सच्चा सुख

जब हम कोई इच्छित वस्तु को प्राप्त नहीं कर पाते हैं, तो दुःखी व खिन्न हो जाते हैं। हमारा गुस्सा बढ़ जाता है और बिना बात के ही अन्य लोगों पर अपनी झल्लाहट उतारने लगते हैं। कभी-कभी हम किसी से कोई चीज चाहते हैं और वह देने से इंकार कर देता है, तब भी हमारी ाोधाग्नि बढ़ जाती है। यदि हम किसी तरह से इच्छित वस्तु को पा लेते हैं तो हमारा लोभ और बढ़ जाता है। हम उससे और अधिक की चाह करने लगते हैं। बाबा फरीद ने इसी संदर्भ में एक रचना लिखी है –

फरीदा देख पराई चौपड़ी

मत ललचाये जी।

रुखी-सूखी खायकर ठंडा पानी पी।।

हम किसी चीज को पकड़ कर रखना चाहते हैं और उसे कोई दूसरा छीन लेना चाहता है तो उससे हम नाराज हो जाते हैं। हम प्राप्य वस्तु को बचाने के लिए एक सांप के समान व्यवहार करने लगते हैं। उस व्यक्ति को फुफकारने लगते हैं और उस पर हमला करते हैं। हम मनगढ़ंत और पाप से परिपूर्ण बातें करके दूसरों को अपने से दूर भगाते हैं, तिस पर भी हमारा अधिकार छिन जाने पर हमारा जीवन निष्प्रयोजित हो जाता है और हम काम नहीं कर पाते हैं। जिन वस्तुओं पर हम कब्जा करना चाहते हैं, वे हमारे धन, यश, कीर्ति, सत्ता, सामान अथवा संबंध हो सकते हैं, जो कि सब नाशवान हैं। ये वस्तुएँ समय के साथ नष्ट हो जाती हैं अथवा हमें मौत के समय इनको छोड़ देना पड़ता है।

यदि हम इन स्थितियों का विश्लेषण करें, तो हम पाते हैं कि ये छोटी-छोटी वस्तुएँ झगड़े का कारण बनती हैं। हम रेत के किलों पर लड़ते हैं और यह नहीं जानते कि आने वाले तूफान इन्हें गिरा जायेंगे। जो लोग आध्यात्मिक रूप से जागृत हैं और पिंडी रूपी दुनिया से ऊपर उठ चुके हैं, वे हमें यही बताते हैं कि यह जगत माया का बना हुआ है और प्रभु की ऱजा में यह सब व्यर्थ है। हमारे भीतर अनेक मंडल हैं और यह पिंडी रूपी दुनिया माया की होकर एक चित्र मात्र है, जो कि प्रकाश की किरणों की बनी है। यह जगत ठीक इसी तरह से है, जैसे हम सोते हुए स्वप्न देखते हैं और जब जागते हैं तो वे सब तिरोधान (खत्म) हो जाते हैं।

संसार का स्वप्न देखने वाली हमारी आत्मा है। अज्ञान के कारण से आत्मा यह सोचती है कि संसार का जो दृश्य हम देख रहे हैं, वह सच्चा है, किन्तु वास्तविक दृष्टि से यह सब माया का धोखा है। आत्मा जब यह देखती है कि मेरा साथी एकमात्र परमात्मा है और मैं उसी का एक अंग हूँ।

परमात्मा चेतन स्वरूप है और हमारी आत्मा भी परमात्मा का अंश होने के नाते चेतन स्वरूप है। ऐसा कहा जाता है कि प्रभु ने जब सृष्टि बनानेे की सोची तो उस समय एक लहर उत्पन्न हुई। इस लहर के दो अंग हैं – ज्योति और श्रुति। इसी लहर के अंगों ने ही सारे खंड-मंडल बनाये हैं। धर्मशास्त्रों में इस ज्योति और श्रुति नामक लहरों के अंगों को ामशः शबद और कलमा कहा जाता है।

आत्माएँ, जो कि प्रभु की ही अंश हैं, उन्हें इन मंडलों को बसाने के लिए भेजा जाता है। इस तरह से हम वास्तव में आत्मा हैं। प्रभु से एक होने पर ही हम चेतना, आनंद, प्रकाश और परम प्रेम का अनुभव करते हैं। उसके बाद संसार अर्थात् हमारा अनुभव ही मुख्य है।

भगवान बुद्घ के जीवन से संबंधित एक कथा है- वे बैठे हुए थे। उनके पास एक व्यक्ति आया, जो काफी गुस्से में था। वह भगवान बुद्घ पर फट पड़ा। किन्तु, भगवान बुद्घ ने उससे कहा, “”तुम्हारा उपहार मैं अस्वीकार करता हूं।” भगवान बुद्घ ने जब इस ाोध रूपी उपहार को लौटा दिया, तब मजबूरन उस व्यक्ति को अपना ाोध पीना पड़ा।

हमें भी भगवान बुद्घ की तरह ाोध रूपी उपहार को प्रेम, नम्रता और शांति में बदल देना चाहिए। संत दर्शनसिंह जी महाराज एक शेर में फरमाते हैं-

ज़िन्दगी खंजरे खूंखारे

हलाकत ही नहीं।

ज़िन्दगी शाखे गुले

उलफतो-अखलास भी है।

इस तरह से हम आंतरिक-शांति को प्राप्त करके विश्र्व-शांति को बल देंगे। हमें शांति के इस उपवन में (जो हमारे भीतर है) ध्यान के माध्यम से उतरना होगा। ध्यान के द्वारा हमारा जीवन बदल जायेगा और प्रभु की बादशाहत इस जगत में कायम हो जायेगी।

अंत में मैं संत दर्शनसिंह जी महाराज की मानव-जाति के लिये जो प्रार्थना है, उस पर अपनी बात समाप्त करता हूं-

जीस्त बेताब है आसायिशे गेती के लिए

कोई इस ख्वाब को

शरमिन्दए ताबीर करे।

मौजए नूर से ताबिंदा गुलिस्ता हो जाये।

दौलते इश्क जमाने में

फरावां हो जाये।।

 

– संत राजिन्द्र सिंह जी महाराज

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