मेरा नाम क्या है?

मेरी सहेली की बेटी गीतिका की शादी में सम्मिलित होनेे के लिए जब मैं समारोह-स्थल पर पहुंची तो असमंजस में पड़ गई कि किसी गलत समारोह में तो नहीं आ गई हूँ क्योंकि बाहर वधू का नाम गीतिका की जगह माधवी लिखा था। तभी मुझे गीतिका के पापा दिख गए तो लगा कि हूँ तो ठीक जगह। इसके बाद जब मुझे अपनी सहेली मिली तो पूछना ही पड़ा कि तुम्हारी बेटी का नाम तो गीतिका है फिर माधवी क्यों लिखा है? वह बोली, “अरे क्या बताऊं, उसके ससुराल वाले कह रहे थे कि गीतिका नाम से यह विवाह हो ही नहीं सकता। इसलिए उसका नाम बदलना पड़ा। यह जवाब सुनकर उस विवाह उत्सव में मेरा जरा भी मन नहीं लगा। क्या कमाल है कि एक लड़की 20-21 साल तक जिस नाम से पली-बढ़ी, अचानक अपने वहम और रीतियों के कारण उसका नाम बदलने का अधिकार किसी और को कैसे मिल जाता है? और जब वह लड़की माधवी है ही नहीं तो उसका विवाह कैसे हुआ? ब्याही तो गीतिका ही गई है ना! मेरी एक अन्य मित्र हैं जिनका नाम डे़जी है पर शादी के तुरन्त बाद उसके ससुर ने यह नाम मह़ज इसलिये बदल दिया कि यह अंग्रेजी का शब्द उन्हें पसन्द नहीं था और डे़जी शब्द बोलने में उन्हें मुख-सुख नहीं मिलता था। लड़की के नाम की तो औकात ही क्या है, उसका वजूद तक खत्म करते हम देर नहीं लगाते। आम घरों में कुंवारी कन्याओं की पहचान यही है कि यह फलाने की बेटी है और विवाह के बाद पहचान में ़जरा-सा बदलाव आ जाता है और हमें सुनने को मिलता है कि यह फलाने की बहू है। जैसे ही उसकी सन्तान होती है तो उसकी एकमात्र पहचान बचती है कि यह फलाने की मॉं है। हमने औरत को बेटी, पत्नी और मॉं के सिवा कुछ नहीं समझा है। औरत को कभी औरत नहीं माना। या तो उसे वस्तु माना या फिर एक रिश्ता। निःसन्देह उसे बेटी, पत्नी और मॉं बनने में सुखानुभूति होती है। तो भी हम यह क्यों नहीं स्वीकारते कि वह एक शख्स भी है। उसके व्यक्त्वि की भी कोई सत्ता है। जिस नाम से वह स्वयं को जानती है, उसे उसी नाम से क्यूं नहीं जाना जाता? मेरी जानकारी में एक ऐसी आईएएस अधिकारी हैं जो डीसी के पद पर काम करती हैं और उनके पति भी दूसरे जिले में डीसी हैं। तो भी कितने ही लोग ऐसे हैं जो यह कहते सुने जाते हैं कि यह उस जिले के डीसी की पत्नी हैं। हालॉंकि एक दिन नाम तो सबका मिटना ही है पर ऐसा तो नहीं होना चाहिए कि किसी के जीते जी ही हम उसका नाम मिटा कर तुष्टि हासिल करें।

एक बार की बात है कि किसी गांव में एक छोरे का नाम ढिल्लू था अर वो पढ़ाई में भी कती ढिल्ला ही था। एक दिन उसके मास्टर ने कह दिया, “भाई! जब तेरा नाम ही तेरे घरवालों ने ढिल्लू रख दिया है, तो ढिल्ला तो तूं पढ़ाई में रहेगा ही। अब इस नाम के साथ रफ्तार तो कती पकड़ नहीं सकता?’ छोरा स्कूल से जाते ही अपने बाब्बू से भिड़ गया, “तूने ये कुकर्मी नाम क्यूं रखा मेरा? स्कूल में मेरे कुछ भी नहीं पल्ले पड़ता।’ छोरे की बात सुनकर उसका बाब्बू छोह में आ गया अर बोला, “रै कमीन! नाम से क्या होता है, मेरा नाम ज्ञानी है अर मुझे धांस नहीं आती। इन कापियों की किश्ती बनाकर जोहड़ में बहाएगा तो तेरे भोभरे में पढ़ाई का दीवा कैसे चसेगा? निर्भाग! तूं टिक्कड़ पाड़ने में तो ढिल्ला नहीं है। पूरी डेढ़ बिलात रोटियां नाप देता है। हरफ- दो हरफ सीख ले, नहीं तो बाद में ढोबरा लिये लस्सी मांगता घूमेगा।’ इतने वचन बोलकर भी ढिल्लू के बाब्बू की आग ठंडी नहीं हुई अर वो आग-बबूला होता हुआ अगले दिन छोरे के स्कूल में पहुँच गया अर मास्टर से बोल्या, “भाई, तेरा के नाम है?’ मास्टर बोल्या, “ताऊ! मेरा नाम तो मनमोहन है।’ मनमोहन शब्द सुनकर तो ताऊ के आग-सी लग गई अर गुस्से में बोल्या, “बालकां नैं भड़कावै है, इस हिसाब से तो तुझे प्रधानमंत्री होना चाहिये था। तूं आड़ै के टिंडे बेचै है?’

 

– शमीम शर्मा

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