मानव-निर्माण में शिक्षा और शिक्षक की भूमिका

अनादिकाल से गुरु के महत्व को स्वीकार किया गया है। भारतीय साहित्य में निर्गुण सन्तों की परम्परा में गुरु को सर्वाधिक महत्व दिया गया है। निर्गुण भक्ति धारा के लोकप्रिय कवि कबीरदास की “साखी’ के प्रथम भाग का नामकरण गुरु की महिमा के आधार पर ही है- “गुरुदेव कौ अंग।’ कबीर ने कहा- इस संसार में गुरु के समान कोई हितैषी और सगा नहीं है इसलिए मैंने अपना तन-मन और सर्वस्व गुरु को समर्पित कर दिया है, जो क्षण भर में ही अपनी कृपा से मनुष्य को देवता बनाने में समर्थ है। गुरु की अपार महिमा को वही समझ सकता है, जिसके ज्ञान-चक्षु खुल गये हों। गुरु अपने ज्ञान के आलोक से शिष्य का हृदय निर्मल कर देता है। वही सच्चा शूरवीर है, उसके उपदेश के प्रभाव से शिष्य समस्त सांसारिक बंधनों से मुक्त हो जाता है। गुरु की वाणी उसके समस्त संशयों का नाश कर देती है। इन्हीं महत्ताओं के कारण गुरु को भगवान के समकक्ष माना गया और कहा गया-

गुरु गोविन्द दोऊ खड़े, काके लागूँ पॉंय।

बलिहारी गुरु आपने, गोविन्द दियो बताय।।

वस्तुतः गुरु इसलिए महत्वपूर्ण है कि वह जीवन जीने की कला सिखाता है और वही सच्चा ज्ञान प्रदान करता है। वह अपना समस्त ज्ञानार्णव शिष्य में उंड़ेल देता है। अपने प्रयत्नों से शिष्य को उसी प्रकार योग्य बना देता है जिस प्रकार लुहार गर्म लोहे को पीट-पीटकर सुन्दर आकार प्रदान कर देता है। भारत के प्राचीन धार्मिक ग्रंथों, महापुरुषों की जीवनियों और राजा-महाराजाओं के इतिहास में शिक्षक या गुरु की महिमा का विशद वर्णन है। विश्र्वामित्र, वशिष्ठ, चाणक्य, द्रोणाचार्य आदि श्रेष्ठ गुरुओं की एक सुदीर्घ परम्परा के दर्शन भारतीय संस्कृति में होते हैं।

एक समय था, जब देश में गुरुकुल शिक्षा-पद्घति थी। इसमें वेद, पुराण, उपनिषद आदि की शिक्षा दी जाती थी। शिष्य को गुरु के आश्रम में रह कर शिक्षण के साथ अन्य दैनिक कार्य जैसे-जंगल से लकड़ियॉं लाना, साफ-सफ़ाई, भोजन बनाना आदि कार्य करने पड़ते थे। उन्हें जीवन की कठिनाइयों से अवगत कराया जाता था। राजा और प्रजा की सन्तानें एक साथ रह कर शिक्षा प्राप्त करती थीं और गुरु का आदेश ब्रह्मवाक्य माना जाता था। माता-पिता बालक को गुरु के चरणों में डालकर कहते थे- “यथेह पुरुषोऽसत्… अर्थात्- हे आचार्य! आप इस बालक को श्रेष्ठ विद्या प्रदान कर ऐसी शिक्षा दें कि यह पुरुष बन जाये। उल्लेखनीय है कि पुरुष पृ अर्थात् पालन और पूर्णयों धातु से बना है। जिसका अर्थ है- पालन करने वाला और पूर्ण। अतः इस मंत्र द्वारा माता-पिता गुरु से अपेक्षा करते थे कि उनके मार्गदर्शन में उनका पुत्र यशस्वी, मनस्वी और वर्चस्वी बने, पूर्ण पुरुष बने। मनुष्यत्व प्राप्त करे।

वस्तुतः शिक्षा का उद्देश्य मात्र अक्षर-ज्ञान नहीं है। शिक्षा का आदर्श है- मस्तिष्क में ज्ञान, हृदय में गुण, शरीर में शक्ति और मानव के प्रति सौहार्द का संचार। शिक्षा सतत गतिशील ऐसी प्रिाया है जिसमें गुरु और शिष्य दोनों सिाय रहें। शिक्षक का उद्देश्य मानवता को पूर्ण करने वाली शिक्षा प्रदान करना था। इसके लिए गुरु-शिष्य द्वारा आरम्भ और अन्त में यह मन्त्रोच्चार किया जाता था-

