तेजाब हमलों पर सार्थक पहल

सरकार ने सुप्रीम कोर्ट को बताया है कि उसने तेजाब फेंकने के अपराध के खिलाफ सख्त स़जा वाले कानून में संशोधन का मसविदा तैयार कर लिया है तथा उस पर सभी राज्यों की मंजूरी भी ले ली है। मालूम हो कि गत वर्ष सुप्रीम कोर्ट में एक नाबालिग लड़की पर तेजाब फेंकने की घटना की सुनवाई चल रही थी। इसी दौरान सुप्रीम कोर्ट ने इस बर्बर अपराध पर चिन्ता व्यक्त करते हुए राष्टीय महिला आयोग से इस पर रिपोर्ट मांगी थी। आयोग ने जो रिपोर्ट सौंपी थी उसमें बताया था कि कैसे हमारे देश में यह अपराध बढ़ रहा है तथा पीड़ित की पूरी जिन्दगी बर्बाद कर देता है। आयोग ने यह भी स्वीकारा था कि मौजूदा कानूनी प्रावधान अपर्याप्त हैं। वर्तमान में आईपीसी की धारा 326, जो गम्भीर रूप से घायल करने के मामले में लागू होती है, उसके अन्तर्गत यह केस दर्ज होता है। आयोग ने विधि आयोग से प्रभावी कानून बनाने पर विचार करने के लिये सिफारिश की थी। राज्य सरकारों ने धारा 326 के साथ 326-अ जोड़ने की बात कही है जिसमें तेजाब फेंकने वाले को न्यूनतम स़जा सात साल की हो। लेकिन महिला आयोग ने न्यूनतम स़जा 10 साल और अधिकतम उम्रकैद की सिफारिश की है तथा पीड़ित को एक लाख रुपये मुआवजे की बात सुझायी है। खुले बाजार में तेजाब की बिाी पर रोक लगाने की भी सिफारिश की गयी है। लेकिन इसके लिये राज्य सरकारें सहमत नहीं हैं।

तेजाब खुले बाजार में उपलब्ध हो या उसे नियन्त्रित किया जाय, इसके लिये दोनों ही प्रकार की दलीलें दी जा सकती हैं। अपराधों की बढ़ती घटनाओं पर रोक के मद्देनजर बिाी को नियन्त्रित करना भी एक उपाय हो सकता है। लेकिन हमारे देश में गैर कानूनी चीजें गैर कानूनी ढंग से ही उपलब्ध भी होती हैं यानि इस्तेमाल करने वाला किसी तरह से जुगाड़ कर ही लेता है। इसलिये प्रमुख मुद्दा यही बनता है कि महिलाओं के खिलाफ किसी भी प्रकार की हिंसा ही क्यों हो? यदि किसी को असहमति हो या किसी को किसी का व्यवहार मान्य न हो तो भी हिंसा की इजाजत नहीं हो सकती है। तेजाब फेंकने के अधिकतर कारणों में यही पाया गया है कि लड़की द्वारा प्रेम या शादी से इन्कार या शक होता है। कुछ मामले में सम्पत्ति विवाद भी होता है। हाल ही में 8 जुलाई को साहिबाबाद इलाके में रात में अपनी विकलांग मॉं के साथ घर लौटते समय दो लड़कियों पर कुछ युवकों ने तेजाब फेंक कर उन्हें बुरी तरह जख्मी कर दिया। शायद ये लड़के इन लड़कियों के साथ प्रेम संबंध बनाना चाहते थे और लड़कियों की तरफ से ऐसा नहीं करने पर ऐसी बेरहम स़जा मिली उन्हें। कई बार नाबालिग बच्चियों से अपनी इच्छापूर्ति न होने पर भी असामाजिक तत्व तेजाब फेंक कर उस लड़की का जीवन बरबाद कर देते हैं।

यह बात रेखांकित करने वाली है कि एसिड हमले की परिघटना सिर्फ भारत तक सीमित नहीं है। भारतीय उपमहाद्वीप के पाकिस्तान, बांग्लादेश जैसे मुल्कों के अलावा आसपास के कई देशों से इस किस्म के समाचार मिलते रहते हैं। एक अध्ययन के मुताबिक पिछले कुछ वर्षों में बांग्लादेश में एसिड फेंकने की घटनायें बढ़ी हैं। 90 के दशक के पहले के सालों में जहॉं ऐसे हमलों की संख्या दर्जन से पचास के बीच थी, वहीं बाद के वर्षों में यह आंकड़ा तीन सौ के करीब जा पहुँचा। और जहॉं तक स़जा दिए जाने का सवाल था तो ऐसी स्थितियां न के बराबर थीं। वहॉं सिाय सामाजिक संगठनों के मुताबिक एसिड फेंकने के निम्न कारण दिखते हैं : शादी से इनकार, दहेज, पारिवारिक झगड़ा, वैवाहिक तनाव, जमीन विवाद या कुछ राजनीतिक कारण।

