सोया हुआ गांव

बहुत पहले सच्ची घटना पर आधारित एक कहानी पढ़ी थी जिसमें बताया गया था कि एक जापानी पति-पत्नी भारत भ्रमण पर आए और यहॉं के गांवों को देखने निकल पड़े। उन्होंने देखा कि खेत में पेड़ के नीचे एक नौजवान खाट पर सोया हुआ था। उसके निकट जाकर जापानी दम्पत्ति ने पूछा, “क्या आप बीमार हैं?’ लड़के ने कहा, “नहीं तो।’ फिर उन्होंने पूछा कि “यदि तुम बीमार नहीं हो तो दोपहर में सो क्यों रहे हो?’ लड़के ने अचरज में सवाल किया, “क्या मैं सो नहीं सकता?’ जापानी बोला, “दरअसल बात यह है कि हमारे देश में दिन में सिर्फ बीमार सोते हैं या वे वृद्घ जो काम करने में असमर्थ हो गए हैं।’ लड़का करवट लेकर पुनः सो गया जैसे कुछ सुना ही नहीं।

आप कभी गांवों में जाकर देखें तो मालूम पड़ेगा कि अपने लाड़लों और मर्दों की मेहनत के जो किस्से हम सुनाते नहीं थकते, वे किस्से कितने खोखले हैं। कुछ दिन पहले सम्पूर्ण स्वच्छता अभियान के तहत 25-30 लोगों का हमारा दल जब एक गांव की गलियों से निकल रहा था तो बैठक, चौपालों या पेड़ों के नीचे बैठे, बतियाते या खाटों पर पसरे लोग या इधर-उधर ताश खेल रहे लोगों ने हमसे यह पूछने की तकलीफ भी नहीं कि क्यों आए हो? एकाध आदमी हमारे बैनरों को देख कर ़जरूर बोले कि स्वच्छता वाले हैं। एक घर की सांकल खड़का कर दरवाजा खुलवाया तो उनींदी-सी आँखों वाली महिलाओं को देख कर अचम्भा हुआ। मैंने पूछ ही लिया, “तुम नींद में हो क्या?’ तो औरतों ने भी साफगोई से बताया, “बात ये है जी कि रात को बिजली होती नहीं और हम पूरी रात जागकर काटते हैं। मच्छर काटते हैं सो अलग। इसलिये दिन में लाइट आने पर सो रहे हैं।’ अब उनकी इस स्थिति का क्या जवाब दिया जाए? मुझे नहीं पता कि कहानी में मैंने जिस लड़के का जिक्र ऊपर किया है, वो क्यों सो रहा था पर इन औरतों की हालत का तो अंदा़जा लगाया जा सकता है। फिर मुझे सभ्यता के उस चरण का ध्यान आया कि जब बिजली थी ही नहीं, तो लोग कैसे सोते होंगे? मेरे भीतर से उत्तर आया कि तब लोग ज्यादा चैन से सोया करते थे। खैर… हमने अपने अभियान के दौरान सैंकड़ों लोगों से बात की। ज्यादातर लोगों ने सरकार को गाली देने के अलावा कुछ नहीं किया। लोग कोसने में दक्ष हो गए हैं। अपने भीतर झांकने तक का विचार उनके जहन में नहीं उपजता। उनके फ़र्ज की बात करो तो वे काटने को दौड़ते हैं और कुछ देने की बात करो तो आपकी बात में रस लेते हैं वरना उनका मन करता है कि दरवाजा बंद करके सोने में ही स्वाद है।

एक बार की बात है कि एक बार गली में दो छोरे कसूत्ते भिड़ रे थे। कुर्ते की कॉलर पकड़कर वे भूंडी ढाल गुत्थम-गुत्था हो रे थे। गली के लोग अपनी-अपनी छत पर खड़े ये तमाशा देख रहे थे। नत्थू सेठ भी अपली घरवाली रामप्यारी के साथ छत पर खड़ा-खड़ा ये सारा किस्सा देख रहा था। सेठ अपनी लुगाई से बोल्या, “यूं ढंग दीखे कि आज तो ये मन्नें मारेंगे।’ सेठानी बोली, “रै बीज मिटणे! तेरे आड़े छात पे खड़े के क्यूंकर मारेंगे?’ सेठ बोल्या, “तूं भी यहीं खड़ी है अर देख लिये, ये मन्नें ़जरूर मारेंगे।’ इतने में वो चौधरी के छोरे लड़ते-भिड़ते सेठ के छज्जे के नीचे आ गए। सेठ झुक कर देखने लगा तो छज्जे की झोल डंटी नहीं, अर बैलेंस बिगड़ गया अर गली में गूँज उठा धमाका। सारे लोग इकट्ठे हो गए। सेठानी भागकर नीचे आ गई। बेहोशी टूटे बाद जब सेठ ने जरा-सी आँख खोली तो सेठानी से बोल्या, “ए तूं मन्ने डांटै थी पर मैं कहूं था ना, ये मन्नें मारेंगे।’

– शमीम शर्मा

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