मोहर्रम के प्रतिक

mohrramमोहर्रम इस्लामी हिजरी संवत का पहला महीना है। “मोहर्रम’ का शाब्दिक अर्थ है “प्रतिबंधित’। हजारों वर्ष पूर्व इस पवित्र महीने मोहर्रम में अरब का कोई भी गुट अपनी ओर से युद्घ आरंभ नहीं करता था। इस कारण इसका नाम “मोहर्रम’ है। पहली मोहर्रम हिजरी संवत का सबसे पहला दिन है। इस दिन नववर्ष की खुशियॉं, आनंद तथा उत्सव न मनाकर शोक मनाया जाता है, जिसका कारण इस पावन मास में मुसलमानों के महान पैगंबर हजरत मोहम्मद मुस्तफा के प्यारे नाती हजरत इमाम हुसैन की शहादत है। हजरत इमाम हुसैन, पैगंबर हजरत मोहम्मद की सुपुत्री हजरत फातिमा जहरा के सुपुत्र थे। उनके पिता हजरत अली, मोहम्मद साहब की सेना के सेनापति थे।

हजरत इमाम हुसैन अपने साथियों सहित मोहर्रम की दस तारीख को सन् 61 हिजरी इस्लामी संवत में कर्बला (वर्तमान इराक) में शहीद हो गये। इमाम हुसैन की पवित्र शहादत की स्मृति ही मुहर्रम के रूप में मनायी जाती है। इराक के कर्बला नगर में इमाम हुसैन की पवित्र कब्र है, जिस पर एक सुंदर भवन बना है। वहॉं पूरे विश्र्व के लोग दर्शन करने आते हैं। इसी भवन का प्रतिरूप “ताजिया’ है। पहली मोहर्रम से दस मोहर्रम तक इमामबाड़ों, दरगाहों, कर्बलाओं तथा मातमदारों के घरों में धर्मगुरु धार्मिक भाषण देते हैं, जिसमें इमाम हुसैन का पावन जिा होता है। जुलूस के रूप में ससम्मान दस मोहर्रम को ताजिया कर्बला जाता है, जहॉं उसको दफन कर दिया जाता है।

 

मोहर्रम के प्रतीक

काले वस्त्र और सादगी : मोहर्रम के महीने का चांद दिखते ही शिया महिलाएँ चूड़ियॉं, बुंदे, लाकेट आदि जेवर उतार देती हैं। स्त्री-पुरुष प्रायः काले कपड़े पहनते हैं। ऐसा शोक मनाने के लिए किया जाता है।

अलम : ये चॉंदी, सोने या अन्य धातु के बने होते हैं। इन्हें लम्बे से बांस में लगाया जाता है। इनमें पटका भी लटका रहता है, जिस पर कारचोब से पंजतन पाक के नाम या “या हुसैन’ लिखा रहता है। अलम को निशान भी कहते हैं। युद्घों के दौरान भी अलम लेकर योद्घा सबसे आगे चलते थे, जिससे दूर से पता चलता था कि किसकी सेना या कौन-सा योद्घा आ रहा है? जहॉं कब्जा हो जाता था, वहॉं अपना अलम गाढ़ दिया जाता था।

ताजिया : ये गत्ते, खपच्चियों और रंग बिरंगे कागज व पन्नियों से बनाये जाते हैं। ये वास्तव में दरगाहों के प्रतीक होते हैं। इन्हें दस मोहर्रम को कर्बला में दफन कर दिया जाता है।

ताबूत   : यह जनाजे का प्रतीक है। यह लकड़ी का बना होता है। इस पर काला कपड़ा डाला जाता है और अर्थी की तरह कंधों पर उठाया जाता है। मन्नत पूरी होने पर लोग इस पर चादर भी चढ़ाते हैं।

जुलजना : ये इमाम हुसैन का घोड़ा है। यह विशेष नस्ल का घोड़ा था, जो बहुत कुछ देखता और समझता था। इमाम हुसैन ने इसी पर युद्घ किया था। उनकी शहादत के बाद वह घायल होकर खेमों में वापस आ गया था। इसी की याद में दस मोहर्रम को सचमुच के घोड़े को साफ-सुथरा करके सजाया जाता है। उसे घायल दिखाने के लिए उस पर लाल रंग के धब्बों की चादर डाली जाती है।

मातम : हाथ से सीना पीटने को ही मातम कहते हैं। मातम छुरियों अथवा जंजीरों का भी होता है। ये छुरियॉं जंजीरों के जरिये एक हत्थे में बंधी होती हैं। इन्हें नंगी पीठ पर मार-मारकर शिया लोग लहूलुहान हो जाते हैं। आग का मातम भी होता है, यानी लोग सीना पीटते हुए दहकते अंगारों पर चलते हैं। शियों का विश्र्वास है कि घायल पीठ केवल गुलाबजल डालने से ठीक हो जाती है और आग पर चलने से भी पॉंव नहीं जलते।

नौहा, मरसिया : ये शोक गीत होते हैं। नौहा लय में पढ़ा जाता है और उसी लय पर हाथ का मातम किया जाता है। मरसिया क्लासिकल अंदाज में पढ़ा जाता है।

मजलिस : मजलिस उस सभा को कहते हैं, जिसमें एक मौलाना कर्बला का वाक्या बयान करता है। मौलाना तर्क देकर लोगों को इस्लाम और इसे बचाने में पैगंबर के नीतियों के योगदान को बताता है।

इमामबाड़ा : इमामबाड़ा उस जगह को कहते हैं, जहॉं मजलिस होती है। इमामबाड़े में बहुत से अलम लगे होते हैं। ताजिये रखे होते हैं, जरी रखी होती है। जरी शहीदों के रौजों का स्थायी मॉडल होता है।

मिम्बर : मिम्बर लकड़ी का सीढ़ियोंदार वह मंच होता है, जिस पर बैठकर मौलाना जिो अहलेबैत करता है।

सबील : कर्बला में जो लोग शहीद हुए वे तीन दिन के प्यासे थे, इसलिए लोग अस्थायी प्याऊ लगाकर लोगों को पानी या शर्बत पिलाते हैं।

 

– कीर्ति

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