यह पाया गया है कि तेजाब न सिर्फ चमड़ी जलाता है बल्कि हड्डियों तक को गला देता है तथा कमजोर कर देता है। देखने-सुनने की क्षमता भी पीड़िता खो बैठती है। केवल यही नहीं, शरीर की प्रतिरोधक क्षमता भी यह खत्म कर देता है, लिहाजा कोई भी संामण तथा बीमारी उसे जल्दी पकड़ लेती है जो जानलेवा भी हो जाती है। तेजाब के चपेट में आये लोगों का इलाज हर जगह, हर अस्पताल में सम्भव नहीं होता है तथा वह बहुत महंगा भी होता है। इसके साथ सबसे अधिक चिन्ता की बात यह है कि पीड़ित को हमारे समाज का तिरस्कार भी झेलना पड़ता है। वह देखने में चूंकि असामान्य तथा “बदरंग’ हो जाते हैं इसलिये सामान्य कहे जाने वाले लोग उनसे सामान्य संबंध नहीं बनाते हैं। वे अपने पूरे परिवार से तथा समाज से उपेक्षित व्यक्ति बन जाते हैं। और जिन्दगी का पूरी तरह से अन्त होने का इन्त़जार करने लगते हैं।

खुशी की बात है कि तेजाब की घटनाओं से पीड़ितों ने आपस में मिलकर एक सामूहिक मंच बनाने की कोशिश की है। मुम्बई तथा बेंगलूर में बाकायदा तेजाब पीड़ितों ने अपना संगठन भी बनाया है और वे अपने अधिकारों के लिए तथा एक-दूसरे की सहायता करने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। उनकी एकता का आधार और कुछ नहीं सिर्फ हमले का एक प्रकार से शिकार होना है। मुम्बई का “बर्न सर्वाइवर ग्रुप ऑफ इण्डिया’ ऐसा ही एक समूह है। इसी समूह की 22 वर्षीय अपर्णा प्रभु है जो खुद ऐसे हैवानी हमले की शिकार है, उसकी एक आँख भी चली गयी है। एक अन्य पीड़ित शीरीं ने कहा कि हम बहुत दुःखी होते हैं जब बच्चे हमें देख कर डर जाते हैं और चिल्ला कर भागने लगते हैं। इस प्रकार हम देखते हैं कि यह अपराध पूरी मानवता के सामने एक भयावह चित्र खींचता है। ऐसे में इस अपराध पर नियन्त्रण के लिये सख्त कानूनी उपायों का आना स्वागत योग्य है। किन्तु अभी भी समाधान सिर्फ इतने से नहीं निकलेगा। हमें यह भी विचार करना होगा कि आखिर स्त्री समुदाय के खिलाफ ऐसे अपराध करने का अधिकार किसी को हासिल कैसे हो सकता है? क्यों ऐसी मानसिकता बनी जिसमें पुरुष औरत को अपने मातहत, अपनी इच्छा के अऩुरूप पाना चाहता है और वह इच्छा किसी भी तरह से पूरी करना चाहता है। अस्वीकार को सहन करना उसकी मजबूरी क्यों नहीं बन पाती? कुल मिलाकर हम देखते हैं कि समाज में कैसे तरह-तरह की हिंसा परत-दर-परत मौजूद है। उसमें तेजाब फेंकने की हिंसा को सबसे ाूरतम हिंसा के दर्जे में रखा जा सकता है। इसमें जीते जी व्यक्ति अपने जीवन निर्वाह की क्षमता खो बैठता है।

हाल ही में एक दैनिक पत्र में छपे एक आलेख में ऐसे हमलों को लेकर समाज में आ रही जागृति के बारे में लिखा गया था और दो ऐसे मामलों का भी जिा किया गया था, जहॉं अपराधियों को जेल जाना पड़ा। बीस वर्ष की हसीना हुसैन पर 1999 में उसके पूर्वनियोक्ता जोसफ रोडिक्स द्वारा किए गए हमले का मामला समूचे राज्य में चर्चित हुआ था। पांच साल बाद 18 सर्जरी एवम 6 लाख रुपये खर्च किए जाने के बाद भी हसीना पूरी तरह ठीक नहीं हुई थी। उसके हाथों की उंगलियां जुड़ गयी हैं। आँखों की रौशनी भी पूरी तरह लौटी नहीं थी। उसका हमलावर जोसेफ पांच साल की स़जा काट कर एवम तीन लाख रुपए जुर्माना देकर लौट आया है। लेकिन लेखिका अम्मू इस बात को रेखांकित करती हैं कि कम-से-कम इस मामले में स़जा तो हुई। इस जीत के आलोक में हम अपेक्षा कर सकते हैं कि समाज में जागरूकता बढ़ेगी, अपराधियों पर शिकंजा कसेगा तथा कानून भी कारगर होगा और धीरे-धीरे लोगों की मानसिकता बदलेगी।

एसिड हमलों की शिकार महिलाओं की समस्याओं को लेकर कर्नाटक में “बर्न्ट नॉट डिस्टाइड’ (जले हैं मगर नष्ट नहीं हुए)नामक एक फिल्म भी बनाई गयी है, जो लोगों को इस मसले पर संवेदनशील बनाने का काम करने में अहम् भूमिका निभा रही है।

 

– अंजलि सिन्हा

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