नैतिकता ताक पर रख कर सीढ़ियां चढ़ने का नाम राजनीति

पता नहीं कितनों को याद होगा कि दो-चार साल पहले ही देश में “ऑपरेशन दुर्योधन’ हुआ था। मामला कुछ सांसदों द्वारा पैसे लेकर सदन में सवाल पूछने का था। रंगे हाथों पकड़े गये थे तब सांसद और उनके खिलाफ कार्रवाई भी हुई थी। उन सब सांसदों की सदस्यता समाप्त कर दी गयी थी। संबंधित दलों ने अपने अपराधी सदस्यों के खिलाफ क्या कार्रवाई की, पता नहीं। लेकिन, इतना ़जरूर पता चला है कि संसद से निष्कासित उन सांसदों में से एक को हाल ही में छत्तीसगढ़ में उसकी पार्टी ने आगामी चुनावों के लिए प्रभारी नियुक्त किया है। इस आशय की घोषणा स्वयं मुख्यमंत्री ने की है। इस कार्रवाई का क्या अर्थ निकाला जाये?

संबंधित राजनीतिक दल कुछ भी समझे या कहे, इसका सीधा-सा अर्थ जो आम आदमी को समझ आता है, वह यह है कि पार्टी संबंधित पूर्व सांसद को दोषी या अपराधी नहीं मानती। इसमें कोई संदेह नहीं कि जब यह काण्ड उजागर हुआ था तो सभी राजनीतिक दलों के वरिष्ठ नेताओं ने इसकी निंदा की थी और राजनीति में नैतिकता की वकालत की थी। स्पष्ट लग रहा है कि वह निंदा और वकालत जनता को भरमाने के लिए ही थी। और शायद हमारे नेता यह भी मानकर चलते हैं कि जनता ऐसी बातों को भूल जाती है- शायद उनका ऐसा समझना गलत भी नहीं है।

जहॉं तक राजनीति का मामला है, जनता की याद्दाश्त बहुत कमजोर ही होती है, इसीलिए हमारे यहॉं अकसर अपराधी बार-बार चुनाव जीतते हैं। कम याद्दाश्त वाली यह स्थिति अच्छी नहीं है। लेकिन, इससे भी बुरी बात यह है कि हमने राजनीति और अपराध के रिश्तों को स्वीकार लिया है- मान लिया है कि पैसे लेकर सवाल पूछना या पैसे लेकर सदन में वोट देना या जेल में बैठ कर चुनाव लड़ना-जीतना जैसी बातें बहुत गंभीर नहीं हैं।

संसद के पिछले अधिवेशन में सरकार द्वारा पेश किये गये विश्र्वास-मत पर हुई बहस के दौरान कुछ सांसदों ने सदन में नोटों की गड्डियां दिखाकर यह आरोप लगाया था कि सत्तारूढ़ मोर्चे और उसके सहयोगियों ने पैसे देकर समर्थन खरीदने की कोशिश की थी। आरोप गंभीर हैं और मामले की जॉंच भी चल रही है। यह काण्ड हमारी राजनीति के अधोपतन का एक उदाहरण है। इसकी आलोचना भी सबने की थी। समर्थन जुटाने और समर्थन खरीदने में अंतर को रेखांकित किया गया था। लेकिन सवाल यह उठता है कि क्या समर्थन सिर्फ नोटों से ही खरीदा जाता है? वोट के बदले पद का लालच देना क्या खरीदारी नहीं है? क्या यह खरीदारी नोट देकर की गयी खरीदारी से कम अपराध है? तो फिर इस सौदेबाजी के खिलाफ कार्रवाई क्यों न हो?

झारखण्ड मुक्ति मोर्चे के नेता शिबू सोरने यूपीए सरकार का समर्थन करके झारखण्ड का मुख्यमंत्री पद पा गये हैं। इस सौदेबाजी को क्या संज्ञा देंगे?

