स्वास्थ्य सेवाओं की बिगड़ती सेहत

किसी ने सच ही कहा है कि स्वास्थ्य ही धन है। सचमुच बगैर अच्छे स्वास्थ्य के कुछ भी ठीक नहीं लगता। मानव को संसाधन बनाने में सबसे बेहतरीन स्वास्थ्य का होना अनिवार्य है।

वर्तमान परिप्रेक्ष्य में अंतर्राष्ट्रीय संगठन तथा भारत में केन्द्र एवं राज्य सरकारें लोगों को शानदार स्वास्थ्य सेवाएं मुहैया कराने हेतु कई कल्याणकारी योजनाएं चलाती हैं। यद्यपि यह संविधान में वर्णित है कि मानव के कल्याण हेतु सरकार को उपाय करने चाहिए तथापि भारत में स्वास्थ्य सेवाएं लगातार बद से बदतर होती जा रही हैं। देश में प्रति व्यक्ति के स्वास्थ्य के हिसाब से न डॉक्टर उपलब्ध हैं और न दवाएं। पंचायत एवं प्रखंड स्तर पर स्वास्थ्य सेवाएं काफी बदतर स्थिति में हैं। जिले में मेडिकल सरकारी सेवाओं का खस्ता हाल है। रोगी के लिए न बिस्तर की व्यवस्था है और न ही सफाई का ख्याल रखा जाता है। कई राज्यों के सरकारी अस्पतालों में रोगी को जो मुफ्त दवाएं या अन्य फल व वस्तुएं उपलब्ध करानी होती हैं, उसे अस्पताल प्रशासन निगल जाता है। सरकारी अस्पताल में अस्पताल कर्मियों तथा जूनियर डॉक्टरों द्वारा आम जनता के साथ बेहतर व्यवहार नहीं किया जाता, इलाज करना तो दूर की बात रही। ऐसा नहीं है कि सारे अस्पताल का प्रशासन तथा डॉक्टर इस तरह के हैं किन्तु प्रायः तमाम जगहों पर ऐसी स्थिति है जिससे गरीब, बीमार तथा अशिक्षित जनता जानकारी के अभाव में निजी क्लीनिकों द्वारा लूटे जाते हैं।

उदाहरण हेतु बिहार में दरभंगा शहर में प्रायः निजी क्लीनिक के दलालों के द्वारा सुदूर ग्रामीणों क्षेत्रों के रोगी लूटे जाते हैं। उनके साथ न केवल दुर्व्यवहार होता है बल्कि इलाज का बेहद खराब इंतजाम रहता है। ग्रामीण लोग अपने परिजनों के इलाज के लिये जमीन-जायदाद गिरवीं रख देते हैं अथवा बेच देते हैं। इसके बावजूद निजी क्लीनिकों का खर्च उन्हें इलाज से महरूम कर देता है। कमोबेश पूरे बिहार में यही स्थिति है। दरअसल दरभंगा में सरकारी अस्पताल की दुर्दशा तथा दुर्व्यवहार से लोग निजी क्लीनिकों की तरफ रूख करने लगे हैं। केवल दरभंगा में ही नहीं, बिहार के कई जिले इसी स्थिति के शिकार हैं। इसके अलावा अनावश्यक मुद्दों को लेकर अस्पताल प्रशासन या डॉक्टरों द्वारा हड़ताल पर जाना आम बात है। इससे गरीब एवं बीमार जनता का सबसे बुरा हाल होता है। बिहार के अलावा भारत के अन्य राज्यों में भी डॉक्टरों का हड़ताल पर जाना दुर्भाग्यपूर्ण है। अप्रैल के मध्य में मुंबई में रेजीडेंसी डॉक्टरों का हड़ताल पर जाना तथा अस्पताल प्रशासन द्वारा कई डॉक्टरों का निलंबन खराब स्वास्थ्य सेवाओं की कहानी सुनाता है। यद्यपि डॉक्टरों की मांग थी कि पोस्ट ग्रेजुएशन सीटों की संख्या नहीं घटानी चाहिए वरना गरीब का बच्चा डॉक्टर नहीं बन पाएगा तथा आम गरीब जनता निजी क्लीनिकों द्वारा लूटी जाएगी। इसके विपरीत सीटों की संख्या घटा दी गयी जिससे हड़ताल हुई।

हाल में आंध्र प्रदेश में विधायकों के कथित दुर्व्यवहार के कारण डॉक्टर हड़ताल पर चले गये। सबसे बड़ा राष्ट्रीय स्तर का विवाद दिल्ली के एम्स के डॉ. वेणुगोपाल तथा स्वास्थ्य मंत्री डॉ. अम्बुमणि रामदौस के बीच लंबे समय से चला। इससे कई बार स्वास्थ्य सेवाएं बाधित हुईं।

परंतु यह अत्यंत ही खेदजनक है कि अपने अहं या मांग को लेकर संवेदनशील चिकित्सक रोगी को मरते हुये छोड़ कर अस्पताल में हड़ताल करें। यह तो सामान्य बीमार जनता को मौत में धकेलना हुआ। यदि चिकित्सकों को कोई प्रशासनिक या अन्य दिक्कतें हैं तो उन्हें शांतिपूर्ण तरीके से सुलझाना चाहिए। परंतु अपने कार्य को छोड़ कर हड़ताल करने से सबसे ज्यादा फर्क गरीब रोगी पर पड़ता है। अमीर लोग तो निजी क्लीनिकों में चले जायेंगे परंतु गरीब रोगी को इलाज के अभाव में मरना होगा जो स्पष्टतः मानवाधिकारों का उल्लंघन है। डॉक्टरी पेशे के साथ अन्याय है। बेशक डॉक्टरों को भी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार है। और यह भी सच है कि बगैर हड़ताल, जुलूस एवं प्रदर्शन के मुखर रूप से बात नहीं सुनी जाती तथापि डॉक्टरों को मानवता की सेवा को ध्यान में रख कर रोगी के प्रति दया रखनी चाहिए। संवेदनशीलता का ईश्वरीय गुण नहीं छोड़ना चाहिए। प्रोफेशनल होना अच्छी बात है परंतु मानवीय एवं संवेदनशील होना इससे महान गुण है।

अंततः सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं को बढ़ती जनसंख्या का कोप भी झेलना पड़ता है तथापि संचार के माध्यम से स्वास्थ्य की जानकारी देने के साथ सरकारी अस्पतालों में सुधार की पर्याप्त गुंजाइश है। वैज्ञानिक शोध के द्वारा सस्ती एवं उपयोगी दवाओं का निर्माण भी बेहतर स्वास्थ्य के लिए शानदार रहेगा।

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