लक्ष्य से दूर होती शिक्षा

जब भारत पराधीनता की जंजीरों में जकड़ा था, तब ब्रिटिश राजनेता विंस्टन चर्चिल ने कहा था कि किसी भी देश की सभ्यता-संस्कृति को नष्ट करना हो तो उस देश की शिक्षा प्रणाली बदल दो। ब्रिटिश सरकार ने इसी नीति पर चलते हुए भारत में दोहरी शिक्षा प्रणाली की परंपरा शुरू की और लॉर्ड मैकाले को इसका दायित्व सौंपा। मैकाले ने हमारे यहां दोहरी शिक्षा प्रणाली शुरू की। एक गरीब-कमजोर वर्ग के लिए, जिसे सरकारी शिक्षा कहा गया और दूसरी सम्पन्न वर्ग के लिए जिसें अंग्रेजी आधारित शिक्षा प्रणाली कहा गया। स्वतंत्रता मिलने के बाद शिक्षा-शास्त्री और तत्कालीन राष्टपति सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने एक देश में दो तरह की शिक्षा प्रणाली पर सवाल उठाए और सबके लिए समान शिक्षा नीति लागू करने की बात कही। लेकिन उनकी आवाज गुम होकर रह गई। डॉ. राधाकृष्णन के बाद अनेक राजनेताओं ने समय-समय पर दोहरी शिक्षा प्रणाली समाप्त करने की मांग की, लेकिन शिक्षा तंत्र में बैठे मठाधीशों ने इसे हमेशा अनसुना ही किया। यही वजह है कि भारत में दोहरी शिक्षा प्रणाली लागू रही और धीरे-धीरे इसमें बदलाव करने की मांग भी भोथरी होती चली गई।

आज अगर कोई इस शिक्षा प्रणाली पर प्रश्र्न्नचिह्न लगाता है तो उसे रूढ़िवादी और पिछड़ा कहा जाता है और विश्र्व में अंग्रेजी के चलन का हवाला देकर इसी दोहरी पद्घति को लागू रहने की वकालत की जाती है। इसमें कोई दो राय नहीं कि आज लगभग पूरी दुनिया में अंग्रेजी ही ऐसी भाषा है, जिसे सर्वमान्य माना जाता है, लेकिन ाांस, जापान, स्पेन, चीन जैसे देश भी हैं, जहॉं अंग्रेजी दूसरे दरजे की भाषा है। इस लिहाज से भारत में भी एक देश – एक भाषा के सिद्घांत पर चल कर अंग्रेजी को दूसरे दरजे की भाषा बनाया जाना चाहिए, परंतु उस महत्वपूर्ण तथ्य की अनदेखी कर शिक्षा माफिया समय-समय पर नए-नए प्रयोग करते रहते हैं। कभी प्रौढ़ शिक्षा अभियान, कभी साक्षरता अभियान तो कभी सर्व शिक्षा अभियान कार्याम चला कर सरकारी धन कागजों में खर्च किया जाने लगा। इस कारण शिक्षा स्तर सुधरने के बजाय बिगड़ता ही चला गया। दोहरी शिक्षा प्रणाली का बुरा असर यह हुआ कि हम अपनी ही सभ्यता और संस्कृति से विमुख होते चले गए और उसकी जगह ऐसी अपसंस्कृति ने पैर पसार लिए, जिसकी विकृतियों के उदाहरण आए दिन सामने आते रहते हैं। भारतीय संस्कृति में गुरु को ईश्र्वर से भी बड़ा माना गया है और गुरु-इच्छा के आगे शिष्यों ने अपना भविष्य तक दांव पर लगाया है। एकलव्य इसका सबसे बड़ा उदाहरण है, जिसने गुरु दक्षिणा में अपना अंगूठा ही काट कर गुरु के चरणों में चढ़ा दिया था। आज स्थितियां एकदम विपरीत हैं। गुरु के प्रति आदर भाव तिरोहित होता जा रहा है और कलयुगी शिष्य गुरु की जान तक लेने पर आमादा हो रहे हैं। जब युवा पीढ़ी ही दिग्भ्रमित हो तो समाज पर भी उसका प्रतिकूल असर पड़ना स्वाभाविक है। यही वजह है कि छात्रों में अपराध-प्रवृत्ति लगातार बढ़ रही है, जिससे समाज में कलुषता भी सिर उठा रही है। यह सब हमारी दोहरी शिक्षा प्रणाली का दुष्परिणाम है। इस स्थिति में युवा पीढ़ी पर दोषारोपण करना तो आसान है, किंतु इसकी तह में जाने की कोई कोशिश नहीं की जाती है।

