माँ के जाने का स्वप्न

maa-ke-jane-ka-swapnसभी तो माँ के दुनिया छोड़ जाने की राह देख रहे हैं। बुआ कहती है – अरी ओ! तू जल्दी जा। तेरे कारण मेरा घर नहीं बन रहा है। मां चुप रहती है। भाभियां हंसती हैं। मां एक निरीह प्राणी बनकर रह गई है।

उसकी बेचारगी चेहरे की एक-एक लकीर में उतर जाती है जैसे किसी कुशल चित्रकार ने मां के चेहरे पर त्वचा के रंगों के धूप-छांव से उसकी लाचारी को दर्शा दिया है। मां की घबराहट ही उसके संग है और थरथराहट। सिर इतना हिलता है कि माँ कहती है – बाई! मेरी मान हिलती है। दिखती नहीं क्या? मान वो सिर को कहती है। सिर यानी मान सही ही तो है।

हमारा मान हमारा सिर ऊँचा रखता है, पर मां का मान जा चुका है। छोटी बहू आई तो मां का मान तो था, पर फिर जो घटा उसने छोटी को मां से बेरहमी का बर्ताव करने को विवश कर दिया। घर में छोटी भाभी भोली-भाली वधू बनकर आई थी।

मुझे याद है, वह सहमी रहती थी। वह आज्ञाकारी भी थी। फिर ऐसा क्या हुआ, जिसने उस सीधी-सादी बहू को क्रूर-कर्कशा अत्याचारी स्त्री में बदल दिया। जबकि मां पहले से भी ज्यादा गऊ हो गयी।

मां तो शुरू से ही धार्मिक स्वभाव की थी। बड़ी बहू के आने पर वह स्वयं ही घर के बाहर मेले-पर्व में जाने लगी। ज्यादा वक्त बाहर ही गुजरता। बड़ी का घर पर एकछत्र राज हुआ। मां भी चाहती थी कि घर बहू ही संभाले। सो, मां ने कोई नियंत्रण रखने का यत्न नहीं किया।

किंतु घर का वैभव चूक गया था। पिता की आदतें उम्र बढ़ने के साथ लम्पटता की होती गईं। पहले भी पिता गलत संगति में रहते थे, पर बात दबी-छुपी थी। पिता बाहर जाकर अपनी मुरादें पूरी कर आते। मां को पता होता या नहीं, पर पिता का बर्ताव बेहद गंवारू था। वो मां से दुराग्रह रखते। मां के प्रति उनका द्वेष जाने क्यों बढ़ता गया? उम्र के संग पिता गंभीर होने के बदले कामी व क्रोधी होते चले गए। मां को डांटना-दुत्कारना, सबके सामने अपमानित करना इत्यादि कार्य वे बच्चों के सामने करते। भाइयों ने इसे रोका नहीं। विरोध न होने से पिता की निरंकुशता बढ़ती गई और मां ज्यादा भक्ति में लगती गई।

किन्हीं कारणों से मां ने बहुत पहले से स्वयं को दाम्पत्य जीवन से दूर कर लिया था। इसके पीछे भी पिता की गलत आदतें ही थीं। अब पिता खुलकर खेलने लगे। वृद्घावस्था का ख्याल उन्हें नहीं था। घर का सारा काम करते। सो बहू-बेटों को भी वे अच्छे लगते। फिर सहजरूप से ही उनका झुकाव बड़ी बहू के प्रति हुआ। उसे ज्यादा कार्य नहीं करने देते। किंतु बड़ी का इससे ज्यादा कोई गलत बर्ताव न रहा कि वो ससुर से आर्थिक मदद लेती रही। उसने मर्यादा नहीं लांघी।

किंतु छोटी काफी खुले स्वभाव की निकली। पिता का उस पर नियंत्रण होने में देर न लगी। अव्वल तो वह मानसिक रोग से पीड़ित रही, दूसरे छोटा भाई प्रायः बाहर रहता। काम करने के बहाने पिता ने छोटी से ऐसी नजदीकी बना ली जो ससुर-बहू के मर्यादित रिश्ते में शोभनीय नहीं थी।

मां का स्वभाव ऐसा न था, सो उसने बहू के विरुद्घ कभी भी कुछ गलत न सोचा। वह उसे बेटी की तरह चाहती रही। आज भी चाहती हैं, किंतु पिता ने यह न सोचा कि वह अपनी गंदी भावना की बुरी छाया बेटी समान बहू पर डाल रहे हैं। भाभी भी चूंकि दिल से कमजोर थीं।

मायके में भी उन पर कुछ लोगों ने नियंत्रण किया था। सो वह पिता के प्रति झुकती चली गई। बात नाजुक थी। घर में खुलापन था। भाई भोले थे, सो किसी ने इन बातों को गंदे नजरिये से न देखा। मैंने सब समझकर भी चुप रहने में ही भलाई समझी। कारण ये बातें अपनी समझ की होती हैं। वासना में लोग रिश्ते-नाते को महत्व नहीं देते।

और ससुर के बहकावे से एक निष्कलुष बहू अपनी ही सास के प्रति हद से ज्यादा क्रूर होती चली गई। एक ओर पिता मां से दुर्व्यवहार करते, दूसरी ओर युवा बहू के सान्निध्य में ज्यादा रहते। घर में परदा न होने से आते-जाते टकराते, घिसटते। ऐसे ससुर-बहू को देखकर भी चुप रहना ही उचित था।

किसी स्ट्रिंग ऑपरेशन के बिना कुछ प्रमाणित नहीं हो पाता। और ससुर-बहू के रिश्ते में मर्यादा का ही मान रखा जाता है। गृहस्थी बिखर गई थी। अतः ठोस प्रमाण के बिना मर्यादाहीन आचरण को आधार बनाना व्यर्थ था। खासकर, दूसरों के निजी जीवन व गृहस्थी में।

परंतु मां ने जो भुगता, वह इसी झुकाव का फल था। मां को खाना ठीक से नहीं दिया जाता। उससे कोई नहीं बोलता। पिता बहू के सामने मां की बेइज्जती करते। बहुएं खिसखिस हंसतीं तो पिता और ज्यादा इतराकर फटकारते। मां को हिकारत से देखने की दृष्टि पिता ने ही छोटी को सिखा दी थी।

अब वह क्यों मान करे? पानी में भीगी रोटी देती। पतला दूध पानी-सा तो होता, जिसमें शक्कर न होती। मां लकवाग्रस्त हो गई। बहुत भूख से रोटी-रोटी चिल्लाती, पर घर में कोई न सुनता। सब वहां से आते-जाते, पिता बहू को देख मुस्कुराते। बहू क्रूर हो जाती। कर्कश स्वर में मां को डांटती। मां की तकलीफ देखी नहीं जाती। मैं बोलती, पर अकेली पड़ जाती। वहां कोई सुनने वाला न था। दीदी कहती – कर तो रही है। चलते बैल को तुंतारी लगाओ तो वह गिरा देगा।

मैं कल मां के इस दुनिया से जाने का स्वप्न देखकर प्रफुल्लित हूं। मां इस शाप जैसे रिश्ते से मुक्त हो। यह जीवन अब थम जाये। सर्वशक्तिमान से उसे मृत्यु का प्रकाश देने की प्रार्थना कर रही हूँ, ताकि मां के उन दुःखों व अपमानों का अंत हो सके।

 

– जोगेश्र्वरी सधीर

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