यह सौदा परदे के पीछे भी नहीं हुआ था। विश्र्वासमत पर मतदान से पहले मीडिया में इस बात में खुली चर्चा हो रही थी कि सोरेन वोट की कीमत मांग रहे हैं। तय सिर्फ यह होना है कि केंद्रीय मंत्रिमंडल में पद मिले या झारखण्ड का मुख्यमंत्री पद। सोरेन मुख्यमंत्री ही बनना चाहते थे- और बन भी गये। यह तो दुःख की बात है ही कि राजनीतिक समर्थन के लिए इस तरह की सौदेबाजी होती हों, लेकिन इससे कहीं अधिक गंभीर बात यह है कि न तो ऐसी सौदेबाजी करने वालों को कोई अपारध-बोध सताता है और न ही देश का आम नागरिक-मतादाता इसके बारे में सोचना चाहता है। उसने मान लिया है कि राजनीति तो ऐसी ही होती है। उसने मान लिया है कि राजनीतिक अपराध अपराध नहीं होते हैं। यह स्थिति जितनी गंभीर है उतनी ही खतरनाक भी है। जनतंत्र की सफलता का तकाजा है कि भ्रष्ट राजनीति के बारे में सोचने की आवश्यकता मतदाता महसूस करे।

पहले भी सोरेन मुख्यमंत्री बने थे। तब शायद नौ दिन ही चल पायी थी उनकी सरकार। इस बार भी स्थिति बहुत अच्छी नहीं थी। सदन में बहुमत जुटाने के लिए उन्हें उन निर्दलीयों का समर्थन हासिल करना पड़ा, जिनके बल पर पिछली सरकार टिकी हुई थी। इनमें पूर्व मुख्यमंत्री मधु कोडा भी हैं, जिन्होंने पद छोड़ते समय यह घोषणा की थी कि वे सोरेन को समर्थन नहीं देंगे। फिर अचानक पता नहीं क्या हुआ कि दो ही दिन बाद वे शिबू सोरेन के समर्थकों में शामिल हो गये। क्या यह अनुमान लगाना गलत होगा कि सोरेन ने भी बहुमत जुटाने के लिए वही तरीका अपनाया है, जिस तरीके से वे स्वयं केंद्र में सरकार को समर्थन देते रहे हैं? देश को यह याद होना चाहिए कि नरसिम्हा राव की सरकार को समर्थन देने के बदले शिबू सोरेन और उनके साथियों को नकद पैसे मिले थे। मामला उछला भी था, लेकिन तकनीकी कारणों से उन पर रिश्र्वतखोरी का आरोप सही नहीं माना गया। होना तो यह चाहिए था, तभी इन कथित तकनीकी, कारणों पर देश में बहस होती और संविधान में उचित संशोधन करके ऐसे कृत्य को अपराध घोषित किया जाता लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। तकनीकी कारणों का कवच बना रहा। निर्वाचित प्रतिनिधियों को गलत करके भी सही माने जाने की छूट बरकरार रही। इस छूट पर कोई प्रतिबंध तो लगना ही चाहिए।

इस तरह का अकेला उदाहरण नहीं है यह। पद, पैसे या अन्य सुविधाओं-अधिकारों के बल पर होने वाली यह राजनीति हमारे जनतंत्र की जड़ों पर प्रहार कर रही है। इसलिए ़जरूरी है इसके बारे में कुछ सोचा जाये, कुछ किया जाये। राजनीति को सौदेबाजी पर आधारित करनेे की जिम्मेदारी किसी एक नेता या एक राजनीतिक दल की नहीं है। दुर्भाग्य तो यह है कि सब इसमें बराबरी के हिस्सेदार हैं। जब जिसे ़जरूरत महसूस होती है और जब जिसे मौका मिलता है, वह नैतिकता को ताक पर रख कर राजनीतिक स्वार्थों की सीढ़ियां चढ़ने लगता है। यह शर्मनाक स्थिति है, लेकिन यह भी कम शर्मनाक नहीं है कि हम इसके मूकदर्शक बने रहें। कहीं तो यह आवा़ज उठनी चाहिए थी कि समर्थन पाने और समर्थन खरीदने के अंतर को पहचाना जाये; कि किसी शिबू सोरेन का इस तरह मुख्यमंत्री बनना जनतंत्र की मूल भावना का नकार है कि संसद में नोटों की गड्डियां दिखाना जितना शर्मनाक था, उतना ही शर्मनाक यह प्रमाणित होना है कि पद की कीमत पर समर्थन बेचा गया है। सवाल सिर्फ आवा़ज उठाने तक ही सीमित नहीं है, सवाल गलत काम करनेे वाले पर उंगली उठाने का भी है। किसी भी राजनेता के किसी भी गलत काम को चुपचाप स्वीकार कर लेना कुल मिलाकर जनतंत्र के खिलाफ अपराध है और यह अपराध चुप्पी साधने वाला मतदाता करता है। कब टूटेगी यह चुप्पी?

 

– विश्र्वनाथ सचदेव

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