बचपन

घर में अगर मम्मियों को सास-बहू का सीरियल बेहद पसंद है, तो वहीं नन्हें-मुन्हें बच्चों को फैंटेसी कैरेक्टरों की दुनिया बहुत रास आ रही है। स्कूल से आते ही बच्चे झटपट बैग को इधर-उधर रख “बाब द बिल्डर’, “स्कूबी डू’, “पोकेमान’, “शिनचेन’, “टॉम एंड जैरी’, “डोरेमॉन’ जैसे न जाने कौन-कौन से एनीमेशन और कार्टून के करिश्माई कैरेक्टरों वाले कार्यामों को देखने में घंटों यूं ही बिता देते हैं।

ज्यादातर शहरी बच्चों का स्कूल के बाद का समय टी.वी. रिमोट पर अंगुलियां दबाते-दबाते ही गुजर जाता है। इनके लिए इंसानी रिश्ते यूज एंड थ्रो वाले हो चले हैं। ये बच्चे इन फैंटेसी कैरेक्टरों की सपनीली दुनिया से बाहर हकीकत की दुनिया को तांकना-झांकना भी नहीं चाहते। इनके लिए दादा-दादी की पुरानी कहानियां बेमायने हो गयी हैं। इसकी वजह मनोचिकित्सक बताते हैं कि एनीमेशन्स व अत्याधुनिक इलेक्टॉनिक गैजेट्स के चलते बच्चों की जिंदगी में मशीनीकरण हावी हो चला है। यहां तक कि पड़ोसियों से भी आमने-सामने मिलने-जुलने के बजाय एसएमएस या इंटरनेट के जरिए बात करते हैं। वहीं दूसरी ओर फैंटेसी कैरेक्टरों की देश-दुनिया में फैले नन्हें-मुन्हें फैंस को लुभाने के लिए कार्याम मेकर जबरदस्त मेकओवर, मार्केटिंग जैसे हथकंडे अपना रहे हैं। अमेरिका की पावर पफ गर्ल्स, मिक्की माउस, डोनाल्ड डक, नोडी, टॉम एंड जैरी वगैरह बच्चे-बड़ों सभी के प्रिय हैं।

बड़ा गोलाकार सिर और पतले शरीर वाली “पावर पफ गर्ल्स’ अमेरिका में कराटे की सुपर स्टार्स किशोरियां हैं। यह कार्टून नेटवर्क चैनल का लोकप्रिय शो है। इसी तरह के 2006 में जापानी चैनलों पर उतरी पावर पफ गर्ल्स का यह मेकओवर है। इस नये वर्जन में साधारण लड़कियां हैं, केक खाती हैं, मगर रासायनिक प्रिाया के चलते सुपर पावर ग्रहण कर लेती हैं। पहले अमेरिकी कैरेक्टरों को दुनिया के हरेक देश में उतारने से पहले केवल डबिंग की जाती थी। जबकि हाल के दौर में कैरेक्टरों को बाकायदा रीइन्वेंट या रीिाएट किया जाता है ताकि कैरेक्टर बाल मन से जुड़ सके और बच्चों को अपना-सा अहसास दिलाएं।

बच्चों में फैंटेसी कैरेक्टरों का किस कदर असर पड़ता है, इसे इस मिसाल से समझा जा सकता है। दस साल का हर्षित शहर की ऊबड़-खाबड़ सड़कों पर कार में सफर करते वक्त धक्कों से ऊबकर एक दिन बोलता है, “”पापा, बॉब द बिल्डर इन ऊबड़-खाबड़ सड़कों को ठीक करने क्यों नहीं आता है?” अब आप भले ही बॉब द बिल्डर से वाकिफ न हों, लेकिन यह नन्हा भलीभांति जानता है। यह बॉब द बिल्डर एक फैंटेसी कार्याम का कैरेक्टर है, जो टूटी-फूटी सड़कों को झटपट ठीक कर देता है और तुरत-फुरत में फ्लाई ओवर और इमारतें खड़ी कर देता है। इसी तरह बच्चों के दिलोदिमाग में “पोकेमान’, “स्कूबी डू’, “पावर पफ गर्ल्स’ सरीखे न जाने कितने कैरेक्टर घुसे हैं। बच्चों के दिमाग में “अपना पोकेमान अपने साथ रखो और तुम किसी भी बात के लिए तैयार रहो। ताकत तुम्हारे हाथों में है, इसका इस्तेमाल करो।’ ऐसे डायलाग और पिकाचू, चारमेंडर, स्क्विटैल जैसे बहुतेरे अजीबो-गरीब नाम बच्चों वाले हर घर में सुनने को मिल जाते हैं। ऐसे एनीमेटेड कार्याम या कार्टून बड़ों को भले ही बकवास और बेसिर-पैर के लगें, लेकिन बच्चों में ऐसे कार्यामों की दीवानगी कूट-कूटकर भरी होती है। एक गृहिणी कार्टून के प्रति शौक रखने वाले अपने दो हमउम्र बच्चों का एक किस्सा बयान करती है, “”मेरे दोनों ही बच्चे एनीमेशन और कार्टून देखते हुए घंटों समय गुजार देते हैं और ऐसे कार्यामों के तमाम कैरेक्टरों के स्टाइल की नकल भी घर में करते-फिरते हैं। यहां तक कि टीवी देखते-देखते सवालों की बौछार भी मुझ पर खूब करते हैं। धीरे-धीरे बच्चों के साथ इन कार्यामों को देखने के चलते मुझे भी ये प्रोग्राम अच्छे लगने लगे हैं।”

