संभव है ईश्वर को प्राप्त करना

यह बात जीवन में सदैव याद रखने की है कि जीवन का लक्ष्य भगवद-प्राप्ति ही होना चाहिए। अब सवाल यह है कि भगवद प्राप्ति किस तरह होगी? इससे पहले यह जानना चाहिए कि भगवान दुर्लभ नहीं हैं, भगवान तो सुलभ हैं। हम ऐसे भ्रम में जी रहे हैं कि भगवान को पाना मुश्किल है। यदि लक्ष्य को ही हम दुर्लभ समझ लेंगे तो लक्ष्य-प्राप्ति के प्रयास हम करेंगे ही नहीं। लक्ष्य का दुर्लभत्व व्यक्ति को लक्ष्य-प्राप्ति से वंचित करता है। लक्ष्य अगर दुर्लभ है तो यह मानव शरीर पाना ही दुर्लभ है।

हमें मालूम है कि पैसा कमाना दुर्लभ नहीं है, कठिन जरूर है, इसलिए तो सुबह से शाम तक पैसे कमाने का प्रयत्न करते हैं। येन-केन-प्रकारेण अर्थ-संवर्धन करते हैं। पैसे को हम दुर्लभ नहीं मानते हैं और परमात्मा को हम दुर्लभ मानते हैं।

वास्तविकता तो यह है कि पैसे कमाने से भी सरल ईश्र्वर को प्राप्त करना है। एक बार मन से उन्हें याद तो करो। भगवान को प्राप्त करना कठिन है, ऐसा भ्रम चारों ओर फैला है। देवों ने खूब पुण्य किये हैं, इसलिए उनको स्वर्ग मिला है। देव बनना सरल है, मगर मानव बनना इतना सरल नहीं है। रामायण में ऐसी कथा आती है कि रावण ने बहुत तपस्या की, तब ब्रह्मा जी और भगवान शंकर, रावण के पास गये। जब वरदान मांगने को कहा तो रावण ने वरदान मांगा, “”मैं किसी से नहीं मरूं।” ब्रह्मा जी ने कहा, “”ऐसा नहीं हो सकता, क्योंकि जिसका जन्म होता है, उसके लिए मृत्यु निश्र्चित है। इसलिए ऐसा वरदान मैं तुम्हें नहीं दे सकता। आलोक से लेकर ब्रह्मालोक तक सभी का पुनरावर्तन है। बनते हैं, मिटते हैं, फिर बनते हैं, मिटते हैं। तो मैं तुम्हें ऐसा वरदान कैसे दे सकता हूँ कि तुम मरोगे नहीं। जब तुम्हारा जन्म हुआ है तब तो तुम्हारी मृत्यु निश्र्चित है। इसलिए और कुछ मांगो। मैं नहीं चाहता हूं कि तुम्हारी तपस्या विफल हो जाए, क्योंकि सबको अपने-अपने कर्म के फल मिलते ही हैं।”

एक भक्त जिज्ञासा व्यक्त करता है, इस कथा के पीछे क्या रहस्य छिपा है कि रामायण में तुलसीदास जी ने एक साथ दो चावर्ती सम्राटों का उल्लेख किया है। जबकि हम जानते हैं कि एक समय में दो चावर्ती राजा नहीं हो सकते? रामायण में तुलसीदास जी ने इस तरह का उल्लेख क्यूं किया? चावर्ती का अर्थ है, जो सारी पृथ्वी का सम्राट हो। रामायण में तुलसीदास जी एक ओर राजा दशरथ को चावर्ती कहते हैं तो लंका के राजा रावण को मंडलिक मणि अर्थात चावर्ती बताते हैं। उसका सीधा-सादा अर्थ यह है कि चावर्ती तो राजा दशरथ ही थे, मगर धीरे-धीरे दशाननी विचारधारा का प्रभाव लोक-मानस पर इतना प्रबल होता चला गया कि दशानन भी चावर्ती के रूप में उभरने लगा। आज भी हम देखते हैं कि समाज में दशाननी विचारधारा का प्रभाव बढ़ रहा है, समाज में रावण पुष्ट हैं। धन कमाना, धन एकत्रित करना कोई पाप नहीं है। धन कमाना पाप होता तो हमारे शास्त्र, हमारे सद्ग्रंथ, हमारे ऋषि-मुनि कभी यह आशीर्वाद नहीं देते कि ऐश्र्वर्य अस्तु। धन कमाओ, सोने की नगरी बनाओ, ये कोई बुरी बात नहीं है, लेकिन यह नगरी द्वारिका हो, लंका न हो। सावधानी केवल इतनी रखनी है कि द्वारिका में श्रीकृष्ण हैं, लंका में दशानन। लक्ष्मी जी को हमने सदैव विष्णु पत्नी के रूप में पूजनीय माना है। लक्ष्मी की पूजा की है। इसलिए तुम्हारी सोने की नगरी अनीति की नींव पर नहीं, बल्कि नीति की नींव पर खड़ी हो। यदि वह अनीति की नींव पर खड़ी होगी, तो वह लंका होगी। अनीति की नींव पर ऐश्र्वर्य के महल का निर्माण करोगे तो उसका नाश निश्र्चित है। यदि हमने नीति से अर्थोपार्जन किया है तो उसका शांति से, प्रेम से उपयोग कर सकेंगे। उसका भोग कर सकेंगे।

इधर-उधर भटक कर पैसे एकत्रित करने वाले के पास पैसे को भोगने का समय ही नहीं होता। फिर कहते हो कि मन में शांति नहीं है। तब पूछने का मन होता है कि क्या वास्तव में तुम्हें सचमुच शांति चाहिए? क्या वास्तव में शांति की भूख है या सिर्फ बातें ही कर रहे हैं कि हमें शांति चाहिए? यदि व्यक्ति को शांति चाहिए तो उसे शांत होने से कोई नहीं रोक सकता? जो चीज तुम्हें अशांत किये है, वो कार्य बंद कर दो और नीति की राह पर चलो, फिर जीवन में शांति ही शांति है।

– सुभाष चन्द्र शर्मा

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