लेकिन इससे पहले कि उनके सिरचढ़ा कवियित्री का भूत उतरता, संचालक ने एक वरिष्ठ कम गरिष्ठ कवि को आवाज दे दी, तब तक कवियित्री के रूप-लावण्य की प्रशंसा में काफी समय सार्थक कर चुके एक सज्जन की भावनाएँ इससे आहत होकर रह गयीं। वे खुद को रोक नहीं सके और कह उठे, “”इस खूसट संचालक को रस-परिवर्तन का सिर्फ यही तरीका सूझा कि पहले आग दहका दी जाए, फिर उस पर पानी डाल दिया जाये।” दूसरे सज्जन ने उन्हें बताया, “”इस कवि से पुरानी दुश्मनी होगी संचालक की। हूट करना चाहता होगा इसे।”

लेकिन वरिष्ठ कम गरिष्ठ कवि तो संचालक से ज्यादा घाघ निकला। अपने लटकों-झटकों से ऐसा समां बांधा कि कवियित्री के मोहपाश में जकड़े लोग भी उसकी जय-जयकार करने लगे। उपयुक्त अवसर पाकर कवि ने पढ़ा, “”टॉफियों के लिए बच्चे अभी तक जागते होंगे। तुझे-ए-मुफलिसी कोई बहाना ढूंढना होगा।” और कवि सम्मेलन को लूट लिया। काफी देर तक तालियां बजती रहीं और जब वे थमीं तो “”वाह क्या बात है।” “”कितना संत्रास है।” “”मुफलिसी का कैसा गजब का चित्रण है।” और “”शायरी इसको कहते हैं।” – जैसी टिप्पणियों का दौर चल पड़ा। कवि ने तिरछी निगाहों से संचालक की ओर देखा तो बेचारे संचालक पर घड़ों पानी पड़ गया।

मगर रामपलट जी को जानें क्या सूझी कि उन्होंने मेरा हाथ पकड़कर खींचना शुरू कर दिया। मैं समझ नहीं सका कि यह उन्हें अचानक क्या हो गया, अभी तक तो अच्छे-भले थे।

उन्होंने कहा, “”अब मैं यहां पल भर भी नहीं रुकने वाला। यहां कविता के मजाक के साथ ही मुफलिसी का भी मजाक शुरू हो गया है। इस ढोंगी कवि को पता ही नहीं कि मुफलिसी क्या चीज होती है? चलो, तुम्हें ऐसे मुफलिसों के बीच ले चलूं,जिनके बच्चे टॉफी का नाम तक नहीं जानते, सपनों में भी उसे नहीं देखा।” मैं उठा और उनके साथ मुफलिसों की बस्ती पहुंचा तो कवि सम्मेलन की सारी मस्ती उतर गयी। भूख और गरीबी का ऐसा नाच देखने के लिए जितने मजबूत कलेजे की जरूरत थी, वह कम से कम मेरे पास नहीं था।

घर पहुंचा तो मन बहुत विचलित था। खबरें सुनने के लिए टी.वी. चालू किया तो वहां भी एक सुदर्शना कम अल्पवसना से ही साक्षात्कार हुआ। पल भर को तो मुझे लगा कि अपनी देह के वजन से ज्यादा भारी गहनों और सौंदर्य प्रसाधनों से लदी यह युवती उसी कवियित्री कम अभिनेत्री की बड़ी या छोटी बहन होगी। वह महंगाई के बारे में बात कर रही थी, “”हमारा तो बजट ही गड़बड़ा कर रह गया है। सब्जियों की खरीददारी हमने आधी कर दी है और फलों की एक तिहाई। क्या करें, मजबूरी है। महंगाई मार डाल रही है।” रामपलट जी फिर उत्तेजित हो उठे, “”झूठी कहीं की। थोड़ी तो शर्म कर।” फिर मुझसे बोले, “”इसे पहचानता हूँ मैं। इसके अफसर पति और विधायक भाई को भी। भ्रष्टाचार चौकीदारी करता है इसके घर पर और महंगाई व मजबूरी के लिए प्रवेश निषेध का बोर्ड लटका हुआ है वहॉं।”

मैंने उन्हें बिना कोई जवाब दिये टी.वी. बंद कर दिया। रामपलट जी को झूठी लगने वाली अल्पवसना मुझे स्वार्थी भी लगने लगी थी। उसे अपने बजट की फिा तो थी मगर उन मुफलिसों की नहीं, जिन्हें महंगाई ने इस लायक छोड़ा ही नहीं है कि वे अपना बजट बना सकें।

अब आप ही बताएँ वह मुफलिसों का मजाक उड़ा रही थी या महंगाई का? महंगाई तो पहले से ही ऊँची उड़ान पर है। सो, मुफलिसों का ही उड़ा रही होगी। बेचारे मुफलिस खुद तो उड़ ही नहीं सकते, मजाक ही उड़ ले उनका।

– कृष्ण प्रताप सिंह

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