प्रणाम शहीदों को

“मैं बेबे (मॉं) के हाथ की रोटी खाना चाहता हूँ’

भगतसिंह का साहित्य, जो उनके बाद समाज का मार्ग-दर्शन करता, नष्ट हो गया, पर वे कैसी समाज-व्यवस्था चाहते थे, मानव-मानव के बीच कैसा संबंध चाहते थे, यह एक संस्मरण में सुरक्षित है। उनकी काल-कोठरी में जो भंगी सफाई करने आती थी, वे उसे बेबे कहा करते थे, जैसे कि अपनी मॉं को “बेबेजी’ कहते थे। जब वह कोठरी में आती, तो भगतसिंह कुछ भी कर रहे हों, उससे जरूर बातचीत करते और लाड से “बेबे-बेबे’ पुकारते रहते। उनके इस व्यवहार से जमादारिन का प्रभावित होना तो स्वाभाविक ही था।

“”आप इसे “बेबे’ क्यों कहते हैं?” एक दिन किसी जेल-अधिकारी ने पूछा, तो बोले, “”जीवन में दो लोगों को मेरी गन्दगी उठाने का काम मिला है। एक मेरी बचपन की मॉं और एक यह जवानी की जमादार मॉं। इसलिए दोनों “बेबेजी’ ही हैं, मेरे लिए।”

फॉंसी से पहले जेलर खान बहादुर मुहम्मद अकबर अली ने उनसे पूछा, “”आपकी कोई खास इच्छा हो, तो बताइये। मैं उसे पूरी करने की कोशिश करूँगा।” भगतसिंह का उत्तर था, “”हॉं, मेरी एक खास इच्छा है और आप उसे पूरा कर सकते हैं।”

“”बताइए।”

“”मैं बेबे के हाथ की रोटी खाना चाहता हूँ।” जेलर ने इसे उनका मातृ-प्रेम समझा, पर उनकी मंशा भंगी माई से थी। जेलर ने उसे बुलाकर भगतसिंह की बात कही, तो वह स्तब्ध रह गयी, “”सरदारजी, मेरे हाथ ऐसे नहीं हैं कि उनसे बनी रोटी आप खायें।”

भगतसिंह ने प्यार से उसके दोनों कन्धे थपथपाते हुए कहा, “”मॉं, जिन हाथों से बच्चों का मल साफ करती है, उन्हीं से तो खाना बनाती है। बेबे, तुम चिन्ता मत करो और मेरे लिए रोटी बनाओ।” भंगी माई ने रोटी बनाई और भगतसिंह ने आनन्द से, अपने स्वभाव के अनुसार उछलते-मटकते हुए खायी। कैसा लगा होगा उस समय दर्शकों को? क्या उन्होंने सोचा होगा कि नयी समाज-व्यवस्था का स्वप्न-द्रष्टा, युग की क्रांति का दार्शनिक, अपने स्वप्नों में इठलाते हुए समाज का एक नमूना प्रस्तुत कर रहा है।

भगतसिंह के लिखे एक निबन्ध के शब्द हैं, “”मेरा उद्देश्य तो यह है कि जनता शहीदों की कुर्बानियों और जीवन भर देश के ही काम में लगे रहने के उनके उदाहरणों से प्रेरणा हासिल करे और समय आने पर उस समय की परिस्थितियों को देखते हुए, अपने कामों का स्वयं निर्माण करे।”

“”मैं कैद होकर जिन्दा नहीं रहना चाहता”

ठीक फॉंसी के दिन भगतसिंह को जेल से भगाने की बात भीतर ही भीतर उठी थी और उनसे इस बारे में पूछा भी गया था। उत्तर में उन्होंने लिखा था, “”जीने की इच्छा तो प्राकृतिक है और वह मुझमें भी होनी चाहिए। मैं इसे छिपाना नहीं चाहता। मगर मैं कैद होकर या किसी पाबन्दी के अधीन जिन्दा नहीं रहना चाहता। मेरा नाम भारतीय क्रांति का बिन्दु बन चुका है। इन्कलाब पार्टी के आदर्शों और बलिदानों ने मुझे बहुत ऊँचा कर दिया है। जीवित रहने की दशा में मैं इससे अधिक ऊंचा नहीं जा सकता। मेरे हॅंसते-हॅंसते फांसी पर चढ़ जाने से भारतीय माताएँ अपने बच्चों को भगतसिंह बनने की प्रेरणा दिया करेंगी। देश पर बलिदान होने वालों की संख्या इतनी बढ़ जाएगी कि शायद क्रांति की इस बाढ़ को रोकना अंग्रेजों के लिए असम्भव हो जाए। फांसी से बचने की मेरे दिल में कोई लालसा नहीं है। मुझसे अधिक सौभाग्यशाली कौन होगा? मुझे आजकल अपने पर बहुत गर्व है। अब तो बड़ी उत्सुकता से अन्तिम परीक्षा की प्रतिक्षा है। इच्छा है, यह और करीब हो जाये।”

फांसी से कुछ पहले उन्होंने अपने पत्र में श्री बटुकेश्र्वर को पंक्तियॉं लिखी थीं –

नाऊ आई सी माई गॉड

इन हिज विजिएबल फार्म

आन दि गैलोज

अर्थात

अब मैं देख रहा हूँ अपने ईश्र्वर को

उसके दर्शनीय रूप में,

फांसी के तख्ते पर।

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