संदर्भ नागरिक अवज्ञा आंदोलन का

अमरनाथ श्राइन बोर्ड को आवंटित भूमि की पुनर्वापसी के मुद्दे पर अपने आंदोलन को और प्रभावी बनाने की दृष्टि से गठित संघर्ष समिति ने अब इसे नागरिक अवज्ञा आन्दोलन का रूप देने का निश्र्चय किया है। त्रासदी यह है कि पुनर्वापसी का विरोध करने वाला कश्मीर घाटी का आंदोलन संयुक्त राष्ट संघ के प्रतिनिधियों को अपना ज्ञापन सौंपने के बाद आश्र्चर्यजनक रूप से शांत हो गया है, लेकिन जम्मू संभाग अब भी आंदोलन की आग में पूर्ववत जल रहा है। विभिन्न इलाकों में सरकार की ओर से निषेधाज्ञा लागू है, लेकिन लोगबाग ह़जारों-लाखों की संख्या में संघर्ष समिति के बैनर तले अपनी गिरफ्तारियॉं दे रहे हैं। इनमें बड़ी संख्या में महिलायें और बच्चे भी शामिल हैं। ऐसा लगता है कि इस मुद्दे को जम्मू क्षेत्र के लोगों ने अपनी प्रतिष्ठा का ही प्रश्र्न्न नहीं, इसे जीवन-मरण का सवाल बना लिया है। इसे शांत और नियंत्रित करने की राज्य और केन्द्र की पूरी कोशिश नाकाम सिद्घ हो रही है। जो दृश्य विभिन्न टी.वी. चैनल अपने पर्दे पर दिखा रहे हैं, उन्हें देखने के बाद तो यही लगता है कि सब कुछ एक खतरनाक अराजकता के हवाले हो गया है।

अब संघर्ष समिति इस आंदोलन को एक नया मोड़ देना चाहती है। इसकी परिकल्पना उसने गांधीयुग के “सविनय अवज्ञा आंदोलन’ से उठाई है। लेकिन इस परिकल्पना से एक शब्द बाहर कर दिया गया है। वह शब्द “सविनय’ है। इतिहास साक्षी है कि गांधी के नेतृत्व में जो आंदोलन देश की आ़जादी के लिए संचालित हुए थे उनकी मिसाल दुनिया में कहीं नहीं मिलती। ये आंदोलन कितने अनुशासित थे और स्वयं गांधी इस अनुशासन के प्रति कितने सचेत थे, इसका उदाहरण 1921 के असहयोग आंदोलन में मिलता है। इतिहास बताता है कि स्थापित सत्ता के विरोध में इतना बड़ा और राष्टव्यापी आंदोलन फिर कभी नहीं हुआ। अंग्रेजी शासन की चूलें हिल गई थीं, लेकिन एक छोटी-सी घटना ने शिखर छूते उस आंदोलन को ठप्प कर दिया। बात सिर्फ इतनी सी थी कि आंदोलनरत एक भीड़ ने उत्तर प्रदेश में एक थाना फूंक दिया था जिसमें कुछ सिपाही जल मरे थे। तब गांधी ने बेहिचक अपना आंदोलन वापस ले लिया था। उनके निकटतम सहयोगियों ने उनकी बड़ी कटु आलोचना की थी। लेकिन गांधी ने सारी आलोचनाओं का वार झेलते हुए अविचलित भाव से कहा था कि हमें जो कुछ हासिल करना है वह हम अनुशासित रह कर ही हासिल करेंगे। उनकी दृष्टि में अवज्ञा तो उचित थी लेकिन विनय के साथ।

संघर्ष समिति को धन्यवाद दिया जा सकता है कि अपनी एक न्याय-सम्मत मॉंग को लेकर उसने आम नागरिक को उद्बुद्घ किया है, वर्ना यह जन-सैलाब जो आंदोलित हो जम्मू की सड़कों पर उमड़ता दिखाई दे रहा है, नहीं दिखता। अगर दिखता भी तो दो-चार दिन के उबाल के बाद ठंडा भी हो जाता। इतने बड़े जनसमर्थन के साथ लगभग डेढ़ महीने अथवा उससे भी ज्यादा दिनों तक आंदोलन जारी रखना कोई हॅंसी-खेल नहीं है। मगर संघर्ष समिति ने सारे दमनचा को झेलते हुए भारी जनसमर्थन के साथ आंदोलन को गति दी है। लेकिन इसका एक दुःखद पहलू भी है। दुःखद यह कि आंदोलन अनुशासन की सारी सीमायें पार कर अराजक हो गया है। इस आंदोलन ने 50 से अधिक लोगों की जानें ली हैं, ह़जारों घायल हुए, तोड़-फोड़ और आगजनी के चलते कितनी सरकारी-़गैरसरकारी सम्पत्तियों का नुकसान हुआ इसकी गणना करना मुश्किल है। यह अराजकता एक ऐसी सामाजिक मानसिकता है जो समाज-जीवन को अस्त-व्यस्त कर देती है। गांधी संभवतः इसी मानसिक कुंठा से अपने आंदोलनों को बचाना चाहते थे। कभी-कभी जायज मॉंग भी अगर गलत तरीके से पेश की जाती है तो वह अपना महत्व खो देती है। संघर्ष समिति के लोगों को गलत इसलिए नहीं ठहराया जा सकता कि उनकी मॉंग गलत है, लेकिन जिस अराजक आंदोलन के तहत यह प्रस्तुत की जा रही है उस पर उंगली ़जरूर उठाई जा सकती है।

मुशर्रफ के बाद

पाकिस्तान की राजनीति से मुशर्रफ तो विदा हो गये। उनकी विदाई सम्मानजनक रही या अपमानजनक, इस पर विवाद हो सकता है, लेकिन पाकिस्तान को जिस अस्थिरता से बचाने का दावा करते हुए वे विदा हुए उसे निर्विवाद नहीं कहा जा सकता। क्योंकि अब यह सवाल पाकिस्तान में भी और उसके बाहर भी बड़ी ते़जी से उठने लगा है कि मुशर्रफ के बाद पाकिस्तान की राजनीति किस हद तक स्थिर रह सकेगी। उन्हें हटाने के संबंध में तो प्रमुख राजनीतिक दलों में सहमति व्यापक रूप में दिखाई पड़ी थी। लेकिन उनकी खाली जगह को भरने के लिए वे आपस में सहमत होते दिखाई नहीं दे रहे। जो नवाज शरीफ और जरदारी मुशर्रफ को हटाने में एक साथ खड़े हुए थे, वही अब उनका कोई सर्वसम्मत विकल्प नहीं ढूंढ पा रहे हैं। इससे यह साफ समझ में आता है कि सत्ता-वर्चस्व का खेल फिर से पाकिस्तान की राजनीति को अस्थिर करेगा। पीपीपी और पीएमएल (एन) दोनों ही पार्टियॉं राष्टपति पद पर अपने व्यक्ति को काबिज देखना चाहती हैं। माना यह जा रहा है कि इन दोनों दलों की एकता और निकटता तभी तक थी जब तक मुशर्रफ शीर्ष सत्ता पर बने थे। अब जब वे नहीं हैं तो इन दोनों दलों की राजनीतिक महत्वाकांक्षायें एक बार फिर पाकिस्तान को अस्थिरता तथा अराजकता के हवाले कर सकती हैं। सवाल यह भी है कि क्या ऐसी हालत में अब तक तटस्थता की भूमिका में दिख रही सेना ऐसे ही चुप बैठी रहेगी?

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