सह नाववतु, सह नौ भुनक्तु

सह वीर्यम् करवावहे

तेजस्विनावधीत मस्तु, मा विद्विषावहे।

गुरु और शिष्य कामना करते थे कि “हे प्रभु! हम दोनों को एक-दूसरे की रक्षा करने की सामर्थ्य दे। हम परस्पर मिलकर अपनी जाति, भाषा व संस्कृति की रक्षा करें। किसी भी शत्रु से भयभीत न हों। हमारी शिक्षा हमें एकता के सूत्र में बांधे, बुराईयों से मुक्त करे। हम एक-दूसरे पर विश्वास रखें।’ इसके विपरीत वर्तमान समय में शिक्षक और विद्यार्थी में निरन्तर एक-दूसरे के प्रति अविश्र्वास एवं अनास्था के कारण शैक्षणिक संस्थानों का वातावरण दूषित होता जा रहा है।

प्रारम्भिक काल में शिक्षा पूर्णतः व्यक्तित्व-विकास पर बल देने वाली होती थी। मध्यकाल में समाजोपयोगी शिक्षा पर ध्यान केन्द्रित करके भाषा, गणित, राजनीति आदि कई विषयों को स्थान दिया गया। वर्तमान काल में शिक्षा पूर्ण रूप से तकनीकी, व्यक्ति-कौशल और व्यावसायिक हो गयी है। आधुनिक शिक्षा पद्घति में नैतिकता का घोर अभाव है। वह युवा पीढ़ी को लौकिक सुख और अपार ऐश्र्वर्य की ओर आकृष्ट कर रही है। शिक्षा का उद्देश्य अधिकाधिक वेतन वाली नौकरी पाना मात्र रह गया है। कम्प्यूटर, इंटरनेट आदि उपकरणों ने शिक्षा का परिदृश्य बदल दिया है। प्रबंधन और तकनीकी विषयों पर अधिक ध्यान दिया जा रहा है। संस्कार और मानव-मूल्यों का शिक्षा में कोई स्थान नहीं रहा। बाहरी चमक-दमक और सांसारिक सुखों के आकर्षण से भ्रमित युवा वर्ग जीवन के वास्तविक लक्ष्य से भटक रहा है। शिक्षा ऐसी होनी चाहिए जो मानव का सत्य से साक्षात्कार कराये। जो सच्चे मानव-धर्म का बोध कराकर मनुष्य-जीवन को सार्थकता प्रदान करे।

जो शिक्षा वस्तुतः मनुष्य के चरित्र का निर्माण करने वाली, अन्तःकरण की क्षमताओं को प्रकाशित कर मानवता की ओर अग्रसरित करने वाली होनी चाहिए, वह आज दिशाहीन हो गयी है। जो शिक्षा हमें संस्कार-सम्पन्न बनाती थी और हम यह प्रार्थना करते थे-

असतो मा सद् गमय। तमसो मा ज्योतिर्गमय।

मृत्योर्माऽमृतंगमय।

अर्थात हमें असत्य से सत्य की ओर ले चलो, अन्धकार से प्रकाश की ओर ले चलो और मृत्यु से अमरत्व की ओर ले चलो। वह शिक्षा जाने किस काल के गाल में समाती जा रही है।

शिक्षक भी अपना दायित्व भुला बैठा है। वह पैसा कमाने की मशीन बन गया है। शिक्षा अब उसका ईमान-धर्म नहीं, व्यवसाय बन गया है और वह व्यवसाय ट्यूशन, कोचिंग के रूप में खूब फल-फूल रहा है। वह आदर-सम्मान की नहीं, लक्ष्मी की कामना करता है। विद्यार्थी भी समझता है कि शिक्षक उस पर कोई एहसान नहीं कर रहा है। वह उसकी एव़ज में एक मोटी रकम शुल्क के रूप में अदा कर रहा है इसलिए हिसाब बराबर हो गया।

लेकिन मौजूदा हालात में हमें जड़ों की ओर लौटना होगा। जिस ते़जी से परिवार, समाज, देश और विश्र्व में हिंसा, अराजकता, अशान्ति और अलगाववादी प्रवृत्तियॉं ़जोर पकड़ती जा रही हैं, उनसे मुक्ति के लिए सच्ची शिक्षा और सच्चे गुरु-धर्म को पहचान कर उसे अपनाना होगा। आज हमें सचमुच ऐसी शिक्षा की आवश्यकता है जो मानव को मानव-धर्म सिखा सके, मनुष्यता की ओर अग्रसर कर सके और सम्पूर्ण धरा पर परस्पर समानता, सहयोग, विश्र्वास, भाईचारा और शान्ति की स्थापना में सहायक हो। शिक्षक के महत्व को नकारा नहीं जा सकता। मानव के निर्माण में शिक्षक की भूमिका अत्यन्त महत्वपूर्ण है।

– डॉ. गीता गुप्त

You must be logged in to post a comment Login