समाज में आ रहे नैतिक ह्रास के मूल कारणों का निदान करने की बजाय शिक्षा तंत्र में बैठे माफिया समय-समय पर नई-नई योजनाओं के शगूफे छोड़ते रहते हैं। पहले प्रौढ़ शिक्षा अभियान के जरिये शिक्षा का प्रतिशत बढ़ाने की मुहिम चलाई गई। इस पर करोड़ों – अरबों रुपये बहाने के बाद जब यह तथ्य सामने लाया गया कि नौनिहालों की उपेक्षा कर प्रौढ़ों को पढ़ाना बेमानी है, तो साक्षरता अभियान चलाया गया। इस अभियान की नीयत में भी खोट थी। दरअसल समाज को आज भी शिक्षित बनाए जाने की जरूरत है, ताकि व्यक्ति देश, समाज और राजनीति के साथ अपने अच्छे-बुरे पर विचार कर सके, लेकिन शिक्षा नीति के नियंताओं ने उन्हें सिर्फ अक्षरज्ञान करवाने तक ही सीमित रखा। अंगूठा-छाप की जगह अपना नाम लिखने और थोड़ा-बहुत पढ़ लेने भर को शिक्षा का पैमाना मान लिया गया। इस प्रकार कागज पर शिक्षितों की संख्या में वृद्घि दर्शा कर अपनी पीठ खुद थपथपा ली गई। अब यही शिक्षा नियंता सर्व शिक्षा अभियान की ढपली बजा रहे हैं। “स्कूल चलो अभियान’ चला कर संख्या में वृद्घि दर्शाई जा रही और दुनिया को दिखाया जा रहा है कि हम प्रगति की राह पर अग्रसर हैं, लेकिन हकीकत इसके ठीक उलट है। कहने को आज भारत में दुनिया के बड़े शिक्षण संस्थान हैं, जहां विदेशी छात्र भी अध्ययनरत हैं। भारतीय प्रतिभाएं भी शिक्षा के क्षेत्र में अपना परचम लहरा रही हैं, लेकिन इसका लाभ देश को कितना मिल पा रहा है? रोजगार के नए अवसर पैदा करने में हमारा देश फिसड्डी रहा, नतीजतन हमारी प्रतिभाएँ विदेश में पलायन करने को मजबूर हो गईं। एक ओर शिक्षा के प्रसार के साथ शिक्षितों की संख्या में वृद्घि के आंकड़े जारी किए जाते रहे, वहीं जनसंख्या वृद्घि के मान से इनकी तुलना करने से परहेज किया गया। यही कारण है कि शिक्षा संस्थानों के क्षेत्र में उल्लेखनीय उपलब्धि दर्ज कराने के बाद भी 300 मिलियन लोग आज भी अपना नाम तक लिखने में समर्थ नहीं हैं। देश में तीन करोड़ बच्चे भी स्कूलों का मुंह नहीं देख पाते हैं। हायर सेकेंडरी स्कूल तक 1.2 मिलियन बच्चे ही पहुँच पाते हैं और मात्र 1.1 मिलियन छात्र ही उच्च शिक्षा ग्रहण करने कॉलेज जा पाते हैं। इस कारण प्रति एक हजार की आबादी में 380 आज भी अशिक्षित हैं।

भारत में उच्च शिक्षा प्राप्त करने वाले विद्यार्थियों का प्रतिशत कम होने का एक कारण गरीबी भी है। अधिकतर बच्चे हायर सेकेंडरी की शिक्षा ग्रहण करने के बाद ही काम के जुगाड़ में लग जाते हैं और स्नातक शिक्षा ग्रहण करने की कोशिश ही नहीं करते हैं। जो छात्र स्नातक या स्नातकोत्तर शिक्षा प्राप्त कर लेते हैं, उनमें से भी मात्र 20 प्रतिशत ही रोजगार पाने तक जा पाते हैं। शेष के सामने जूतियां चटकाने या खुद का छोटा-मोटा धंधा शुरू करने का ही विकल्प बचता है। सरकारी और उच्च संस्थानों में नौकरी पाना टेढी खीर के समान होता जा रहा है। एक वर्ग विशेष ने इस पर एकाधिकार-सा कर लिया है, खासकर उच्च पदों पर तो आला अफसरों के परिजन ही आने लगे हैं, फिर चाहे वे सामान्य वर्ग के हों या आरक्षित वर्ग के। ऐसे में यह प्रश्न सहज ही उठता है कि नौकरियों में समानता के अवसर कैसे मुहैया कराए जाएं? इसके लिए पहली आवश्यकता हमारी शिक्षा नीति में आमूल-चूल परिवर्तन की है। दोहरी शिक्षा पद्घति समाप्त कर देश में एक शिक्षा नीति लागू की जानी चाहिए ताकि असमानता का भेद मिटाया जा सके। मौजूदा दौर में अंग्रेजी की अनिवार्यता को देखते हुए इसे प्राथमिक स्तर से लागू किया जाये और हरेक नागरिक के लिए शिक्षा अनिवार्य की जाए। यह बहुत पेचीदा कार्य है, जिसके लिए दीर्घकालीन योजना और भारी बजट की दरकार होगी। इसी के साथ शिक्षा के संस्थान-शिक्षक, स्कूल भवन, पेयजल, शिक्षण सामग्री आदि का भी समुचित प्रबंध किया जाना चाहिए। जब तक ऐसा नहीं होगा, शिक्षा बेमानी रहेगी, जो वर्ग भेद की खाई को बढ़ाती ही रहेगी। इसलिए इस दिशा में कारगर पहल किए जाने की आवश्यकता है। क्या हमारे राजनेता एक समान शिक्षा नीति लागू करवाने के लिए आगे आने का साहस करेंगे?

– महेश बागी

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