यही कारण है कि आज टी.वी. पर चौबीस-चौबीस घंटों के कार्टून नेटवर्क, ड़िज्नी वगैरह चैनल खासतौर से बच्चों के बीच दिनोंदिन खूब पॉपुलर हो रहे हैं। अधिकांश बच्चे हर रोज कम से कम ढाई घंटे ऐसे शोज, सीरियल और फिल्में देखने में गुजारते हैं। जापान में 1997 के दौरान “पोकेमान’ टी.वी. कार्टून शो देख-देखकर सैकड़ों स्कूली बच्चों को उलटी, दौरा पड़ने, आंखों में खुजली जैसी दिक्कतें पैदा हो गयी थीं। ऐसे लक्षण बच्चों में इसलिए दिख रहे थे, क्योंकि पोकेमान प्रोग्राम में पोकेमान पाकेट मोंस्टर वीडियो गेम पर आधारित था। इसे देखकर बच्चे तो बच्चे उम्रदराज बुजुर्ग भी चपेट में आने लग गये थे।

व्यापक स्तर पर इस खामियाजे को देखते हुए पोकेमान की बाद की कड़ियों में चेतावनी दी गई कि शो देखने से बेहोशी का दौरा पड़ सकता है। मिर्गी रोग की संभावना प्रबल हो सकती है। विशेषज्ञों के अनुसार ऐसा इसलिए हो रहा था क्योंकि फ्लैश और रंगीन बत्तियों की चमक-दमक से इस रोग के अंदेशे काफी प्रबल हो जाते हैं। इस दुष्प्रभाव के कारण पोकेमान का दुनियाभर के तमाम देशों में जमकर विरोध भी हुआ और मांग की गई कि इसका प्रसारण बंद हो। हालांकि तुर्की और रूस में पाबंदी तक के हालात पैदा हो गये थे, वहीं भारत के पब्लिक स्कूलों में भी इस बाबत चेतावनी दी गई थी और अभिभावकों को जागरूक किया गया था। इसके कई विरोधियों का यह भी आरोप था कि पोकेमान बच्चों को जादू-टोना, भूत-प्रेत और फैंटेसी दुनिया की अविश्र्वसनीय शक्तियों की तरफ आकर्षित करता है।

फिर भी ऐसे कार्यामों में दैत्य व दैवीय शक्तियों का परोसा जाना आज भी बदस्तूर जारी है। साथ ही बच्चे धड़ल्ले से इन कार्टून और एनीमेशन प्रोग्रामों के डाई हार्ड फैन बने हुए हैं। बच्चों में भूत-प्रेत और महाशक्तियों का जिा करते हुए एक बाल कथाकार अपने निजी अनुभव को शेयर करते हुए कहते हैं कि एक बार बच्चों की एक लघु कहानी प्रतियोगिता में चीफ गेस्ट के तौर पर वह भाग लेने गए थे, वहां देखा कि तकरीबन 50 फीसदी से अधिक बच्चों की कहानियां भूत-प्रेत और जादुई शक्तियों से प्रभावित थीं। उन्होंने कहा कि इससे समझा जा सकता है कि बच्चों में फैंटेसी कैरेक्टरों की दैवीय व महाशक्तियां इन्हें किस कदर अपने कब्जे में ले रखी हैं।

तकनीकी एक ऐसा घातक हथियार होती है, जिसे चाहे तो अपने फायदे के लिए इस्तेमाल कर लिया जाए या उससे नुकसान कर लिया जाए। टी.वी. बच्चों को जागरूक करने का एक सशक्त माध्यम है। लेकिन यही टी.वी. अगर जादू-टोना, भूत-प्रेत और दैवीय चमत्कारों वाली कहानियों से भरे प्रसारणों से पट जाएगा तो उसका नतीजा यही होगा, जो नतीजा आजकल बच्चों के फैंटेसी और जादुई शक्तियों वाले कार्यामों के चलते बच्चों की इन अतार्किक शक्तियों के प्रति बढ़ते प्रेम में देखा जा रहा है। इसलिए ऐसे कार्यामों के प्रति अभिभावकों, बच्चों, कार्याम निर्माता-निर्देशकों सहित पूरे समाज को सजग रहने की जरूरत है।

– वीना सुखीजा

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