रूल्स आर फॉर फूल्स!

सरकार का मानना है कि सरकार नियम और कानून के सहारे चलती है, लेकिन नौकरशाही का मानना है कि नियम-कायदे केवल मूर्खों के लिए होते हैं, बुद्घिमानों के लिए नहीं। बुद्घिमान इनका तोड़ ढूँढ़ ही निकालते हैं। इसलिए नियम-कानून आम जनता पर लागू होते हैं, नौकर-शाहों और बाहुबलियों पर नहीं। सरकार नियम-पुस्तकों में दिये गये नियमों की व्याख्या नौकरशाहों के विवेक यानी उनकी सुविधा पर निर्भर करती है। यह तो वही बात हुई कि लोकतन्त्र में जनता सर्वोपरि होती है, लेकिन चलती नेताओं की ही है। राजनीति में आज चाटुकारिता और दरबारी संस्कृति का बोलबाला है, इसलिए उन्हें कहीं भी गड़बड़-घोटाला ऩजर नहीं आता है। सामर्थ्य वालों का नियम-कायदों का ताक पर रखना एक आम बात है। एक बुद्घिमान मन्त्री किसी को भी क्लीन-चिट दे सकता है,चाहे न्यायालय में लंबित मुकद्दमा इसकी इजाजत नहीं देता। अपने कर्त्तव्य-पारायण पुलिस वाले किसी पर किसी भी धारा को लगाने की सामर्थ्य रखते हैं, क्योंकि उनकी कार्य-प्रणाली सभी रूल्स से ऊपर है। स्वतन्त्रता के नाम पर सब चलता है। नौकरशाहों और पुलिस वालों के बच्चे टैफिक नियमों की धज्जियां उड़ाने का लायसेंस अपने पास रखते हैं, जबकि आम बुद्घू जनता छोटी से छोटी गलती के लिए सजा पाती है, क्योंकि वह मूर्खों की केटीगरी में आती है। तभी तो वह बार-बार निकम्मे और भ्रष्ट नेताओं को चुनावों में विजयीभव का आशीर्वाद दे डालती है। संसद में पूछे जाने वाले सवालों के सौदागर अपनी सदस्यता से बर्खास्तगी पर शर्म-सार नहीं होते, बल्कि अदालत की शरण में जाते हैं। उन्हें मालूम है कि हमारे यहॉं के कानून की पेचीदगियां उन्हें काफी राहत दे सकती हैं। वैसे भी शर्म-वर्म उनके लिए आनी- जानी ची़ज है। घोड़ा अगर घास से दोस्ती करेगा तो खायेगा क्या! खाने वालों का हा़जमा वैसे भी दुरुस्त होता है।

हालात की बलिहारी, कायदे से अगर आप अपना डाइविंग लायसेंस बनवाना चाहते हैं तो आपको महीनों लग सकते हैं। लायसेंसिंग विभाग और पुलिस वाले आपको नाकों चने चबवाने का दम खम रखते हैं, लेकिन अगर आप यही काम बिचौलिए की मदद से करवाते हैं तो दो-चार दिनों में ही अपना लायसेंस घर बैठे पाने का हक रखते हैं। डाइविंग-टायल तक देने की आपको जहमत उठानी नहीं पड़ेगी। दाम बनाये काम, आपकी हर सफलता का महामन्त्र बन सकता है। तभी तो किसी कवि ने कहा है-

“अगर अटका हुआ है काम किसी दफ्तर में

टेबुल के नीचे से बस हाथ जरा मिलाइए!’

हाथ मिलाने का स्वर्ण-युग चल रहा है। पुलिस वाला डाकू से हाथ मिलाता है। उसकी शुद्घ कमाई का हिस्सा पाता है। राजनेता किसी अपराधी का हम-प्याला, हम-निवाला बन जाता है। शायद इसीलिए उन्हें कहीं घोटाला ऩजर नहीं आता है। ठेकेदार अफसर से हाथ मिलाता है और अपना मन-चाहा ठेका पा जाता है। आज रुपये पैसे की बा़जीगरी से सभी कुछ खरीदा जा सकता है, नियमों की बोली लगाई जा सकती है। फूल्स के लिए नियमों का पालन एवं अपनी कक्षा में बने रहना उनकी विवशता है। “अन्डर दि टेबुल’ हाथ मिलाने का फन उन्हें नहीं आता। वैसे भी सरकार की टांसपेरेंसी नाच नचाते नौकरशाहों की कैद में बन्द है। तेजी और ईमानदारी के पैमाने पर सबसे फिसड्डी देश का मैडल हमें दिया गया है। गरीब के आँसू भी काम नहीं आते। रिटायर्ड लोगों तक को वक्त पर पैंशन और प्रॉविडेंट-फंड का उनका अपना पैसा नहीं मिल पाता। नियमों को लागू करने वालों की मनोस्थिति यह है कि पंचों की बात सिर माथे, पर खूंटा उनकी मर्जी से गड़ेगा। भेड़ों के लिए अलग नियम और भेड़ियों के लिए अलग नियम हमारी कार्य-प्रणाली के अंग बन चुके हैं!

– राजेंद्र निशेष

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