दान करे कल्याण

दान की महिमा का वर्णन करते हुए आचार्य चाणक्य ने कहा है-

देयं भोज्यधनं सुकृतिभिर्नो संचयस्तस्य वै,

श्रीकर्णस्य बलेश्‍च विामपतेरद्यापि

कीर्ति स्थिता।

अस्माकं मधुदानयोगरहितं नष्टं चिरात्संचित,

निर्वाणादिति नष्टपादयुगलं

घर्षत्यमी मक्षिकाः॥

अर्थात् महापुरुष भोज्य-पदार्थों तथा धन का दान करें। इसका संचय करना उचित नहीं है। महाबली दानवीर कर्ण आदि की कीर्ति आज तक बनी हुई है। हमारा लम्बे समय से संचित शहद, जिसका हमने दान या भोग नहीं किया, नष्ट हो गया है, यही सोचकर दुःख से ये मधु-मक्खियाँ अपने दोनों पाँवों को घिसती हैं।

दान, त्याग, भावना और निरासक्ति का परिचायक है। दान सब दुःखों की दवा है। दान घर के क्लेशों और रोगों को दूर करने का उत्तम साधन है। दान देने की कला किसी-किसी को ही आती है। दान करने से सौभाग्य की वृद्धि होती है। इससे आत्मबल और तेज बढ़ता है। दान सदा परिवार और आत्मा को उन्नति की ओर ले जाता है। दान देने से दोनों लोक सुधरते हैं। संस्कार अच्छे बनते हैं। बुरे कर्मों का नाश होता है और चित्त के विकार दूर होते हैं। दान चाहे किसी भी प्रकार का हो, आत्मा की मलिनता को धो डालता है।

चिड़ी चोंच भर ले गई,

नदी न घट्यो नीर।

दान दिए धन न घटे,

कह गए भक्त कबीर॥

दान देने से जो सुख, शान्ति और धन की वृद्धि होती है, वह खोज कर ला सकते हैं क्या? ये तो अच्छे कर्मों और अच्छे विचारों से ही मिलते हैं।

भूमिदान हो या गायदान, अन्नदान हो या वस्त्रदान, विद्यादान हो या ज्ञानदान, सेवादान हो या श्रमदान किसी भी तरह का दान सौभाग्य बढ़ाता है। कई गुना बढ़कर वापिस जरूर मिलता है। दान करना मानों गुल्लक में धन डालना है। जैसे कि आप फलों के पौधे लगाते हैं तो समय-समय पर उनकी देख-रेख करते हैं। वही वृक्ष बड़े होकर अनगिनत फल देते हैं, देते ही रहते हैं। साथ ही अनगिनत बीज भी मिल जाते हैं। इसी प्रकार दिया हुआ दान और किया हुआ परोपकार कई गुणा बढ़कर हमें मिलता है।

भगवान तो देते ही देते हैं। हमारे संसार में आने से पहले ही वह हमें हमारे खाने, पहनने, रहने का प्रबन्ध करके ही संसार में भेजते हैं। क्या यह उनकी कृपा नहीं है, जो हमें मनुष्य योनि में जन्म मिलता है। परन्तु हम जब बड़े हो जाते हैं और कमाने लगते हैं तो प्रभु की यह कृपा भूल जाते हैं। किसी की सहायता करना ही नहीं चाहते। अपने सुखों में मग्न हो जाते हैं और अपने आसपास नजर ही नहीं डालते।

इसलिए संत पुरुष समझाते हैं कि बचपन से ही अपने बच्चों को अच्छे संस्कार दो, उन्हें नियम पर चलना सिखाओ, उन्हें बांटकर खाना, मिलकर रहना, सबकी सहायता करना और प्रभु सिमरन करना सिखाओ। अगर बचपन से ही अच्छे कर्मों का अभ्यास होगा, तो बड़े होकर बच्चे हर परिस्थिति का सामना करने के योग्य बन जाएंगे। दया करना उनका स्वभाव बन जाएगा। भूखों को खिलाकर स्वयं खाना उनकी आदत बन जाएगी। प्रभु का सिमरन करना उनका धर्म बनेगा। निःसहायों की सहायता करना उनका कर्म बन जाएगा। ये तप उन्हें बलवान और परोपकारी बनाएँगे।

भूखों को खिलाना साधारण काम नहीं है। पुराने लोग गुप्त-दान दिया करते थे, जो विधवा स्त्रियां होती थीं, जिनके छोटे-छोटे बच्चे होते थे, उनको चुपके से सहायता करते थे। उन्हें कभी पता नहीं चलने देते थे कि उनकी जरूरतें कौन पूरी कर रहा है। गुप्त-दान इसलिए देते थे ताकि लेने वाले के मन में हीन भाव न आये और देने वाले को घमण्ड न हो। जब भी भला काम करो, उसका डंका मत बजाओ। अपने जीवन को पुरुषार्थ से अलंकृत करो। अपने को प्रभु के चरणों में समर्पित कर दो। देने वाले तो भगवान हैं, जो हमें निमित बना रहा है।

सभी लोगों को, विशेषकर जो पार्टियों में धन, समय खर्च करते हैं, महीने में एक बार किसी आश्रम में जरूर जाना चाहिए। जैसे कि अनाथ आश्रम, अंधविद्यालय, विकलांगों के आश्रम, कुष्ठरोगियों की बस्ती में, झुग्गी-झोपड़ी में, वृद्धों की सेवा करने जैसे स्थानों में जाना चाहिए। ऐसे स्थानों में जाने से मन में दया भाव जागृत होगा, सेवा का अवसर मिलेगा, भूखों को खिलाकर शान्ति मिलेगी। जीवन सफल हो जाएगा। जब भी सेवा की कामना जागे तो सोचना चाहिए, मेरा कोई पुण्य जागा है। इस कामना को तुरन्त पूरा करना चाहिए। जीवन में कुछ भला काम जरूर करिए। प्रतिदिन पक्षियों को अनाज डालिए, फिर देखिए कुछ ही दिनों में वह तुम्हारे मित्र बन जाएंगे। आपसे डरेंगे नहीं, आपके हाथ से खाना खाने लग जाएँगे और अगर आप एक दिन भूल गए तो सुबह चहचहा कर पुकारने लगेंगे, आपको याद आ जाएगा। आपको बहुत आनन्द आएगा।

हमें चाहिए, अपने सद्गुरु जी के श्रीचरणों का ध्यान करते हुए सदा उनके प्रारंभ किये हुए कामों में सहयोग दें। हे जगदीश! हे परमपिता परमात्मा! हमें सद्बुद्धि दो, हमारे सारे दुर्गुण दूर करो। प्रभु हमें अपने चरणों से कभी दूर मत करना। अपनी शरण में लगाए रखना। हम सबका भाव भरा प्रणाम स्वीकार कीजिए।

 

 

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