वामन द्वादशी

vaman-dwadashi“दानवेन्द्र महाबली राजा बलि से भगवान विष्णु ने वामन रूप धारण कर अपनी कुटिया के लिए तीन पग भूमि की याचना की। महादानी बलि ने याचक को पहचान कर और उसके आशय को जान कर भी निःसंकोच यह दान दे डाला। वामन रूप हरि ने दो पग में संपूर्ण पृथ्वी और आकाश नाप कर तीसरा पग राजा बलि की पीठ पर रखा और उसे पाताल-लोक भेज दिया।’ पुराण वर्णित वामनावतार के इस प्रसंग के आधार पर प्रतिवर्ष भाद्रपद शुक्ला द्वादशी को वामन द्वादशी का पर्व मनाया जाता है। यों तो अनेक स्थानों पर किसी न किसी रूप में यह त्योहार प्रचलित होगा, परन्तु पंजाब के पटियाला नगर में इसे जैसे मनाया जाता है, वह अपने आप में विलक्षण है।

यह त्योहार कब से मनाया जा रहा है, यह कहना तो कठिन है। इसका प्रारंभिक स्वरूप क्या रहा होगा, यह भी अनुमान का ही विषय है। परन्तु एक बात निश्र्चित है कि इसमें समय-समय पर परिवर्तन अवश्य आते रहे हैं। वामनावतार का प्रसंग जो इसका आधार था, अब प्रायः गौण हो चुका है। इसके स्थान पर सामान्य धार्मिक, सांस्कृतिक और राष्टीय चेतना को हम अधिक मुखर रूप में देखते हैं। रजवाड़ा शाही के दिनों में इस प्रकार का आयोजन और भी महत्वपूर्ण था। आज यह त्योहार एक लोकोत्सव के रूप में मनाया जाता है, जिसमें सबकी सामूहिक भागीदारी रहती है। कोई महीना भर पहले ही इसकी तैयारियॉं शुरू हो जाती हैं। अपने-अपने क्षेत्र के उत्साही युवक मिलकर संसाधन जुटाते हैं। “टिप्परी’ और “गोंद’ का अभ्यास झॉंकी की सज्जा अथवा “लाग’ का निर्माण सभी कार्य महत्वपूर्ण है, क्योंकि दूसरों के साथ मुकाबला भी तो होना है।

“टिप्परी’ इस उत्सव का विशेष अंग है। यह गुजरात के प्रसिद्घ “डांडिया’ की शैली का एक खेल है, जिसे बांसुरी की एक विशेष तान और ढोलकी की थाप पर खेला जाता है। खेलने वालों के हाथों और पैरों की गति में पूर्ण तालमेल रहता है। मंथर से मध्यम फिर तीव्र और तीव्रतर इसका गतिाम रहता है। अंततः मंथर पर आकर इसकी समाप्ति होती है।

“गोंद’ तमिलनाडु के एक लोक-नृत्यु के अनुरूप है। एक बांस के साथ कुछ लंबी-लंबी डोरियॉं बंधी रहती हैं। इनकी संख्या सोलह, बीस, चौबीस और कभी-कभी इससे भी अधिक होती है। इसको टिप्परी का एक परिवर्तित कलात्मक जटिल रूप भी कहा जा सकता है। वही बांसुरी की धुन और वही ढोलकी की थाप। टिप्परी खेलने वालों के पैर थिरकते हैं और हाथ के डंडे बज उठते हैं। वे बांस से बंधी डोरियों के सिरे अपने हाथों में थामे लय और ताल पर मचलते हुए एक-दूसरे को ऐसे पार करते हैं कि डोरियॉं आपस में गुम्फित होती चली जाती हैं। पूरी तरह से गुंथ जाने के बाद विपरीत ाम में चलकर इस गोंद (गुम्फन) को खोला जाता है। यह बड़े लाघव का खेल है। एक कदम भी गलत पड़ जाने से सब गड़बड़ा जाता है।

इस आयोजन का एक धार्मिक अंग है, हिंडोले की रचना। जैसे हिमाचल-प्रदेश के मंदिर में देवताओं को शोभा-यात्रा के रूप में उत्सव-स्थल पर लाने का प्रचलन है, उसी प्रकार यहॉं भी ठाकुरों को हिंडोलों में प्रतिष्ठित कर इनकी शोभा-यात्रा निकाली जाती है। रास्ते में लोग इन पर श्रद्घा सहित चढ़ावा चढ़ाते हैं, और प्रसाद प्राप्त करते हैं।

वामन द्वादशी का सबसे भव्य और आकर्षक अंग है लाग और झांकियॉं। पौराणिक, ऐतिहासिक पात्रों अथवा अन्य महापुरुषों के जीवन के प्रेरक प्रसंगों को इन झांकियों में प्रस्तुत किया जाता है। लाग का निर्माण थोड़ा कठिन काम होता है। लोहे की मजबूत छड़ों को विभिन्न आकार-प्रकार से मोड़ा और जोड़ा जाता है और इन पर कपड़ा या कागज लपेटकर भॉंति-भॉंति के रूपों में साकार किया जाता है। इन पर “लाग’ के विषयानुरूप सजीव पात्र बैठाये जाते हैं, जैसे आकाश-मार्ग से उड़ते हुए हनुमान, युद्घरत महारानी लक्ष्मीबाई, राणा प्रताप, छत्रपति शिवाजी आदि। अब यह निर्माता की कल्पनाशक्ति पर निर्भर करता है कि वह अपने विषय को किस रूप में प्रस्तुत करता है।

बंगाल में दुर्गा-पूजा अथवा महाराष्ट में गणेशोत्सव के अवसर पर जैसे विभिन्न क्षेत्रों की अपनी-अपनी शोभा-यात्रा निकाली जाती है, उसी प्रकार वामन द्वादशी पर भी अलग-अलग परंपराएँ होती हैं। इस अवसर पर एक ओर दुर्गा-पूजा की-सी धार्मिकता दिखाई देती है तो दूसरी ओर गणेशोत्सव की-सी राष्टीयता भी। यह रात का त्योहार है। अंधेरा होने पर ही ये लोग बाहर निकलते हैं। टिप्परी खेलने वाला दल सबसे आगे रहता है फिर हिंडोला, झांकी और लाग आदि। नगर की मुख्य सड़कों पर चलता हुआ यह जुलूस हर बड़े चौक पर कुछ देर के लिए रुकता है। यहॉं टिप्परी के जौहर दिखाये जाते हैं। यों तो रास्ते में कहीं-कहीं छोटी-मोटी प्रतियोगिताओं का आयोजन होता है। परन्तु बड़ा मुकाबला बाहर खुले मैदान में होता है, जहॉं सभी दल आकर इकट्ठा होते हैं। संघर्ष बड़ी देर तक चलता है और खूब जोरदार होता है। जीतने वाले दल पुरस्कृत होते हैं।

भारत पर्वों और त्योहारों का देश है। यहॉं हर अवसर को पूर्ण गरिमा के साथ मनाने की परंपरा है। पटियाला का वामन द्वादशी भी इसी श्रेणी का एक पर्व है, परन्तु इसके आयाम कुछ भिन्न हैं। विभिन्न प्रादेशिक परंपराएँ इसमें समाविष्ट हुई हैं और देशभक्ति एवं राष्टीयता की भावना इसमें ओतप्रोत रहती है।

– कीर्ति

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